Saturday, April 28, 2007

जनता, अब आती है

मनाते, रहो जयन्तियाँ
समय-धन सभी का अपव्यय करते रहो
देश भाड़ में जाय
अपना काम निकालते रहो.....
तबाही और बढ़ी है
देश की गति गाँव की लढी है !
जो चूं-चररमरर, चूं-चररमरर करती
जनपथ पर भैंसे द्वारा
या बधिया किये हुए बैल द्वारा
खींची जा रही है !
जीवन-बोझ बहुत बड़ा हो गया है ।
सीमित दायरों में जीने का हक क़ैद हो गया है !!
मैं स्वयं ही सिमट गया हूँ,
सकुचा गया हूँ
तुम वास्तव में तुम नही रहे
स्वार्थ सने, पापी दुराचारी
अनाड़ी हो गए हो .....
अपनी ही बात मनवाने के आदी हो गए हो !!
पक्षपात, व्यक्तिवाद निजी धरोहर हो गयी है
तुम्हारी पाली हुई कुतिया महान हो गयी है
क्योंकि तुम महान थे ?
यह एक कटु सत्य है ।
मैं गरीब घर में जन्मा एक छोटा आदमी
और छोटा हो गया हूँ ।
तुम्हारी दृष्टि में बहुत कुछ खोटा हो गया हूँ !!
मेरी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा
सामान्य बातचीत सी रह गयी है ।
और तुम्हारी जाली विज्ञप्ति
कोरे सिद्वांत
झूठे आदर्श
लिजलिजी लकीर सी
देश-विदेश में पोस्टर बनी चिपकी है !
इतना ही नही
मेरी मुस्कान तुम्हारी दृष्टि में
अपराध बन गयी है
मेरी जिंदगी शतरंज के खेल में
ऊंट की चाल-सी हो गयी है
क्योंकि मैं एक छोटा आदमी हूँ
मेरा बाप बड़ा आदमी नही है
मेरी पहुंच बडे-बडो तक नही है
यानी स्पष्ट .....
मैं स्वाभिमानी हूँ

लल्लोचप्पो की बात नही भाती है !
भीतर-बाहर साफ
बिल्कुल साफ ...... शान्ति चाहता हूँ
तुम्हारी मायाविन चाल मुझे नही भाती
मैं तुम्हारा अनुमोदन नही करता हूँ
यानी विरोध करता हूँ .....
बस, इतनी सी बात
तुम्हारी काली करतूतों का पर्दाफाश करता हूँ
तुम मुझसे होनी-अनहोनी सभी कुछ
करवाने पर तुले हो !
अपनी जिन्दगी का मोह
हम जैसे तमाम छोटे आदमियों की
उपेक्षा में जिन्दा रखते रहो !
दोष मेरा भी है
कि आधी रोटी पाकर खुश हो गया हूँ
तुम्हे बधाईयाँ देने लगा हूँ
मदहोश नाचने लगा हूँ .....
बस, तुम फूले नही समाये
और तुम 'तुम' नही रहे !

मैं भी बदल गया हूँ
अब आग पीकर छक गया हूँ
उगलूंगा .....
तुम्हारी भृष्ट नियति को राख बनाकर ही
तुष्टि पा सकता हूँ !
सारे देश की जनता अब आती है !
सम्हलो, तुम्हारी सरकार जाती है !!

निवेदन

मेरी भावना को ठौर भले ही न दो
पर, इस तरह पेश मत आओ
बेसलीके इन्सान की तरह
तुम्हारी प्रवृत्तियां जैसी हैं, तुम्हे मुबारक हो
वे सभी तुम्हारी करनी और भरनी का
ब्योरा हैं !
मुझे इस शंकालू प्रवृत्ति का
शिकार मत बनाओ !
अपने चौपट समाज में मुझे मत मिलाओ !!
मेरी आदतें तुमसे नही मिलती
तो कोई विशेष बात नही .....
अपनी-अपनी रूचि, अपना-अपना ढंग
मैं तुम्हे बुरा नही कहता हूँ
पर स्वयं दुर्व्यसनी बनने से कतराता हूँ
पाता हूँ, तुम अप्रसन्न.....असन्तुष्ट
और फ़ैलाने लगे अफवाहें
कोरी.....केवल कल्पित, अनाप-शनाप
और कहने लगे -
यह आदमी बेढंगा है
उसे घूरता है
मुझे ताकता है
यानी सब का सब बवंडर ......
एक अच्छा-खासा मजाक तुमने तैयार कर दिया ?
मुझे जानकर दुःख हुआ
तो तुम और हँसे, ठहाका लगाया
पर, जब तुमसे आंख मिलाकर बात की
तुम चुप रह गए ??

मेरा दोस्त

सभी चाहते हैं
आपस में हिलमिलकर रहना
दिल से, दिमाग से
किन्तु मैं इसका विरोधाभास पाटा हूँ यहाँ
ऊपर से दोस्त कितने गहरे हैं
भीतर से उतने ही छिछले .....
सच बिल्कुल सच .....
अभी परसों ही उस दोस्त ने
मुझे भला-बुरा बतलाकर नकारा
और शिष्ट सभ्य समाज में
मेरी हस्ती से खेल खेलने लगा
मेरी अनुपस्थिति का लाभ वह उठाने लगा
जो लोग अफवाहें पसंद करते हैं
वे झूम गए और मुझे शंकालु दृष्टि से
देखने लगे .....
बस.....मेरी दम सूखने लगी
हे भगवान् !
मैं अपने कार्य एवं व्यवहार से
किसी को कष्ट नही पहुँचाता हूँ
यह क्या सुन रहा हूँ ? ...... इन्हें मैं

अच्छी तरह जान गया हूँ !!
वह अपने अहं-प्रतिष्ठापन के लिए
मेरे यश से खेलना चाहता हैं
वह भृष्ट है, उसका साथ मैं दे नही पाता
इसीलिये मुझ पर कीचड़ उछालता है

होश में आने पर गले मिलता है
मेरा शील-स्वाभिमान टुकुर-टुकुर देखता है
कैसे कहूँ? 'यह गन्दा व्यक्ति मेरा दोस्त है ।'

नेहरू : पुण्य स्मृति

सत्ताइस मई
फिर आ गई;
एक कसक कुरेदती
लांघती-फांदती
कूदती समय-शिला के वक्ष पर
बलिदानी यश की एक पंक्ति लिख देने .....
अनगिनत शहीदों के देश में
अपने इतिहास की साक्षी ..... ।
एक गुलाब
जो बूढा होकर भी नित्य ताजा ही
दिखता था,
पश्चिम से पूर्व
और उत्तर से दक्षिण तक अपनी खुशबू
से साबका मन मोहता था,

वह अचानक मुरझाकर
झर गया था
और सदा-सदा के लिए
धरती के कण-कण में समा गया था
प्रकृति-पुरुष सबके सब
एक साथ स्तब्ध खोये से रह गए थे
देश का रहनुमा नेहरू मर गया था,
किन्तु उस दिन के ढलते सूरज ने
सनसनाती पवन से एक बात कही थी
कि नेहरू मरा नही, अमर हो गया है
देश-विदेश का मनन हो गया है
शांति का पुजारी हवन हो गया है
सिर्फ एक सुन्दर शरीर खो गया है !
सिसको मत
कल के हिसाब का किताब हो गया है !!

मसूरी-१

मसूरी कही जाती है 'पर्वतों की रानी'
सजे-धजे रूप की भीड़
रंग-रंगीले चेहरे
बहुत कम अकेले
माल रोड की रौनक .....
आदमी-औरतों की भीड़
लड़के-लड़कियों की भीड़
कुली-कबाडों की भीड़
सैलानी-घुमक्कडों की भीड़
सबके सब डूब गए हैं
हुस्न और इश्क के बहुत बडे
दरिया में .....
कुछ गोताखोर
बेचारे बोर .....
क्योंकि उनमे समा गया है शोर
चारों और का प्राकृतिक सौन्दर्य
अब भी वैसा ही ताजा है

जैसा कभी किसी ने देखा था ।
मुझे लगता है की पश्चिम ने
पूरब को ठगा है
अँधियारा भगा है
किन्तु, वे चेहरे
सिर्फ, वेश-परिवर्तन किये
ज्यों के त्यों घूम रहे हैं

खुले आम ..... ।
हे भगवान् !
हिन्दुस्तान का यह हिस्सा कितना खुशहाल
काश, पूरा देश ही ऐसा होता !!

वर्तमान

देख रहा हूँ मैं भविष्य को
वर्तमान में.....
धुंध-कुहासे में छाये उत्पीड़ित मन को
बनी-ठनी सी मनुष्यता
सीमित क्षेत्रों में
किन्तु सुलगती राख कहीं कोई चिनगारी
छिपी हुई है बडे ढ़ेर में ?

