Saturday, April 28, 2007

चोटी पर चढ़ना है

अच्छा है बेहूदे परिचय के घेरे से
अकेले चुपचाप घिरा कुंठा निराशा से
अपनी ही सकल
और अपना ही आइना
तप रही दुपहरी में
उमस भरी कोठरी में
मुझे मत छेड़ो,
मुझे यूं ही अब रहने दो !
देखूंगा कब तक आवारा ये बदतमीज़
भीड़ मेरे दरवाज़े खटखटायेगी,
खोखला दम्भ भ्रष्ट इरादों की छायाएँ
बकवादी दिखावटी मुखौटा लगाए
कब तक ये आग बरसायेगी ?
छत पर, मुंडेर पर, सड़कों पर .....
हाँ, मेरे सिर से पैर तक
और कब तक
मेरा तन बदन जलायेगी ?
आख़िर कब तक ?
सहने दो, मुझे यूं ही सब सहने दो !
घुटन घुटन है
प्राण नही हरेगी
सूरज घुट रहा है, जल रहा है

चांद लुट रहा है, गल रहा है
रौशनी भर रहा है
जो युग-युग का सशक्त इतिहास है

मुझे अभी बेरहम हवाओं के झोंकों में
आगे को बढ़ना है
तलवे जले भले ही,
चोटी पर चढ़ना है !!

No comments:

Post a Comment