Wednesday, April 25, 2007

परिवेश

यहाँ
जहाँ तक भी आदमी दिखता है
शोर है, क्लेश है
दुःख-पीड़ा
छल-बल-दंभ-द्वेष के घेरे हैं
स्पर्धा कही नही, ईर्ष्या के फेरे हैं

पूरी सडांध है,
मन रोता है
तन खोता है
तन-मन-वन जलता है धू-धू-धू.....
आत्मा चीखती है
दुष्क्रत्यों का पड़ाव जमा पड़ा है
दुष्ट-आततायिओं ने बुरी तरह
आदमियत को घेर लिया है
आदमी पशु से भी गिरी श्रेणी का जानवर हो गया है ?
यह घास नही चरता
मशाले से भूनकर खाता है
झूठी आत्म-प्रशंसा के पुल पार करता है
कथनी महान
करनी खोखली घुन खाई-सी
हायरी, प्रबंचना .....?
अतिशय महत्वाकांक्षाएं
झूठी मर्यादा
तरसते अरमान
कसकती जवानियाँ
खून के घूंट पिए बैठी है-

होरी की धनिया .....
लगता है कल तक तारे नज़र आएंगे ?
श्रीमन ! कहॉ जायेंगे ?

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