Monday, April 16, 2007

मैं गाता हूँ !

मुझे नौकरी मिली
भर गया पेट
मगर मन दुःखी
दोस्त, दुर्भाग्य
धधकता अंतर्मन है
जीर्ण दायरा, भ्रष्ट दायरे
साथ भटकता दंभ
प्रमादी आवारा शैतान शराबी
राह संकुचित
घृणित मगर क्या करूं ?
अकेला चना
भाड़ में भुन जाता है
और चिटक कर किसी आंख को वेध
जलन, बस दे देता है
पिस जाता है विवश मौन, क्या करे ?
बडे बडे चट्टान
आदमी पिस जाता है
धूर्त धूर्त का मेल
सत्य अकुला जाता है
अरे क्या कहूँ ?
कुत्सित भाव-विभाव लगाए लेबिल
शुद्ध भाव संचारी
मन का ताप दिनों-दिन प्यारे बढ़ता जाता
सब पीकर विद्रोह
मौन, बस मौन रहा है
खीसें बाए
कितने ही रौबीले झूठे मन मुरझाये ....
मैं गाता हूँ ।

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