आकुल है जो लौ बनने में
शायद समय नघीच आ रहा ?

युग-मूल्यों का मुल्य चुकाने
कोई कहीं सुभाष आ रहा ?
जन-गण-मन में मन मुटाव है
तन-दुराव है
भेद-भाव है
बड़ा घाव है ?
जिसका दर्द सहा ना जाता
सही-सही कुछ कहा ना जाता

मौसम बेमौसम आ जाता
कोई अपना ही छा जाता
स्वार्थ घिनौना व्यक्तिवाद
छल-बल बन जाता !!

और राष्ट्र खोखला दिनोदिन होता जाता ।
बेकारी, भुखमरी, निराशा-उत्पीड़न का
साम्राज्य बढ़ता ही जाता ?
सुख-सुविधा का स्वप्न,
स्वप्न ही है रह जाता !
देश हमारा हाय, दिनोदिन घुटता जाता
लुटता जाता,
और कब तलक हम ऐसे लुटते जायेंगे
कोई भी सीमा तो होती !
जो फिर बढकर विष ना बोती
बाँट अमृत सुख से सो जाती !
निज भाषा की बोल-चाल में
जनभाषा युग-ध्वनि हो जाती !!
ह्रदय से ह्रदय की बातें होती
शंका, भय, अवसाद पिरोये
कोई छाया सिसक-सिसक कर ना मुरझाती
और आर्थिक स्वतन्त्रता सबको मिल जाती
भेद भरी गहरी खाहीं
खुद ही पट जाती ?
बोला कवि, तो फिर जग जाओ
वर्तमान को ओ भविष्य नन्हें उठ जाओ
सोचो, समझो, मनन करो कुछ
तब तुम अपने कदम बढाओ !
जब तक कोई देश ना अपनी भाषा बोले
शक्ति दूसरो की भाषा से अपनी तोले
तब तक है वह देश गुलामी की छाया में

अपनी प्रतिभा अपने आप समर्पित भोले !!
आओ, आगे आओ, तुम सब कुछ कर सकते
खेल खेल में
सारा खेल ख़त्म कर सकते !
माँ, भारती उदास बहुत है
क्योंकि
उसे मम्मी कहलाने में
दुःख
ही
दुःख.....!!

मसूरी-२

जिस तरह यहाँ आदमी
खुशहाल नजर आता है
ठीक, ऐसे ही
काश; सारे देश का आदमी दीखता
तो मेरा जीवन युग-युग तक
सार्थक हो जाता.....
बडे-बडे आदमियों की भीड़
बनाव-श्रृंगार की भीड़
रूप-धन की भीड़
प्रणय-मिलन की भीड़
अच्छी-खासी हसीं नयी-पुरानी
अधकचरी उमर की भीड़
सौन्दर्योपासना की भीड़
और भीड़
जिंदा लाशों की
फैशन परस्त चांदनी की चम-चम में
चमकते चेहरों की

दिन-दोपहरी बीच सड़क पर
ढो रहे एक-एक को चार-चार
आदमी ..... बेबस
भूख की तपन
बीबी-बच्चों की क़सम
आदमी खरे सिक्के-सा चल रहा है
सभी कुछ हो रहा है.....
मसूरी पर्वतों की रानी है
खुबसूरत बेशक.....
किन्तु हिन्दुस्तान की तस्वीर तो अधूरी है !!

चिन्तन

आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नही मिला
जो अपने निजी स्वार्थ से दूर हटकर
कुछ और चर्चा करता ?
मेरा मौन हरता
और स्नेह भरा दिल मेरा अपना कर लेता !!

मेरी पाशविकता को दूर कर
मानवीयता भरता
अंधियारी समेट कर
जीवन की राह पर
ज्ञान-ज्योति बिखेरता
और बल देता
आदमी आदमी-सी जीने की कला में ?
मेरी उदारता, भावुकता और
सलीकेपन को तराशता.....यानी
मुझे सन्मार्ग पर चलने का इशारा
भर कर देना ?
काश, मेरी आत्मा भी ऐसा ही करती,
तो आज तक मर जाता
और ऐसे नही जीं पाता !

उसी कि प्रेरणा, उसी का बल
उसी की कृपा दृष्टि मेरा बल है
जीवन-सम्बल है !!
जितने भी मिले, स्वार्थी-घिनौने,

कुत्सित विचार वाले.....
हे ईश्वर ! वे भी मेरे प्रेरक हैं
उन्हें सदबुद्धि दो
मुझे वे ठगे नहीं .....!!

युग-आह्वान

उभरो, युग-चिन्तन के छन्द मन-निखारो,
जन-गण-मन
विस्मित-तन
ज्योति पुंज
आकुल लय,
शब्द, भाव-भाषा अवतारो !
उभरो, युग-चिन्तन के छन्द मन निखारो !!
भारती निहारती
सजी हुई आरती
अध्येता मनन मौन
चिन्तन रत, प्रगति यौन
तीव्र वेग, भौतिकता छायी युग-मूल्यों पर
ज्ञान-बिन्दु संचित कर
कोई चुपचाप सिसक जीती अभिव्यक्ति नव्यश्रव्य शोर
द्रश्य भोर
अतिशय गम्भीर प्रश्न ? हल करो उजारो !
उभरो, युग-चिन्तन के छन्द मन निखारो .....
तिल-तिल जल
युग का इतिहास अभी लिखना है
अविरल चल
पग-पग पर पल-पल में सीखना है
देश को विकास-हास-आस नयी देना है
चेतना-प्रदीपो !
जागरण-उजारो !
उभरो, युग-चिन्तन के छन्द मन निखारो !!
रोशनी हमारी है, दीप भी हमारा
सत्य के प्रयोगों का नीति-धर्म सारा

साहस से बढ़ो
और अकुलाया मौन हरो
त्याग, दया, प्रेम-मन्त्र साधना-विचारो !
रुको नही, आगे की और बढ़ो, देखो
चलना ही जीवन है, जीवन भर चलना
संदेसा सूरज का, युग का आह्वान
रोशनी भरो, और रोशनी भरो
निर्भय जन-देवता की आरती उतारो !
उभरो, युग-चिन्तन के छन्द मन निखारो !!

चोटी पर चढ़ना है

अच्छा है बेहूदे परिचय के घेरे से
अकेले चुपचाप घिरा कुंठा निराशा से
अपनी ही सकल
और अपना ही आइना
तप रही दुपहरी में
उमस भरी कोठरी में
मुझे मत छेड़ो,
मुझे यूं ही अब रहने दो !
देखूंगा कब तक आवारा ये बदतमीज़
भीड़ मेरे दरवाज़े खटखटायेगी,
खोखला दम्भ भ्रष्ट इरादों की छायाएँ
बकवादी दिखावटी मुखौटा लगाए
कब तक ये आग बरसायेगी ?
छत पर, मुंडेर पर, सड़कों पर .....
हाँ, मेरे सिर से पैर तक
और कब तक
मेरा तन बदन जलायेगी ?
आख़िर कब तक ?
सहने दो, मुझे यूं ही सब सहने दो !
घुटन घुटन है
प्राण नही हरेगी
सूरज घुट रहा है, जल रहा है

चांद लुट रहा है, गल रहा है
रौशनी भर रहा है
जो युग-युग का सशक्त इतिहास है

मुझे अभी बेरहम हवाओं के झोंकों में
आगे को बढ़ना है
तलवे जले भले ही,
चोटी पर चढ़ना है !!

यथा स्थिती

एक पुरानी कहावत है
खरबूजा खरबूजा को देख रंग बदलता है

यही हाल है हमारे देश के
रहनुमाओं का
जन-गण-मन के भाग्य-विधायकों का
अपने लायक नालायकों का ?
देश आंसुओं के घूंट पी रहा है
आज़ादी रांड-सी बिलख-बिलख रोती है
उसका सुहाग, सुख सुविधा
सबके सब जानबूझकर
लुटे हुए बैठे हैं !
आज़ादी कहां जाये ?
डूबने को चुल्लू भर पानी तक नही है !
आदमी आदमी को ठग रहा है !
उजियारा अंधियारी के आगे भग रहा है ?
प्रगति, प्रतिभा, ज्ञान-विज्ञानं
सभी कुछ निजी हित के लिए रह गए है !!
देश टकटकी लगाए .....
करुण चीत्कार
घोर हाहाकार
आदमी स्वयं के लिए भी
ईमानदार नही रह गया है !
आशंकाएं, विद्रोह, विघटन और
स्वर्थान्धवादी दृष्टिकोण हर तरफ .....
हाय रे, बेईमानों को देख
बेईमान बढ रहे हैं
ईमानदार को देख .....
सबके सब हंस रहे हैं !!

