देख रहा हूँ मैं भविष्य को
वर्तमान में.....
धुंध-कुहासे में छाये उत्पीड़ित मन को
बनी-ठनी सी मनुष्यता
सीमित क्षेत्रों में
किन्तु सुलगती राख कहीं कोई चिनगारी
छिपी हुई है बडे ढ़ेर में ?
आकुल है जो लौ बनने में
शायद समय नघीच आ रहा ?
युग-मूल्यों का मुल्य चुकाने
कोई कहीं सुभाष आ रहा ?
जन-गण-मन में मन मुटाव है
तन-दुराव है
भेद-भाव है
बड़ा घाव है ?
जिसका दर्द सहा ना जाता
सही-सही कुछ कहा ना जाता
मौसम बेमौसम आ जाता
कोई अपना ही छा जाता
स्वार्थ घिनौना व्यक्तिवाद
छल-बल बन जाता !!
और राष्ट्र खोखला दिनोदिन होता जाता ।
बेकारी, भुखमरी, निराशा-उत्पीड़न का
साम्राज्य बढ़ता ही जाता ?
सुख-सुविधा का स्वप्न,
स्वप्न ही है रह जाता !
देश हमारा हाय, दिनोदिन घुटता जाता
लुटता जाता,
और कब तलक हम ऐसे लुटते जायेंगे
कोई भी सीमा तो होती !
जो फिर बढकर विष ना बोती
बाँट अमृत सुख से सो जाती !
निज भाषा की बोल-चाल में
जनभाषा युग-ध्वनि हो जाती !!
ह्रदय से ह्रदय की बातें होती
शंका, भय, अवसाद पिरोये
कोई छाया सिसक-सिसक कर ना मुरझाती
और आर्थिक स्वतन्त्रता सबको मिल जाती
भेद भरी गहरी खाहीं
खुद ही पट जाती ?
बोला कवि, तो फिर जग जाओ
वर्तमान को ओ भविष्य नन्हें उठ जाओ
सोचो, समझो, मनन करो कुछ
तब तुम अपने कदम बढाओ !
जब तक कोई देश ना अपनी भाषा बोले
शक्ति दूसरो की भाषा से अपनी तोले
तब तक है वह देश गुलामी की छाया में
अपनी प्रतिभा अपने आप समर्पित भोले !!
आओ, आगे आओ, तुम सब कुछ कर सकते
खेल खेल में
सारा खेल ख़त्म कर सकते !
माँ, भारती उदास बहुत है
क्योंकि
उसे मम्मी कहलाने में
दुःख
ही
दुःख.....!!
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