Tuesday, April 17, 2007

मेरा औजी

भूखी-सूखी
रूखी काया
नग्न, अधेड़ उम्र इसमे ही समां गयी है
रोटी-रोजी का सवाल
प्रत्येक सुबह को
दिन भर की चिन्तना
शाम को ढोल बजाकर

कथरी ओढ़े
फटी पुरानी
जिसमे चीलर भरे

बिचारा सिकुड़ गया है मेरा औजी !
इस पहाड़ पर करे बताओ क्या?
उसका पेशा ही ऐसा
ढोल बजाना
सुबह-शाम
नौबत ठाकुर जी के दरवाज़े .....?
पा जाता है भात
इसी में गुज़र कर रहा, मेरा औजी !!
फटे - पुराने वस्त्र,
दया का पात्र
टूटती देह
छान में बैठा केवल चिलम भर रहा
अपने जीवन का इतना दायरा समझकर
जर्जरता यौवन में निश दिन
विवश भर रहा मेरा औजी !
सुखा रहा है देह
प्रिया बोझा ढोती है
माँ बूढी देवता नचाती
झक मारे खूसट बुड्ढा
बेचारा बैठा बाप
सिल रहा ठ्कुरानी का पेटीकोट
मिलेगा आज शाम को दो पाथा अनाज

बुआरी कूटेगी
फिर भोल

पकेगा भात
भूख कुछ कम होगी ही.....
नाती जंगल चला गया है छिलका लेने
आयी है बगवाल
बनाएगा वह भैलू
और ख़ुशी से नाचेगा, गायेगा
सबके बीच
पहन कर सत्तर टुकड़े वाली नयी कमीज़
बनायीं जो कतरन से
उसका बाबा फिर क्या करता ?
बच्चो का त्योहार
नया हो वस्त्र

नही तो वे रोयेंगे
टुकड़े रंग-बिरंगे उसके मन भाते है
मेरे जैसे भावुक सिर्फ तरस खाते है
यह है अपना देश .....
समस्याओं का बोझ जिस पर बड़ा है
यहाँ उम्र काटी जाती है जैसे-तैसे !!




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