सह रहे हैं

साले हराम की पी रहे हैं
जिन्दगी आराम की जीं रहे हैं
काम कहाँ ?
नाम लिख रहे हैं
देश नीलाम कर रहे हैं
जी हाँ, जी, खूब छप रहे हैं
बाजारों में खूब बिक रहे हैं
देश का दुर्भाग्य कहकर
नेता, कवि, कलाकार, सर्जक
सरे-आम

लडकियां-रिझाऊं
तड़क-भड़क

लचक-ठसक
चाल चल रहे हैं
चिडियाँ फंसी नहीं
हाथ मल रहे हैं-
जी, हाँ, जी नाम रख रहे हैं
राम-नाम
बिल्कुल बदनाम कर रहे हैं
देश का उजारा
गुम-नाम कर रहे हैं
पी रहा विद्रोह
मौन सारा
सुबह को शाम कह रहे हैं
हम भी
चुपचाप, सह रहे हैं ॥

परामर्श

मिले सुमन जी,
बोले-
काका हाथरसी लिखते हैं अच्छी कविता
हास्य व्यंग्य में
और बहुत जो सारे कवि हैं नए नए ये
लिखते हैं क्या ? बकवादें
बुद्धू बसन्त है
बी०ए०, एम०ए० बस पास
अक्ल धेला भर भी तो नही
कलम ले कुछ कुछ रंग बैठे
कोरे कागज़, और छपा बैठे फिर कविता
मुझको देखो-
पास विशारद
लिखता दोहा, छन्द मात्राओं को गिनगिन
पिंगल पूरा रटा पड़ा है
राजनीति का एक खिलाड़ी
पक्का बनिया
बूढ़े से बूढा आदमी मुझे पहचाने
जाने-माने, कवि, नेता, दूकानदार .....
सबमे धाक जमी है प्यारे

भला चाहते हो कुछ लिखना
पिंगल शास्त्र पढो, तुम पहले
तुक से तुक भेडो बस रसमय वाक्य बनेगा
मुझे आ गयी हंसी
कहा फिर-
अरे; सुमन जी
किस युग की अब बात कर रहे ?
पढ़ते भी हो नया कभी कुछ.....
नए बहुत आगे हैं उनसे
जो तुक्कडाचार्य होते थे
कुछ अब भी
उनकी सन्ताने जिन्दा हैं
जो रे-रे करते

छन्दों की मात्राएँ गिनते
मौका मिला चुराकर लिखते
पढने से उनको क्या मतलब ?
युग-मूल्यों का उन्हें क्या पता ?
बस, तुम अपना उम्र-बोझ
मुझ पर रख देते .....
जियो हमारी तरह
और फिर सोचो, बोलो, लिखो ..... ।
रीतिकालीन वसीयत जला-भुना दो
और तराजू-बाँट सम्हालो
साबुन, कंघा, तेल, किताबें बैठे बेचों
व्यर्थ ढोंग से भरा हुआ ये
साहित्यिक आवरण उतारो !
मेरी मानो बात
आम के आम
दाम गुठली के मारो ?

Thursday, April 26, 2007

अगर हमने आपको अपने गम दे दिए होते,
तो आप अपने होश खो दिए होते,
हम तो फिर भी मुस्कुरा रहे हैं,
आप तो खुदा क़सम रो दिए होते।
Friendship means ... a lovely heart that never hates,
A cutesmile that never fades,
smooth touch that never hurts and
strong relationship that never ends.
When you are alone,
When you are crying,
When you are upset,
When you are sad,
Just make a call to me.....


my incoming is free.....
Marriage is a graduation ceremony where one loses a bachelor's degree without acquiring a master's degree.
सोचती हूँ की
ये दौलत
ये शोहरत
ये बंगले
ये गाड़ियाँ

ये दुनिया भर का एशो आराम
सब त्याग कर सन्यासी बन जून
पर फिर ये सोचता हूँ - पहले ये सब मिले तो सही ।
Alone I can only say but together we can shout,
Alone I can only smile but together we can laugh,
Alone I can only live but together we can celebrate,
Thats being friend!
इन्तजार का अच्छा सिला दिया आपने,
हमे भुला के अच्छा अहसास किया आपने,
आज कल हिचकियां भी नही आती,
की हम सोचे की याद किया आपने।
Shakespeare once said, 'One beautiful heart is better than thousand beautiful faces. So better choose people having beautiful heart rather than beautiful faces.'
Today I didn't sent SMS to anybody except you...


Today I didn't think about anybody except you...


Because...


my policy is...


one day...


one fool.
वादा तो नही करते दोस्ती निभाएंगे,
कोशिश यही रहेगी की आपको नही सतायेंगे,
जरुरत पडे तो दिल से पुकारना,
मरते भी होंगे तो मोहलत लेकर आएंगे ।
आप जब पैदा हुए तो वो कौन सी घड़ी थी ?
Titan
Sonata
Classic
Rado
Timex
Maxima
जवाब जल्दी भेजो उसकी फैक्ट्री बन्द करानी है, ताकि ऐसा हादसा दुबारा ना हो ।
मैसेज ना करके क्या जताओगे,
चिल्लर बचा के क्या ताज महल बनाओगे ?
और ताज महल बना भी लिया तो मुझे पता है
उसे भी आप किराये पर ही चलाओगे .
फ़िज़ाओं में तुम हो,
हवाओं में तुम हो,
बहारों में तुम हो,
घटाओं में तुम हो,
धूप में तुम हो,
शामों में तुम हो,
सच ही सुना था बुरी आत्मा का कोई ठिकाना नही होता ।
दोस्त हो तो आंसूओं की भी शान होती है,
दोस्त ना हो महफ़िल भी शमशान होती है,
सारा खेल तो दोस्ती का ही है,
वरना जनाज़ा अर बारात एक समान होती है।
रह ना पाओगे कभी भुलाकर देखो,
यकीन ना आता हो तो आजमाकर देखो,
हर जगह महसूस होगी हमानरी कमी,
अपनी महफ़िलों को कितना भी सजाकर देखो ।
सुना है वो हमे भुलाने लगे हैं,
शायद उन्हें हम और याद आने लगे हैं ।
What is the difference between Problem and Talent?


Two Boys Love One Girl = Problem !


One Boy loves Two Girls = Talent !!
अर्ज़ किया है- हर दिल का एक राज़ होता है,
हर बात का एक अंदाज़ होता है,
जब तक ना लगे बेवफाई की ठोकर,
हर किसी को अपनी पसंद पर नाज़ होता है ।
प्यार और दोस्ती में इतना फर्क पाया है,
प्यार ने सहारा दिया और दोस्त ने साथ निभाया है,
किस रिश्ते को गहरा कहूँ,
एक है जिन्दगी तो दूसरे ने जीना सिखाया है ।

Wednesday, April 25, 2007

स्वामी विवेकानन्द-स्मृति

पुण्य प्रकाश-पुंज श्रद्धा
नव भोर आश में

सुखद शान्ति शुचि-सरल
प्रकृति की आकांक्षाएं .....
और ज्ञान नव ज्योति प्रस्फुटित
हर्षित अभिनव आस भविष्तत के सपनों में
पुरुष स्तब्ध है
क्षुब्ध-क्लान्त तन-मन उद्वेलित
किन्तु सिमटती वृत्ति
महत्वाकांक्षाएं फिसलीं .....
आगंतव्य पथ, लक्ष्यहीन गति
मति छला-बल-दुराव-सी सकुची
दिखें घिरोंदों की हरियाली .....
मानस-भवन दुखों से घिरता चला जा रहा
और संस्कृति एक किताबी पन्ना सिकुडा
कोई-कोई जिसे कभी दुहरा लेता है

मानो पुण्य कमा लेता है
किन्तु इस तरह और कब तलक
यह धरती कब तक पीती जायेगी घूंट जहर के
कुछ तो आख़िर समय-सारथी की भी सुन लो
भारतीय संस्कृति के उदगाता
अब प्रकटो !

आज तिम्हारे दरस-परस को
यह स्वदेश की धरती कितनी विवश विकल है
सौम्य विवेकानन्द अवतरो
अपनी वाणी के निर्भय स्वर

फिर गुन्जारो !!

