Saturday, April 28, 2007

परामर्श

मिले सुमन जी,
बोले-
काका हाथरसी लिखते हैं अच्छी कविता
हास्य व्यंग्य में
और बहुत जो सारे कवि हैं नए नए ये
लिखते हैं क्या ? बकवादें
बुद्धू बसन्त है
बी०ए०, एम०ए० बस पास
अक्ल धेला भर भी तो नही
कलम ले कुछ कुछ रंग बैठे
कोरे कागज़, और छपा बैठे फिर कविता
मुझको देखो-
पास विशारद
लिखता दोहा, छन्द मात्राओं को गिनगिन
पिंगल पूरा रटा पड़ा है
राजनीति का एक खिलाड़ी
पक्का बनिया
बूढ़े से बूढा आदमी मुझे पहचाने
जाने-माने, कवि, नेता, दूकानदार .....
सबमे धाक जमी है प्यारे

भला चाहते हो कुछ लिखना
पिंगल शास्त्र पढो, तुम पहले
तुक से तुक भेडो बस रसमय वाक्य बनेगा
मुझे आ गयी हंसी
कहा फिर-
अरे; सुमन जी
किस युग की अब बात कर रहे ?
पढ़ते भी हो नया कभी कुछ.....
नए बहुत आगे हैं उनसे
जो तुक्कडाचार्य होते थे
कुछ अब भी
उनकी सन्ताने जिन्दा हैं
जो रे-रे करते

छन्दों की मात्राएँ गिनते
मौका मिला चुराकर लिखते
पढने से उनको क्या मतलब ?
युग-मूल्यों का उन्हें क्या पता ?
बस, तुम अपना उम्र-बोझ
मुझ पर रख देते .....
जियो हमारी तरह
और फिर सोचो, बोलो, लिखो ..... ।
रीतिकालीन वसीयत जला-भुना दो
और तराजू-बाँट सम्हालो
साबुन, कंघा, तेल, किताबें बैठे बेचों
व्यर्थ ढोंग से भरा हुआ ये
साहित्यिक आवरण उतारो !
मेरी मानो बात
आम के आम
दाम गुठली के मारो ?

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