Monday, April 23, 2007

ऊहापोह में

आज और हस्ताक्षर कर दूँ
काली छाती पर
उजाले के

क्या पता?
कल सूरज निकले न निकले
दुनियां अंधेरे में

और अंधेरे में
दिन को रात समझ कर सो जाये
क्योंकि वह अंधी और बहरी है
मेरी हस्ती मामूली
उसकी निगाह में शहरी है
बात हलकी नही गहरी है
मुझे प्यार अन्तरात्मा के 'शोकेस' में रखने वाली
चीज़ लग रही है
और औरत
ज्ञान-विज्ञानं कि धरोहर
खजुराहो के मंदिरों की कला-कृति .....
मेरा एकान्त
शान्त, बिल्कुल शान्त
रात भर छछूंदर कमरे में दौड़कर

भंग कर देती है शान्ति.....
आज और सो लूँ
इस छत के नीचे
क्या पता ?
कल खुला आकाश
मेरी छत हो
और, यह रेतीली जमीन मेरा बिछौना .....?



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