ध्यातव्य

अस्पृश्यता.....
सही में हिन्दुस्तान का दुर्भाग्य कह
या अशोभन व्यवहार ?
आदमी आदमी से प्यार करने को बना है
सभी कहते हैं, सुनते हैं
लिखा, पढ और सुना सब कहीं
किन्तु व्यवहार में कहीं-कहीं दिखता हैं
मुझे तो लगता है
यह घरेलू सामजिक बीमारी है
जो हमारे घर-परिवारों को नष्ट करने में लगी है
इसका उपचार .... ?
आपसी भाईचारे की भावना से करना है
जियो और जीने दो की डगर पर चलना है
घृणा को प्यार में बदलना है
आदमी को आदमी से जुड़ना है
कहीं नही मुड़ना है, सीधे ही चलना है
सत्य-प्रेम-करुणा का मूल मंत्र पढना है
देश की खुशहाली
श्रम-साहस-उत्पादन
संक्रामक रोग अस्पृश्यता को दूर कर
मानव के झूठे अहम को चूर कर
सांप्रदायिक सदभावना से
सृजन-शान्ति-सुख की ओर
दृढ संकल्प से श्रद्धा-स्नेह-भाव से

मानवता का मंगल कलश स्थापित करना है
तनिक नही डरना है !

आगे को बढ़ना है !!

आत्मा की आवाज

मुझे नही चाहिऐ
भ्रष्ट आदर्श खोखलापन आकर्षण
और विकर्षण
यह अपनापन .....
छल-दुराव-अभ्यास
दम्भ, ईर्ष्या-प्रमाद
का अनौचित्य क्षण
नैतिकता-संकल्प
क्षणिक आवेश
निराशा, कुंठा और जुगुप्सा का मन
कलुषित काया
विकलित छाया
कोई आया जो पाले मुद्राओं के बल
झूठा-प्यार
बहकती ममता
चांदी की चमचम में चमके
चमकुल समता ?
मेरा मानस दया, प्रेम, शाश्वत अभिलाषी
प्यार लुटाये
और आदमी को ही प्रिय भगवान् बताये
आत्मा की आवाज
जिन्दगी का संघर्षण
सत्य-नेक-अभिव्यक्ति

नव्यतम
यह कविता है

जिसे ह्रदय के स्वर गाते हैं
मनभाते हैं !!

युग-परिताप

दोस्त, तुम सही कहते हो
करो आत्मालोचना
यही मानव-सुख-सहयोग की परम्परा है
ठीक, बिल्कुल ठीक
किन्तु पहले ये बताओ
तुमने कितनी की है आत्मालोचना .....
तुम तो सदैव स्वार्थान्ध-ज्ञान के परिवेश में
आत्म-रत रहे और सदैव करते रहे
कहते रहे

दूसरो की, मेरी, इनकी, उनकी और
सरकार की निन्दा
बस मौका मिलते ही दे डाला

किसी कबाड़ख़ाने में एक भाषण
छप गया और तुम प्रभुता के झूठे
मद में चूर हो गए
मनो तृतीय महायुद्ध के एक
सम्भावित शूर हो गए !
नैतिकता के नाम पर औढा तुमने
रामनामी दुपट्टा और गले में लटकायी
कंठी, हाथ में लिया माला और
जप-तप करने लगे सुबह-शाम .....
तुम्हारे लिए महाभोग आया
आरती हुई
सभी कुछ पुजारी ने दिया ।
दर्शकों ने चरणामृत लिया
और तुम मोटे गोल गप्प 'प्रसन्न वदनं ध्यायेत'
का छन्द बन गए
और
मैं तिल-तिल जला
रौशनी बिखेरी
अंधेरे से लड़ा
रुढियों से भिड़ा
युग-युग से रहा खड़ा
सिर्फ राख बन गया ?
मौन सब सह गया
और फिर भी मेरे दोस्त !
तुम कहते हो आत्मालोचना
कैसी विसंगति ?
सम्बन्धों में दूरी.....कैसी मज़बूरी
बिगड़े.....गुरू और शिष्य
युग का क्या हग ?
विक्षिप्तों का जुलूस
कबन्धों की भीड़

अभावों की आवाज़
कोई नाचीज़ .....
आदमी खूंखार ?
हे भगवान् ! कैसा संघर्ष
विद्रोह ही विद्रोह
युग-परिताप
दे दो अभिशाप.....ये सभी मिट जाये !
आदमी
प्यार बाँटता चले !!

परिवेश

यहाँ
जहाँ तक भी आदमी दिखता है
शोर है, क्लेश है
दुःख-पीड़ा
छल-बल-दंभ-द्वेष के घेरे हैं
स्पर्धा कही नही, ईर्ष्या के फेरे हैं

पूरी सडांध है,
मन रोता है
तन खोता है
तन-मन-वन जलता है धू-धू-धू.....
आत्मा चीखती है
दुष्क्रत्यों का पड़ाव जमा पड़ा है
दुष्ट-आततायिओं ने बुरी तरह
आदमियत को घेर लिया है
आदमी पशु से भी गिरी श्रेणी का जानवर हो गया है ?
यह घास नही चरता
मशाले से भूनकर खाता है
झूठी आत्म-प्रशंसा के पुल पार करता है
कथनी महान
करनी खोखली घुन खाई-सी
हायरी, प्रबंचना .....?
अतिशय महत्वाकांक्षाएं
झूठी मर्यादा
तरसते अरमान
कसकती जवानियाँ
खून के घूंट पिए बैठी है-

होरी की धनिया .....
लगता है कल तक तारे नज़र आएंगे ?
श्रीमन ! कहॉ जायेंगे ?

सुधियाँ

ये ऊंचे ऊंचे पहाड़
घने जंगल
सर्पीली पगडंडियां
घाटियाँ, झरने और तेज गति से

बहने वाली नदियाँ
सोपानी-खेत
हरे-भरे लहलहाते
मदमाते दृश्यों की भीड़

रिमझिम-फुहार
इन्द्र धनुषों के झूले
थिरक रहीं रस बूंदें .....
सावन का प्यार
मनुहारें .....
पनिहारिन पनघट-घट
रीते-अनुरीते
भरे-अधभरे छलकते
प्रणय-सिन्बु-ज्वार उफनता
प्रियतम परदेश
विकल वियोगिनी व्यथाओं से
लबालब भरी .....
हरी मखमली घास
सुकुमार-आस प्यास बन रह गयी
सुधियाँ सब सपनों में एकदम बदल गई
ढ़ेर-सी भावनाओं के ऊंचे ऊंचे
काले पहाड़
हर वियोगिनी-दृष्टि में 'खुदेड़ गीत' बन गए
कुहरे में सबके सब डूब गए
हम तो इस मौसम से ऊब गए

Tuesday, April 24, 2007

पत्र

प्रियवर,
मेरा कोई दोस्त सम्पादक नही है
सच कहता हूँ
बिल्कुल सच
मेरा कोई दोस्त प्रकाशक नही है
यही कारण है
मैं कही छप नही पाता
यश-धन भी लूट नही पता ?

तुम जानते हो -
मुझमे क्या नही है ?
आग है, पानी है, भीषण हाहाकार
और अनहद शांति
जिन्दगी संघर्षमय मानी है
हाँ, एक बात और
मैं किसी के पैर नही छूता
चुपचाप अपने काम में लगा हूँ
तुम्हारी शुभकामनायें .....
पत्र पाकर ख़ुशी हुई
इस बार तुम्हे इतना ही लिख रहा हूँ
भाभी को नमस्ते
बच्चों को प्यार
ढ़ेर सारा दुलार .....
सकुशल हूँ,
पत्रोत्तर देना प्रिय श्री कुमार ।

युग-दर्शन

मेरे एक ज़हर पीने से
यदि तुम सभी पा जाओ अमृत
सुख-समृद्धि शांति और संयम
स्वास्थ्य, सत्य-भाषण-मर्यादा
तो दे दो-
सहर्ष, पी लूँगा सारा जहर
ताकि फिर रहें सभी सुखिया
रह ना जाये बेहरा कहीं कोई दुखिया
रिरियाता
हाथ फैलाता
पेट और पीठ को सटाता
भूखा-प्यासा-नंगा जर्जर अभागा

सड़ रही लाशों के ढ़ेर में
घिघियाता आदमी
पिशाचिन-सी मायाविन राजनीति
आग और पानी सब एक साथ रुपया ?

हे ईश्वर,
कैसा युग-दर्शन
बहुत बड़ी भीड़ और दिशाहीन सर्जन
भूखा बचपन, प्यासा यौवन
विद्रोही भावना
चंचल चितवन
चटक रहा दर्पण
खनक रहा कंगन

दर्द भरे चहरे, मुरझाये सेहरे
युग-प्रति सघर्षण ?
बोला रे-क्या होगा मन.....?

