पता नही क्यों ?
लोग मुझे घूरने लगे हैं
और साथ ही विस्मय की दृष्टि से देखने लगे हैं ।
मेरे व्यक्तित्व पर विष उडेलने लगे हैं !!
मेरे ही कुछ साथी 
जो पढे-लिखे विद्वान् मनीषी हैं !
पता नही उनके दिमागों का 
कौन सा पुर्जा ढीला हो गया है
आख़िर ऐसा क्यों ?
उनके विचारों का दायरा संकुचित हो गया है !
सादे-गले कुत्सित विचारों में घिरे, डरे 
आत्महीन भृष्ट आदर्शवादी खोखले .....
ज्ञान की डींग मारने वाले साथी
जानी दुश्मनों से भी खतरनाक हो गए हैं ?
कितना दुःख देती है इनकी मित्रता 
लाघवता, कृतघ्नता 
और पाप भरी दृष्टियाँ .....
जहर से बुझी बोलियाँ 
जिनको मित्र समझों या शत्रु 
विस्मित है बोध !
लगता है यह आदमी नही 
बिना सींगों वाले जानवर हैं !
केवल जानवर .....
बस जानवर .....?
बिल्कुल जानवर !!   
 
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