Tuesday, April 17, 2007

गन्दे बच्चो से

बच्चों, तुम पर मुझे तरस है
देख तुम्हारी हीन दशा
यह दीन दशा, उसपर ये बेहूदी बातें
यानी बुरी आदतें ढेरों पास तुम्हारे
जिनसे मेरा मन अकुलाता
विवश अश्रु के घूंट हजम कर चुप रह जाता

रहा ना जाता
कह देता हूँ -
बीडी पीना
सिगरेट पीना, गन्दे रहना ,
पढने-लिखने से कतराना
कभी-कभी मौका लग पाते
घर भग जाना
बना बहाना
हू-हल्ला कर समय काटना
और रुआसों सा चेहरा ले
कभी-कभी विद्यालय आना
काम ना करना
बहुत बड़ी है शर्म !
मुझे रोना आता है
किससे मैं क्या कहूँ ?
तुम्हारे आसपास का सारा वातावरण भ्रष्ट है
प्रतिभा आकुल, मौन नष्ट है
तुम भविष्य हो सही हमारे
क्या उम्मीद करूं मैं
बोलो -
होनहार तुम !
लेकिन अपने पाँव स्वयं ही काट रहे हो
सडी-गली ले परम्पराएँ
आंख मींचकर
मानो कोई मजबूरन ही खाहीं पाट रहे हो !!

सही कह रहा --
भले तुम्हे कड़वा लगता हो?
लेकिन, ये रस-बूंदे, अमृत-शब्द तुम्हें
मैं दिए जा रहा
जब तक हूँ मैं पास तुम्हारे
चाहो तुम या ना चाहो .....
मैं दिए जा रहा !
अगर मुझे क्या ? पूर्ण राष्ट्र को बल देना है
अपना घर सुख-सुविधाओं से भर लेना है
तो आओ विद्यालय प्रतिदिन
करो अध्ययन
पूंछो मन की बात
तुम्हे जो खटक रही है
अटक रही है गले तुम्हारे .....
हम सब है तैयार तुम्हे दुलरा लेने को
और प्यार से ज्ञान अमृत पिला देने को .....
नए जोश का होश
नया निर्माण करो कुछ
आगे आओ, मत घबड़ाओ !
अपने भीतर बैठे साधन - साध्य जगाओ !!
दैन्य-निराशा-आलस-तम को दूर भगाओ !!

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