विस्मय

पता नही क्यों ?
लोग मुझे घूरने लगे हैं
और साथ ही विस्मय की दृष्टि से देखने लगे हैं ।
मेरे व्यक्तित्व पर विष उडेलने लगे हैं !!
मेरे ही कुछ साथी
जो पढे-लिखे विद्वान् मनीषी हैं !
पता नही उनके दिमागों का
कौन सा पुर्जा ढीला हो गया है
आख़िर ऐसा क्यों ?
उनके विचारों का दायरा संकुचित हो गया है !
सादे-गले कुत्सित विचारों में घिरे, डरे
आत्महीन भृष्ट आदर्शवादी खोखले .....
ज्ञान की डींग मारने वाले साथी
जानी दुश्मनों से भी खतरनाक हो गए हैं ?
कितना दुःख देती है इनकी मित्रता
लाघवता, कृतघ्नता
और पाप भरी दृष्टियाँ .....
जहर से बुझी बोलियाँ
जिनको मित्र समझों या शत्रु
विस्मित है बोध !
लगता है यह आदमी नही
बिना सींगों वाले जानवर हैं !
केवल जानवर .....
बस जानवर .....?
बिल्कुल जानवर !!

दोस्तो के दृष्टि में

मेरा मौन
दोस्तो की दृष्टि में अपराध है
मेरा आत्मबल, मेरी शक्ति
मैंने आज तक किसी से घृणा नही की
और ना द्वेष .....
हाँ, खुलकर आलोचना की है
उन व्यक्तियों की, जो समाज-सेवा-व्रती तो हैं
पर, स्वार्थी-शोषक अनीति के पोषक
ढुलमुलयकीनी
अस्थिर-प्रज्ञ
पलायनवादी शिखण्डी हैं !!

मुझे इन मित्रों की लाघवता, कटाक्ष
और रूखापन सहन नही हुआ है ।
मेरा कवि;
उनको सुबुद्धि दे
ईश्वर से माँगता रहा ऐसी ही दुआ है ।
मैं कभी दुःख में घबड़ाया नही हूँ
पता नही कितना जंगल पार कर आया हूँ
लिबलिबी बात और कहीं घात
का कायल नही हूँ
ईश्वर के यहाँ सभी कुछ मंगलमय होता है

ऐसा विश्वास, दृढ साहस भर लाया हूँ
बस चाहता हूँ बनी रहे मन के किसी कोने में
प्रेम-भक्ती .....
मेरी मुस्कान दोस्तो की दृष्टि में खटकती है
और मेरा आदर्श
उनके खाली समय काटने की कहानी बन गया हैं !!

कामना

मेरे प्रभु,
मेरी विनम्रता मेरे दोस्त हंसी-मज़ाक की
बात मानते हैं ।
उन्हें अभिवादन करता हूँ
तो वे अपनी प्रभुता का भार मुझ पर डालते हैं
और मेरी सिधाई एवं शालीनता
इनकी दृष्टि में सिर्फ टाल देने की बात रह गयी है
मेरी भावुकता महज़ पागलपन

और कविता बेकार की गप्प
ईमानदारी, सत्यनिष्ठा सब का सब
पापी निगाहों में डूब गया हैं !
सच कहता हूँ इस दिशाहीन
आवारा दम्भ के घेरे में
मेरा मन ऊब गया है !!
खाली बोतलों से मन
रूखे-सूखे अव्यवहारिक क्षण
मदमाते चेहरों की भीड़
मनमानी करते भगवन !!
मेरी साधुता पर कीचड उछालते बेशर्म !
लगता है कबन्धों के गाँव में आ गया हूँ
कहा हैं आदर्श ?
कहॉ उनकी गरिमा ?
यहाँ तो पैमानों ने सब पर नकाब डाल रखा है
और सूरज को भी चाहते हैं
काला जामा पहनाना
ताकि इन्हें और इनकी करतूतों को
कोई देख ना सके ।

समय

मुझे जितना चाहो
उपेक्षित करो मेरे दोस्तो !
मैं तुम्हारा यह उपकार कभी भुला नही पाऊँगा
जब कभी मेरे दरवाज़े पर भीड़ लगी होगी
मुझे तुम्हारी याद आएगी
और मेरी आँखें
उस भीड़ में सिर्फ तुम्हे हेरेंगी
बहले ही तुम्हारा चेहरा कहीं प्रायश्चित
की आग में झुलस ही रहा हो ?
किन्तु उस भरी भीड़ में, मेरी आँखें
तुम्हें देख ही लेंगी ।
और नमन कर लेंगी !!
आज तुम्हारे साथ हूँ
कल कौन जाने कहॉ हूँगा मैं, तुम
यह, वह और सभी .....
किन्तु रहेगी सभी के साथ एक स्मृति-अवशेष
इन चेहरों के माथों की लकीरें
आपस की बातें, और यह समय.....
मेरी भावुकता को पागलपन ही कह लो
और मेरे निश्छल साधुवेश को गालियाँ ही दे लो
लान्छनो की गठरी बांधकर
मेरे होलडाल में डाल दो !
और मेरी कमीज़ के कॉलर को काला कर दो !
किन्तु पूंछता हूँ - एक बात दोस्तो !
जब कभी फिर मिलेंगे, तब तुम क्या करोगे ?
मुझे देख मुँह मोड़ लोगे और चुपचाप खिसक लोगे ?
किन्तु आत्मा का सम्बन्ध आत्मा से होता है
ऐसा नही होगा, मेरा दोस्तो !
ऐसा नही होगा !!

पीड़ा

जब आत्मा अजर-अमर है
तो फिर यह भय, निराशा, शोक
मोह, द्रोह क्यों ?
मैं पूंछता हूँ
आज उन सभी से
जो मेरे सामने हैं !
उत्तर दो .....
सबके सब मौन ?
वह, यही बस यही इसका एक उत्तर है
यानी मौन
बस मौन
मौन में सुख, शान्ति, स्नेह और श्रद्धा-भक्ती हैं ।
दुनिया के झगड़े
रोटी, कपड़ा, मकान के रगडे
सत्य सिद्ध, कल्पना में दुःख है !

प्यार सभी को होता है
दर्द सभी को होता है
दर्द दर्द का साथ देता है
और प्यार प्यार का
यही तो है हमारा सनातन धर्म
फिर क्या हो गया है आज ?
इन्सान इन्सान को ठगता है
सत्य से दूर भगता है

कहॉ हैं कर्मों के छन्द ?
लगता है बिना पढी पोथी में
सबके सब बन्द !
बम भोले कहकर
सब भांग खा सोये हैं ?

कहने दो

तुम आये हो
मुझे ख़ुशी है
सुखी रहो, प्रसन्न रहो !
सदी-गली परम्पराओं को तोडना
बंधकर विवश मत रहना
स्वच्छन्दता गति है
गति जीवन है
संघर्षों की क्या ?
आएंगे, आने दो !
निर्भय सीना ताने तुम आगे बढ़ो !!
जीवन कलबल कल बहने दो
सुख-दुःख सब सहने हैं, सहने दो !
सहने दो !!
कुंठा, निराशा, जुगुप्सा को मत पीना
जो भी मन कहता है, कहने दो !
कहने दो !!
कटु आलोचकों को अपने पास रहने दो !!
सादे-गले लोगों की चालों को
चलने दो !
चलने दो !!
तुम्हे क्या ?
सूरज के साथ जागो

चन्दा के साथ सोओं
कोई कुछ कहता है,

कहने दो !
कहने दो !!

Monday, April 23, 2007

उपदेश

प्रसन्न रहना भी एक कला है
बिल्कुल ठीक है
किसी बढ़े हुए तोंद वाले व्यक्ति की
कहावत है
मेरी निगाह में
यही सबसे बड़ी बगावत है !
जब आदमी भूख, महंगाई
और अव्यवस्था के बोझ पर बोझ से

लदा रहेगा
तो कैसे रह सकता है
प्रसन्न !
यही शोषण का बड़ा मन्त्र है
आदमियों को ठगने का
बेहतरीन तरीका है
प्रसन्न रहना एक कला है
पुराने ज़माने में
आदर्श प्रस्तुत किये जाते थे
किन्तु आज हमे पढाये जाते हैं
लिखाये जाते हैं
और रटाये जाते हैं
किससे क्या कहें ?
सच में
हम सताए जाते हैं !
मुँह बाए चले आते हैं !!
जीवन भर छले जाते हैं,
सिर्फ, छले जाते हैं ?

चलते रहो

रोओं मत
दुर्भाग्य बताकर
यह मानव-मन की कमजोरी
जो सुख पाकर हंस देता है
दुःख पाकर जो रो देता है
हंस-हंस
रो-रो
किसी तरह ये पूरा जीवन जीं लेता है !
अकुलाओ मत
क्षण थोड़े हैं
ज्ञान-विवेक-चक्षु खुलने हैं

संयम-घट पूरे भरने हैं
संचित पुण्य खर्च करने हैं
गाकर गीत, दुःख हरने हैं

भ्रष्ट साथ से क्या मतलब है ?
स्वयं भ्रष्ट मत बनो बहादुर
निर्भय सीना ताने चलकर
बोलो बस दो टूक बात कर
नहीं किसी से कहीं घात कर
पैदल फर्जी आज मत कर
चलो, तुम्हे चलना बाक़ी है
रोने से, घबराने से
चिल्लाने से कुछ नही बनेगा
साहस सत्य साथ ले करके
धीरे-धीरे काम बनेगा
अभी नए नन्हे नाज़ुक हो
चलते रहो-
लक्ष्य पाओगे !!

