परसो गया देखने पाण्डव नृत्य 
साथ में छोटा मुन्नू 
जिसने दी प्रेरणा 
चलो जी, देखें पाण्डव-नृत्य 
चला मैं गया साथ में चादर ओढ़े 
चप्पल पहने 
उसके घर के पास 
बडे आंगन में 'पक्का द्वार'
जिसे ही कहते 'पाण्डव द्वार'
यहाँ पाण्डव कि स्मृति शेष 
पुण्य लीला होती है
बूढ़े - बच्चे और जवान सभी आते है
हंसी - ख़ुशी से । 
आग जलाकर बैठे चारो और, तापते 
गीत गा रहे
पाँव थिरकते 
मस्त झूमती ठुमुक - ठुमुक 
अंगडाई लेटी हुई जवान युगुल-तन-छवियाँ 
बजे ढोल पर ढोल
मधुर से बोल
नृत्य भरपूर 
नशा यौवन पर छाये
जो भी आये 
नाचे-गाये
बजे सीटियाँ, जोश जगाएं .....
मन को भाये ।
भीड़्भाड़ में चला गया मैं
तब तक एक सुनार
सामने मेरे आया
पीकर ख़ूब शराब
ज़माने रॉब, समझ में आये नेता ....?
बदबू .....!
मुझ पर कर बैठी आक्रमण
और मैं उल्टे पांवों
अपनी स्मृति में आ पहुँचा 
पहुंच गया बेचारा मुन्नू .....
मैं बिल्कुल चुपचाप 
सोचता रहा .....
पाण्डव नृत्य ..... शराब ..... धर्म की कैसी लीला ?
यह ढकोसला 
और व्यर्थ की पोंगा - पंथी
सडी गली सी परम्परा का ढोल बज रहा .....
अर्जुन कब शराब पीते थे?
फिर कैसा अनुकरण .....!
मनोरंजन सस्ता है
समझ गया परिवेश .....
नही कोई रस्ता है !! 
 
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