Wednesday, April 25, 2007

युग-परिताप

दोस्त, तुम सही कहते हो
करो आत्मालोचना
यही मानव-सुख-सहयोग की परम्परा है
ठीक, बिल्कुल ठीक
किन्तु पहले ये बताओ
तुमने कितनी की है आत्मालोचना .....
तुम तो सदैव स्वार्थान्ध-ज्ञान के परिवेश में
आत्म-रत रहे और सदैव करते रहे
कहते रहे

दूसरो की, मेरी, इनकी, उनकी और
सरकार की निन्दा
बस मौका मिलते ही दे डाला

किसी कबाड़ख़ाने में एक भाषण
छप गया और तुम प्रभुता के झूठे
मद में चूर हो गए
मनो तृतीय महायुद्ध के एक
सम्भावित शूर हो गए !
नैतिकता के नाम पर औढा तुमने
रामनामी दुपट्टा और गले में लटकायी
कंठी, हाथ में लिया माला और
जप-तप करने लगे सुबह-शाम .....
तुम्हारे लिए महाभोग आया
आरती हुई
सभी कुछ पुजारी ने दिया ।
दर्शकों ने चरणामृत लिया
और तुम मोटे गोल गप्प 'प्रसन्न वदनं ध्यायेत'
का छन्द बन गए
और
मैं तिल-तिल जला
रौशनी बिखेरी
अंधेरे से लड़ा
रुढियों से भिड़ा
युग-युग से रहा खड़ा
सिर्फ राख बन गया ?
मौन सब सह गया
और फिर भी मेरे दोस्त !
तुम कहते हो आत्मालोचना
कैसी विसंगति ?
सम्बन्धों में दूरी.....कैसी मज़बूरी
बिगड़े.....गुरू और शिष्य
युग का क्या हग ?
विक्षिप्तों का जुलूस
कबन्धों की भीड़

अभावों की आवाज़
कोई नाचीज़ .....
आदमी खूंखार ?
हे भगवान् ! कैसा संघर्ष
विद्रोह ही विद्रोह
युग-परिताप
दे दो अभिशाप.....ये सभी मिट जाये !
आदमी
प्यार बाँटता चले !!

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