Tuesday, April 24, 2007

समय

मुझे जितना चाहो
उपेक्षित करो मेरे दोस्तो !
मैं तुम्हारा यह उपकार कभी भुला नही पाऊँगा
जब कभी मेरे दरवाज़े पर भीड़ लगी होगी
मुझे तुम्हारी याद आएगी
और मेरी आँखें
उस भीड़ में सिर्फ तुम्हे हेरेंगी
बहले ही तुम्हारा चेहरा कहीं प्रायश्चित
की आग में झुलस ही रहा हो ?
किन्तु उस भरी भीड़ में, मेरी आँखें
तुम्हें देख ही लेंगी ।
और नमन कर लेंगी !!
आज तुम्हारे साथ हूँ
कल कौन जाने कहॉ हूँगा मैं, तुम
यह, वह और सभी .....
किन्तु रहेगी सभी के साथ एक स्मृति-अवशेष
इन चेहरों के माथों की लकीरें
आपस की बातें, और यह समय.....
मेरी भावुकता को पागलपन ही कह लो
और मेरे निश्छल साधुवेश को गालियाँ ही दे लो
लान्छनो की गठरी बांधकर
मेरे होलडाल में डाल दो !
और मेरी कमीज़ के कॉलर को काला कर दो !
किन्तु पूंछता हूँ - एक बात दोस्तो !
जब कभी फिर मिलेंगे, तब तुम क्या करोगे ?
मुझे देख मुँह मोड़ लोगे और चुपचाप खिसक लोगे ?
किन्तु आत्मा का सम्बन्ध आत्मा से होता है
ऐसा नही होगा, मेरा दोस्तो !
ऐसा नही होगा !!

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