बच्चों से

बच्चों, अपने-अपने पिता से कह दो
माँ को समझा दो
परिवार-नियोजन !
यानी दो या तीन, बस
यही डाक्टर की सलाह ?
अगर वे ना मानें
तो मत मनाओ अपनी साल-गिरह
मत मचलो खिलोनों के लिए
और उन्हें कर लेने दो इकट्ठी
मनमानी फौज
तुम करते रहो अपनी पढ़ाई
नंगे-भूखे, सिसकते-तरसते
और विष-बोझ ढोते?
तुम्हीं तो हो हमारे देश के भविष्य .....?
ये बूढ़े चिकनी चांद वाले
चन्द दिन के मेहमान हैं
किसी तरह बच-खुच कर करना है
तुम्ही को देश-कल्याण !
बदलना है
शासन-व्यवस्था-परिधान
बच्चों
तुम चिरन्जीवी हो
यह है मेरा वरदान
तुम बनोगे महान ।

तीन कवितायें

दोस्त, अपने अहसानों का भारी बोझ
मेरे सिर पर मत डालो
अपनी सहानुभूति
अपने पास रखो
कौन हो तुम ?
जो मेरी हमदर्दी दुलारो
वक़्त-बेवक्त तानें कसो
रहने दो करने को दया
मुझ पर, मेरे इमान-सम्मान पर
मैं रह लूँगा अकेला !!

(2)
कितनों की छाती पर रखें पहाड़
उन पर बादलों-सा लुढ़कता
रंगीला-मन ?
मैं खामोश ..... बिल्कुल खामोश
कुहरे से भरी हुई घाटी के पार देखना चाहता हूँ
कौन किस झाडी में छुपा है
भालू, चीता या सियार ?
में उसकी पहचान करना चाहता हूँ !!

(३)
हिन्दी कि नयी कविता
और अखरोट में
मुझे कोई फर्क नही जान पड़ता
दोनो को ढूंढ़-ढूंढ़ लाता हूँ चाव से
पढता हूँ
खाता हूँ
बडे हाव-भाव से !!

जीवन

राह बनाकर
जो चलता है
वह जीवन है
चट्टानों से जूझ-जूझकर
जो बढ़ता है-

वह जीवन है
जो,
ऊंचे पहाड़ से गल-गल
कल-कल करता
छल-छल बहता

मुक्त वेग से,
मुक्त बढ रहा -
निर्भय-निर्जन
वह जीवन हैं !!
राह बनाकर जो चलता है
वह जीवन है
बन्धन !
बन्धन, यानी मृत्यु
मृत्युमय भय कम्पन है
कैसी भी हो प्रकृति
यही उसका दर्शन है।
राह बनाकर जो चलता है
वह जीवन है !!

आत्माभिव्यक्ति

मेरे लिए तुम्हारे क्लब कोई
विशेष महत्व की चीज नही हैं
लालटेन, कलम, कागज़ और कुछ किताबें
मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं
भावना मेरे लिए सर्वोपरि है
कल्पना-सत्य-कर्मों के छन्द
गुनगुनाना जरूरी है,
गन्दे गाँवों की अपेक्षा
दूर घने जंगल में चुप रहना
मैं बेहतर समझता हूँ
नगर का कोलाहल
गाँव की गन्दगी
लिज़लिज़ापन .....

दो टांगों के बीच की दूरी ही तय करते रहना
मेरी प्रकृति के विरुद्ध है
मैं चाहता हूँ-दहकना
महकना और लहकाना
न कि कराह से कुंठा पीकर

सीलन भरी कोठरी में जुगुप्सा पी जीना
अन्तर्ज्वाला में जल-भुन कर
स्वयं राख हो जाना
मैं चाहता हूँ
आज की व्यवस्था का भार
सिर से उतार फेंकना
पोगा-पंथी में पलते ना रहना
कल को फिर सलीके से जीना

अनुभूति

कितना फर्क होता है
एक कुंवारे और बियाहे व्यक्ति में?
जितना विश्वास और अविश्वास में
ऐसा कुछ लोगों ने कहा .....
मैंने कहा - ठीक है
हर विश्वास, अविश्वास हजम कर लेता है
अविश्वास, विश्वास नही .....
हर कुंवारा आदमी 'भीष्म' नही होता है
और ना 'हनूमान'
और यह भी सत्य है
कि हर बियाहा व्यक्ति 'राम' नही होता
और ना 'रावण' ..... फिर
समाज अपना निर्णय एकतरफा क्यों दे देता है ?

क्यों, एक कुंआरा आदमी
संदेह के भार से दबाया जाता है ?
और इसे इतना क्यों जलाया जाता है ?
कि वह घुट जाय, मिट जाय
आख़िर क्यों ? वह भी इन्सान है
क्या, वह सामाजिक प्राणी नही ?
उसके लिए क्यों नही है प्यार
और है,
तो क्यों मिलती हार ?
इसके विपरीत हैं बियाहे .....
क्या उनके माथे पर लिखा है
सत्यावतार.....?
पूंछता हूँ, कोई भी बतावे .....!!
कलयुगी अवतार ?

ऊहापोह में

आज और हस्ताक्षर कर दूँ
काली छाती पर
उजाले के

क्या पता?
कल सूरज निकले न निकले
दुनियां अंधेरे में

और अंधेरे में
दिन को रात समझ कर सो जाये
क्योंकि वह अंधी और बहरी है
मेरी हस्ती मामूली
उसकी निगाह में शहरी है
बात हलकी नही गहरी है
मुझे प्यार अन्तरात्मा के 'शोकेस' में रखने वाली
चीज़ लग रही है
और औरत
ज्ञान-विज्ञानं कि धरोहर
खजुराहो के मंदिरों की कला-कृति .....
मेरा एकान्त
शान्त, बिल्कुल शान्त
रात भर छछूंदर कमरे में दौड़कर

भंग कर देती है शान्ति.....
आज और सो लूँ
इस छत के नीचे
क्या पता ?
कल खुला आकाश
मेरी छत हो
और, यह रेतीली जमीन मेरा बिछौना .....?



मेरी कवितायें

मेरी कवितायें सभी अच्छी हैं
जीवन जो सही है
व्यथा कथा कही है
हर भटका मन
मेरी कवितायें पढ़कर सुख पा सकता है
प्रेरणा
और बढ सकता है आगे !!
जीवन के हर क्षेत्र में,
मैंने ललकारा है दुःख
और फटकारा है सुख
सुख-दुःख में है मेल
यही सब लिखा है -
मेरी कवितायें सभी अच्छी है!!
इनमे कोई भी नही है बेकार
सभी मृदु भावभारी सच्ची प्रेरक

सौम्य-सुमधुर हैं
आओ, पढो मेरी कवितायें
और जियो स्वाभिमान
शान-सम्मान से
सत्य और साहस भरो !
जीवन जीने की तैयारी में सभी कुछ लिखा है
पढा है-
भाग्य को गढा है
क्योंकि,
ये सभी सच्ची हैं
मेरी कवितायें सभी अच्छी हैं !!

दुविधा

मेरे चारो और अंधेरा
घोर अंधेरा
राह कठिन, अनजान बसेरा

तन का दीपक जला झिलमिला
मन को राहत नही मिली पर
चलता रहा साहसी कवि यह
कभी बहुत अकुलाया, गाया
अश्रु पिए, कोलाहल पाया
कभी विजन एकान्त
चीड़-तरु-छाया-माया

धूप सुनहरी
पके धान के खेत रुपहले
संध्या रानी !
भोर लपककर मधुरिम-सी मुस्कान भर गया
सूरज संग में हंसा, चला कुछ दूर
चांद का रथ फिर पाया
और निशा कि गोद
उड्गनो की चुलबुल में मन भरमाया ।
किन्तु बीहड़ों
दुष्ट राक्षसों-सी करतूतों ने
मुझ पर आक्रमण कर दिया
छाती पर साहस से बैठा
बिना सलीका, हाय, घिनौना
यह कुरूप काटता अंधेरा !
उस पर अंधड
ज्योति झिलमिली
रह-रह लगता बुझ जायेगी
किन्तु नेह कुछ शेष
वर्तिका को केवल जलने देता है
चारों और पहाड़, घने जंगल
सबके सब, एकाकी सदभाव डूब जाता है
खाहीं चारों और
अंधेरा घोर
विवशता खींच रही है।
सच कहता हूँ -
मेरा मन तो ऊब रहा है
यहाँ किधर आधार ?
प्रश्न का चिह्न टंगा है !
फिसलन अंधियारी का कसकर रंग जमा है
भावुकता का बाप तोड़ दम घुटा
मर गया
माँ, रोती है
अन्धकार का क़ब्जा चारों ओर
कर रहा अट्टाहस मनमानी

ये जंगली जानवर, सबके सब खूंखार
कहॉ बचूं ? भगवान् !
ऊँची चोटी
गहरी घाटी
बीहड़ जंगल
पिसती माती ?
दिया जले, जग-मग संझवाती !!

