Friday, April 13, 2007

ग़ज़ल

एक ऐसी भी घड़ी आती है
जिस्म से रूह बिछुड़ जाती है
अब यहाँ कैसे रोशनी होती

ना कोई दीया, ना बाती है
हो लिखी जिनके मुकद्दर में खिजां
कोई रितु उन्हें ना भाती है
ना कोई रूत ना भाये है मौसम
चांदनी रात दिल दुखाती है
एक अर्से से खुद में खोए हो
याद किसकी तुम्हें सताती है

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