मेरे चारो और अंधेरा 
घोर अंधेरा
राह कठिन, अनजान बसेरा 
तन का दीपक जला झिलमिला 
मन को राहत नही मिली पर
चलता रहा साहसी कवि यह
कभी बहुत अकुलाया, गाया 
अश्रु पिए, कोलाहल पाया
कभी विजन एकान्त
चीड़-तरु-छाया-माया 
धूप सुनहरी 
पके धान के खेत रुपहले 
संध्या रानी !
भोर लपककर मधुरिम-सी मुस्कान भर गया 
सूरज संग में हंसा, चला कुछ दूर
चांद का रथ फिर पाया  
और निशा कि गोद 
उड्गनो की चुलबुल में मन भरमाया ।    
किन्तु बीहड़ों 
दुष्ट राक्षसों-सी करतूतों ने 
मुझ पर आक्रमण कर दिया 
छाती पर साहस से बैठा 
बिना सलीका, हाय, घिनौना 
यह कुरूप काटता अंधेरा !
उस पर अंधड 
ज्योति झिलमिली 
रह-रह लगता बुझ जायेगी
किन्तु नेह कुछ शेष 
वर्तिका को केवल जलने देता है
चारों और पहाड़, घने जंगल
सबके सब, एकाकी सदभाव डूब जाता है 
खाहीं चारों और
अंधेरा घोर 
विवशता खींच रही है।   
सच कहता हूँ -
मेरा मन तो ऊब रहा है
यहाँ किधर आधार ?
प्रश्न का चिह्न टंगा है !
फिसलन अंधियारी का कसकर रंग जमा है
भावुकता का बाप तोड़ दम घुटा 
मर गया 
माँ, रोती है
अन्धकार का क़ब्जा चारों ओर
कर रहा अट्टाहस मनमानी 
ये जंगली जानवर, सबके सब खूंखार 
कहॉ बचूं ? भगवान् !
ऊँची चोटी 
गहरी घाटी 
बीहड़ जंगल 
पिसती माती ?
दिया जले, जग-मग संझवाती !!  
 
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