Saturday, April 21, 2007

जिसको समझा था कोयल वो कौव्वा निकला,
दोस्ती के नाम पर हव्वा निकला,
रोकते थे हमे दारु पीने से,
आज उसी की जेब से पव्वा निकला।
दोस्ती चीज़ नही जताने की,
हमें आदत नही किसी को भुलाने की,
हम इस लिए मिलते है कम,
क्यूंकि नज़र लग जाती है रिश्तों को ज़माने की ।
जरुरी नही की दोस्तो में बात होती रहे,
जरुरी नही की दोस्तो में मुलाकात होती रहे,
जरुरी है बस दोस्त जहान भी रहे,
उसे हमारी दोस्ती की याद आती रहे ।
ऊपर आसमान में टूटा जो एक तारा,
उसे देख कर मैंने रब को पुकारा,
रखे वो आपको सलामत हमेशा,
टूटे ना कभी ये रिश्ता हमारा।
रावण की बीस आँखें थी मगर नज़र सिर्फ एक लडकी पर,
जब की आपकी सिर्फ दो आँखें और नज़र हर लडकी पर ....
तो ......
असली रावण कौन?
मंज़िल दूर और सफ़र बहुत है,
छोटे से दिल की फिक्र बहुत है,
मार डालती कब की ये दुनिया हमे,
कमबख्त आपकी दुआओं में असर बहुत है ।
ग्राहक - खाना जल्दी लाओ मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं,
वेटर - पहले खाना लाओ या चूहे मारने की दवा ।
अपुन दोनो का दोस्ती एकदम मांगता है झक्कास,
बोले तो ........ अपुन हीरा तू मोती,
अपुन सब्जी तू रोटी,
अपुन पानी तू टंकी,
अपुन मुन्ना तू सर्किट।
की होगी सूरज ने कभी चांद से मोहब्बत तभी तू चांद में दाग है,
हुई होगी कभी चांद से बेवफाई तभी तो सूरज में आग है।
कश्मीर की वादियों में,
बर्फीली हवाओं में,
झील के किनारे बैठे,
रान्झे ने हीर से कहा ........
"ज्यादा हीरोइन ना बन स्वेटर पहन ले"
ख्वाबों में आएंगे SMS की तरह,
दिल में बस जायेंगे - RING TONE की तरह,
प्यार कभी कम ना होगा BALANCE की तरह,
बस तुम बिजी ना रहना NETWORK की तरह।
याद आपकी आती है,
दिल को तड़्पाती है,
दिल चाहे जब आपको फ़ोन करे,
कमबख्त एक लडकी फ़ोन बिजी बताती है।

चिन्तन

ऊब गया हूँ
मोटे-मोटे ढोंगी लोगों की सड़ांध में
व्यर्थ सम्हाले कुर्सी
प्रतिभा मौन विवश है
वर्तमान-गति ऐसी कुछ बेहद निराश है
क्यों ना जवानी-जोश, होश में आ जाता है
कुंठा, घुटन त्याग कर,
आशा द्र्ढ़ विश्वास समा जाता है !
और राष्ट्र के वर्तमान को
नई दिशाएं दे जाता है
सुख-समृद्धि के सपने अपने

नव भविष्य हित बो जाता है।
क्या व्यक्तित्व सभी चूहों के बिल में बैठे ?
या कोरी सत्ता में ऐठे
भूखा हिन्दुस्तान
कर्ज़ से लदा हुआ है

क्या यह नही गुलामी के सुफियाने ढंग हैं ?
पूँछ रह हूँ
उत्तर दो - कुछ
चिकनी - चिकनी चाँदों वाले !
फूले-फूले तोंदों वाले !!
राजा-रानी
अगुआ दानी
कुछ तो राम-राज्य की रख लो नाक ?
हर आंगन में है अभाव का ढ़ेर
ख़ुशी-खिसयानी सी हैं ?


उदबोधन

देश के नौनिहालों !
योगियों,
कवियों,
चिन्तको,
समाज-सुधारकों,
आओ, देखो अपना देश
प्यारा-न्यारा भारत देश
राजा-रानी वाला देश

सजना-सजनी वाला देश
सुधियाँ-सपनों वाला देश
परियों-हूरों वाला देश
चिन्तन-मनन वाला देश
विक्रम वीरों वाला देश
गौरव-महिमा वाला देश
कौरव-पाण्डव वाला देश
यानी सबका सब अतीत

जो सब कुछ गया बीत
उसकी गाथा गाते हम

छूटे वर्तमान की दम !
कैसा अब भविष्य होगा -
इसका क्या होना है गम ?
यदि सचमुच होता गम
पलकें अपनी कर लो नम
हर दरवाजा मुँह बाए है
आये जाये खुलकर यम् ?
बढकर कुछ उपचार करो
आगे बढ उपचार करो
नर नारायण प्यार करो

कहीं उदासी रह ना जाये
जो बन पड़े विचार करो !!

Tuesday, April 17, 2007

गन्दे बच्चो से

बच्चों, तुम पर मुझे तरस है
देख तुम्हारी हीन दशा
यह दीन दशा, उसपर ये बेहूदी बातें
यानी बुरी आदतें ढेरों पास तुम्हारे
जिनसे मेरा मन अकुलाता
विवश अश्रु के घूंट हजम कर चुप रह जाता

रहा ना जाता
कह देता हूँ -
बीडी पीना
सिगरेट पीना, गन्दे रहना ,
पढने-लिखने से कतराना
कभी-कभी मौका लग पाते
घर भग जाना
बना बहाना
हू-हल्ला कर समय काटना
और रुआसों सा चेहरा ले
कभी-कभी विद्यालय आना
काम ना करना
बहुत बड़ी है शर्म !
मुझे रोना आता है
किससे मैं क्या कहूँ ?
तुम्हारे आसपास का सारा वातावरण भ्रष्ट है
प्रतिभा आकुल, मौन नष्ट है
तुम भविष्य हो सही हमारे
क्या उम्मीद करूं मैं
बोलो -
होनहार तुम !
लेकिन अपने पाँव स्वयं ही काट रहे हो
सडी-गली ले परम्पराएँ
आंख मींचकर
मानो कोई मजबूरन ही खाहीं पाट रहे हो !!

सही कह रहा --
भले तुम्हे कड़वा लगता हो?
लेकिन, ये रस-बूंदे, अमृत-शब्द तुम्हें
मैं दिए जा रहा
जब तक हूँ मैं पास तुम्हारे
चाहो तुम या ना चाहो .....
मैं दिए जा रहा !
अगर मुझे क्या ? पूर्ण राष्ट्र को बल देना है
अपना घर सुख-सुविधाओं से भर लेना है
तो आओ विद्यालय प्रतिदिन
करो अध्ययन
पूंछो मन की बात
तुम्हे जो खटक रही है
अटक रही है गले तुम्हारे .....
हम सब है तैयार तुम्हे दुलरा लेने को
और प्यार से ज्ञान अमृत पिला देने को .....
नए जोश का होश
नया निर्माण करो कुछ
आगे आओ, मत घबड़ाओ !
अपने भीतर बैठे साधन - साध्य जगाओ !!
दैन्य-निराशा-आलस-तम को दूर भगाओ !!

मेरा औजी

भूखी-सूखी
रूखी काया
नग्न, अधेड़ उम्र इसमे ही समां गयी है
रोटी-रोजी का सवाल
प्रत्येक सुबह को
दिन भर की चिन्तना
शाम को ढोल बजाकर

कथरी ओढ़े
फटी पुरानी
जिसमे चीलर भरे

बिचारा सिकुड़ गया है मेरा औजी !
इस पहाड़ पर करे बताओ क्या?
उसका पेशा ही ऐसा
ढोल बजाना
सुबह-शाम
नौबत ठाकुर जी के दरवाज़े .....?
पा जाता है भात
इसी में गुज़र कर रहा, मेरा औजी !!
फटे - पुराने वस्त्र,
दया का पात्र
टूटती देह
छान में बैठा केवल चिलम भर रहा
अपने जीवन का इतना दायरा समझकर
जर्जरता यौवन में निश दिन
विवश भर रहा मेरा औजी !
सुखा रहा है देह
प्रिया बोझा ढोती है
माँ बूढी देवता नचाती
झक मारे खूसट बुड्ढा
बेचारा बैठा बाप
सिल रहा ठ्कुरानी का पेटीकोट
मिलेगा आज शाम को दो पाथा अनाज

बुआरी कूटेगी
फिर भोल

पकेगा भात
भूख कुछ कम होगी ही.....
नाती जंगल चला गया है छिलका लेने
आयी है बगवाल
बनाएगा वह भैलू
और ख़ुशी से नाचेगा, गायेगा
सबके बीच
पहन कर सत्तर टुकड़े वाली नयी कमीज़
बनायीं जो कतरन से
उसका बाबा फिर क्या करता ?
बच्चो का त्योहार
नया हो वस्त्र

नही तो वे रोयेंगे
टुकड़े रंग-बिरंगे उसके मन भाते है
मेरे जैसे भावुक सिर्फ तरस खाते है
यह है अपना देश .....
समस्याओं का बोझ जिस पर बड़ा है
यहाँ उम्र काटी जाती है जैसे-तैसे !!




Monday, April 16, 2007

करो प्रायश्चित

बन्द करो बकवाद
शराबी गाँव ?
उत्तराखंड !
शर्म हा, शर्म !
गर्म रहने को पीते
उसने कहा-पहाड़
यहाँ ठण्डक होती है
बिना पिए जीवन-बाती मेरी बुझती है !
मुझको आया ताव
कहा-यह घाव ?
मनुजता जिसमे सड़ती
सारे पापाचार इसी में समा गए हैं
और पवित्रता
सिर्फ वासना-बीज-क्षणिक-आवेग
गरीबी का न्यौता है
साहस-सत्य-लगन खोती है
और कर्म पर, अकर्मण्यता
रॉब जमाकर छा जाती है
अरे नरक का द्वार .....
करो यह बन्द
बन्धु, मेरी विनती है
धरती है यह स्वर्ग
उत्तराखंड पुण्य-व्रत-धाम
यहाँ नर नारायण है
सुर व्यर्थ की चीज़
राक्षसी-वृत्ति
छोडो, मेरे बन्धु, मान लो बात?
तुम्हारी संतति
तुमसे माँग रही है भीख ?
क्या तुम उसके सुख -
समृद्धि के शुभ चिन्तक हो
देख सकोगे ?
अपनी आंखों, उसे शराबी
जीवन खोता !
भारतीय आध्यात्मिक गौरव कम होता है
आत्मा का आनन्द जगाओ
स्व पहचानो
यह तो भौतिक नाश बीज है !
फिर ना मिलेगी ऐसी सुंदर देह
व्यर्थ मत इसे गवाओं !
काम करो कुछ
नाम करो कुछ
जग में आकर, खाकर, पीकर
चुप निराश ही चले गए
तो भट्केगी आत्मा
पीढियां सिर धुन धुनकर
पछ्तायेंगी .....

और विवशता विष पीकर
चुप रह जायेगी ?
मित्र, शराब नष्ट करती है
तन-मन

स्मृति खो देती है
धन हरती है
जीवन नरक बना देती है

असमय मृत्यु बुला देती है
दुःख होता है
करो प्रायश्चित .....?"

भीड़्भाड़ में

परसो गया देखने पाण्डव नृत्य
साथ में छोटा मुन्नू
जिसने दी प्रेरणा
चलो जी, देखें पाण्डव-नृत्य
चला मैं गया साथ में चादर ओढ़े
चप्पल पहने
उसके घर के पास
बडे आंगन में 'पक्का द्वार'
जिसे ही कहते 'पाण्डव द्वार'
यहाँ पाण्डव कि स्मृति शेष
पुण्य लीला होती है
बूढ़े - बच्चे और जवान सभी आते है
हंसी - ख़ुशी से ।
आग जलाकर बैठे चारो और, तापते
गीत गा रहे
पाँव थिरकते
मस्त झूमती ठुमुक - ठुमुक
अंगडाई लेटी हुई जवान युगुल-तन-छवियाँ
बजे ढोल पर ढोल
मधुर से बोल
नृत्य भरपूर
नशा यौवन पर छाये
जो भी आये
नाचे-गाये
बजे सीटियाँ, जोश जगाएं .....
मन को भाये ।
भीड़्भाड़ में चला गया मैं
तब तक एक सुनार
सामने मेरे आया
पीकर ख़ूब शराब
ज़माने रॉब, समझ में आये नेता ....?
बदबू .....!
मुझ पर कर बैठी आक्रमण
और मैं उल्टे पांवों
अपनी स्मृति में आ पहुँचा

पहुंच गया बेचारा मुन्नू .....
मैं बिल्कुल चुपचाप
सोचता रहा .....
पाण्डव नृत्य ..... शराब ..... धर्म की कैसी लीला ?
यह ढकोसला
और व्यर्थ की पोंगा - पंथी
सडी गली सी परम्परा का ढोल बज रहा .....
अर्जुन कब शराब पीते थे?
फिर कैसा अनुकरण .....!
मनोरंजन सस्ता है
समझ गया परिवेश .....
नही कोई रस्ता है !!

मैं गाता हूँ !

मुझे नौकरी मिली
भर गया पेट
मगर मन दुःखी
दोस्त, दुर्भाग्य
धधकता अंतर्मन है
जीर्ण दायरा, भ्रष्ट दायरे
साथ भटकता दंभ
प्रमादी आवारा शैतान शराबी
राह संकुचित
घृणित मगर क्या करूं ?
अकेला चना
भाड़ में भुन जाता है
और चिटक कर किसी आंख को वेध
जलन, बस दे देता है
पिस जाता है विवश मौन, क्या करे ?
बडे बडे चट्टान
आदमी पिस जाता है
धूर्त धूर्त का मेल
सत्य अकुला जाता है
अरे क्या कहूँ ?
कुत्सित भाव-विभाव लगाए लेबिल
शुद्ध भाव संचारी
मन का ताप दिनों-दिन प्यारे बढ़ता जाता
सब पीकर विद्रोह
मौन, बस मौन रहा है
खीसें बाए
कितने ही रौबीले झूठे मन मुरझाये ....
मैं गाता हूँ ।

बढ़ो नव सृजन !

जहाँ कहीं भी मिलें
सीखने को कुछ बातें
फौरन सीखो
कभी किसी की कमी
और अवगुण मत देखो
हमें नही उनसे मतलब है
जो जैसा है, स्वयं भरेगा
हमको तो अपने में भरना

सत-शिव-सुंदर
जहाँ कही भी मिले ढून्ढकर हंसी ख़ुशी से
धीरज-धरकर ।
काले दिन भी काटो
उजली रातें बाटों
संयम भरो, कर्म अवतारो

सही सरल-साहसमय-चिन्तन
दृढ़ता उर से भरो
बढ़ी नव सृजन !

सौम्य सुख-शान्ति दुआरे
हेर रहा है
टेर रहा है नवयुग का निर्माण
सपूतों ! सदगुन जितने भी, अपना सकते, अपनाओ

और सत्य के नव प्रयोग की
सज़ा आरती

मंगल कलश
मनुजता का
स्थापित कर दो !!

Friday, April 13, 2007

हर कदम पर इम्तिहान लेती है जिन्दगी,
हर वक़्त नए सदमे देती है जिन्दगी,
हम जिन्दगी से शिकवा करे भी तो कैसे,
आप सा दोस्त भी तो देती है जिन्दगी।
हर शाम के बाद रात आती है,
हर बात के बाद आपकी याद आती है,
खामोश रहकर भी देख लिया हमने,
क्यूंकि खामोशियों से भी आपकी आवाज़ आती है।

ग़ज़ल

एक ऐसी भी घड़ी आती है
जिस्म से रूह बिछुड़ जाती है
अब यहाँ कैसे रोशनी होती

ना कोई दीया, ना बाती है
हो लिखी जिनके मुकद्दर में खिजां
कोई रितु उन्हें ना भाती है
ना कोई रूत ना भाये है मौसम
चांदनी रात दिल दुखाती है
एक अर्से से खुद में खोए हो
याद किसकी तुम्हें सताती है

न देने वाला मन

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से किसी ने दे रखा है। पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।
अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे, जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया, उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगीं। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उलटे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुन: याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला, मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे कर उसने दो दाने जौ के निकाले और उन्हें राजा की चादर पर डाल दिया। उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली, मगर वे दो दाने देने का मलाल उसे सारे दिन रहा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। उसे समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है। वह पछताया कि काश! उस समय राजा को और अधिक जौ दी होती, लेकिन नहीं दे सका, क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी।