Wednesday, May 16, 2007

कुछ दूर हमारे साथ चलो हम दिल की कहानी कह देंगे,
समझे न जिसे तुम आंखो से वो बात ज़ुबानी कह देंगे,


फ़ूलों की तरह जब होठों पर इक शोख तबस्सुम बिखरेगा,
धीरे से तुम्हारे कानों मे इक बात पुरानी कह देंगे,

ईज़्हार-ए-वफ़ा तुम क्या समझो इक़रार-ए-वफ़ा तुम क्या जानो,
हम ज़िक्र करेंगे गैरों का और अपनी कहानी कह देंगे,

मौसम तो बडा ही ज़ालिम है तूफ़ान उठाता रहता है,
कुछ लोग मगर इस हलचल को बदमस्त जवानी कह देंगे,

समझे न जिसे तुम आंखो से वो बात ज़ुबानी कह देंगे,
कुछ दूर हमारे साथ चलो हम दिल की कहानी कह देंगे.

Thursday, May 10, 2007

पप्पू, तुम कितने अच्छे हो !

पप्पू, तुम कितने अच्छे हो !
राग-द्वेष से मुक्त
भावना सिद्ध
सत्य के शुद्ध
सरल-शिव-सुन्दर बच्चे हो !
पप्पू, तुम कितने अच्छे हो !!
सीधे-साधे
शान्ति-रूप-प्रतिरूप
सलोने-सुगढ़-साहसी
संयम और सनेह
कीर्ति के सच्चे हो !
पप्पू, तुम कितने अच्छे हो !!
माटी का घर बना रहे,
माटी खाते हो,
निर्विकार, तुम गीतकार सा कुछ गाते हो !
मेरे मन अतिशय भाते हो !
तुम भविष्य की मधुर टेक
धागा कच्चे हो !
पप्पू, तुम कितने अच्छे हो !!
मेरा मन करता .....
दिन भर साथ तुम्हारे ही खेलूं ?
जब भी बैठूं, उठूँ और बोलूं -
तुम से बोलूं !
तुम इश्वर की मधुर-मनोहर-रचना
पावन-लच्छे हो !
पप्पू, तुम कितने अच्छे हो !!

समस्या

आई है चिट्ठी इन्दौर से
सादर आमंत्रित है रचनाएं
प्रकाशनार्थ .....
लोकप्रिय कवि की सिरीज में
सहयोग राशि केवल पचहत्तर रूपये

बस, लोकप्रियता ..... ?
घर-बैठे !
सोच रहा हूँ .....
अवसर है नाम कमाने का
छपने छपाने का
साहित्य-जगत में आगे आने का .....
और दूसरी चिट्ठी बहिन,
भाई, माँ-पिता की !
जरूरतें बहुत-सी
कापी-किताबें, फ़ीस-कपडें
घर के तमाम रगडे .....

कनछेदन, मुंडन, यज्ञोपवीत संस्कार .....
सबके सब एक साथ
हे राम ! अल्प वेतन भोगी
क्या करे ?
गनीमत है बीबी ?
अभी वेटिंग लिस्ट में ..... !!

अंधे और बहिरों की भीड़ में

आज का आदमी
कितना खोखला हो गया है !
एक, दो, तीन नही
चौगुना खो गया है !
आदमियत ने
व्यवहारिकता-दरवाज़े बन्द किये
विष-वमन, चाल-चलन का रोग हो गया है !

स्वार्थान्ध-भाव
पदलिप्सा
चाटुकारिता

ऊंची-ऊंची महत्वाकांक्षाओं की
वृत्ति रह गयी है !

सेवा-भाव-विज्ञापन
आदर्श सब पोस्टर बन गए हैं !
भूख
प्यास
बेकारी
वियतनाम
दिमागी ख़ुराक बन गयी है !!
दल-बदल
चहल-पहल
विधान-सभा भंग और त्याग-पत्र
सबके सब एकदम निठल्ले हो गए है !
अंधे और बहिरों की भीड़ में ?

युग-ध्वनि सुन रहा हूँ !

दोस्तो !
अपनी कृपा-दृष्टि
अपने पास रखो .....
तुम्हारी नियति बहुत अच्छी है
मुझे मालुम है ।
शुभकामनाओं के ढ़ेर
मेरे द्वार यूं मत लगाओ !!
खोखला-व्यवहार और
जर्जर-दायरे को
चांदी के वरक से न ढापों
नींव का रोड़ा हूँ, भवनों से ना नापों ?

मैं सभी कुछ सह गया हूँ .....
एकदम चुपचाप
बिल्कुल एकदम चुपचाप .....
तुम छपो, दर्शन बनो
युग-काव्य-प्रणयी
विरह-विनयी प्रबन्धक,

सम्पादक, निदेशक, प्रशासक सभी कुछ .....
किसी के पैर छूकर
खुशामद कर
अमानत धर.....
मुझको नही स्वीकार
झुकना और चुकना
हाँ, मैं जब भी हिलूँगा
भवन कापेंगे
महाशय द्वार नाचेंगे
थोडा ही बस और चुप रहने दो !!
युग-ध्वनि सुन रहा हूँ !

सत्याभिव्यक्ति

अति निकटता में जहर है ?
इसलिये
किसी के भी अति निकट मत रहो !
बेखते नही हो .....
भगवान का मान-सम्मान कितना है ?
अर्चना, वन्दना, साधना-सुमन
सभी कुछ समर्पित है !
क्योंकि वह कहीं दिखता नहीं .....
साधारण बुद्धि के लिए ही नही,
प्रखर बुद्धि के लिए भी वह दूर है
बहुत दूर .....
दर्शन दुर्लभ .....
इसीलिये ..... आस्था है
और सूरज, चांद, सितारे, आसमान
दूर है ..... अच्छा है !
दूर के ढोल सुहावने ?
बड़ी पुरानी कहावत है
एकदम सत्य है
आदमी अपने आसपास संतोष, सुख
प्रगति, शांति, योग, कुछ भी
नही पाता है ?
चाहे सभी के ढ़ेर लगे हो उसके आसपास .....
किन्तु वह भटकता है .....
इधर-उधर ही देखता है .....
इसीलिये वह दुःखी है !

दुर्भाग्य !

टूटे कांच-सी मनुष्यता
इधर-उधर बिखरी पड़ी है !
चुभ रही है खूब
हर इन्सान के पाँव में
मायाविन-रीति खोखली हो गयी है !
प्रीति की डोर कुछ ढीली हो गयी है
हर आत्मा चीखती है
पुकारती है, शोर करती है
और कहीं-कहीं विध्वंश-नाश के बीज
भी बोती है !
स्वतन्त्रता-यौवना मदिर-मस्त सोती है
वर्तमान ही नही भविष्य भी खोती है
चूर हो गए सपने
बेबस जीवन का भार है रेहन
गदहे-सी नीति

बोझा ढोने की प्रीति
अलबेली शान, सभी कुछ जानबूझकर
अजान बन गयी है !
आधी रोटी सूखी-सी तुष्टि रह गयी है !
जीवन पर मृत्यु की घण्टी-सी टंगी है !!
अपराधी अपराध को छुपाये
चिल्लाता है, रिकार्ड कराता है
अपराध बढ रहा है !
हाय रे, देश का दुर्भाग्य
आज सभी धृतराष्ट्र हो गए हैं !

फिर क्या ..... ?

कहते रहो, कहते रहो
जब भी अवसर मिले
सिर्फ आश्वासन देते रहो
अपनी कुर्सी सुरक्षित रखो
गलत, सही अरे, किसी भी तरह .....
"ज़माने का चलन है
राजकाज ऐसे ही होता है"
कहकर सारी बला ऐसे ही टालते रहो !
बेईमानी में ही जिन्दा रह सकोगे
वर्ना गोली के शिकार बनोगे .....
नैतिकता छपाते रहो
नैतिक-अनुष्ठान-संस्थान में जाते रहो !
वचनामृत सुनो बायें कान से
दाहिने से निकाल दो
जैसे जाओ, वैसे ही लौट आओ
जंचता नही ..... अरे ?
कोरे आदर्शों को
लपालपी
'दर्शन' में घोल

गिने-चुने शब्दों में बोल दो .....
यानी सत्य, अहिंसा, प्रेम .....
करने को तुम कुछ भी करो ।
सभा में मनुष्यता का प्रेम-मंत्र फूंको
साफ नही ..... गोपनीय

कथनी और करनी में फर्क रखो
आधी रोटी खाकर मालिक के सपने देखो
समाजवाद-साम्यवाद का नारा बुलंद करो
फिर क्या ..... ?
अगला चुनाव अपना ही है !!

मुँह मत खोलो

खबरदार !
सावधान !!
अपनी जुबान बन्द करो
बेमतलब का शोर यूं मत करो !
निगाहों को इधर-उधर आवारा मत छोडो !!
आदमी हो
आदमियत का कुछ भी तो ख्याल करो !

अपनी पाशविकता का नंगा-नाच मत दिखाओ !!
सलीकापन सीखो
जिन्दगी विष-वमन करने को नही है !
तुम्हारी लियाकत बस यहीं तक है
कि जुबान बन्द करो
नीच ! ओ नीच !!
भृष्ट इरादों वाले आदमी
कीचड़-सी भावना वाले
सडे-गले विचारों वाले
लिजलिजे, गिलगिले केंचुये सी
जिन्दगी वाले !!

शर्म नही आती है
अफवाहें फैलाते हो !
शराफत को अपनी शरारत का
शिकार बनाते हो !
जानता हूँ, कितने पानी में हो ?
बस ..... गनीमत है ।
मुँह मत खोलो
बोलो, सोच-समझ बोलो
अनाप-शनाप बोलोगे
पिटोगे ??

Wednesday, May 9, 2007

Somewhere, someone dreams of your smile and finds your presence in life so worth while.
So when you are lonely, remember it's true that someone, somewhere, is thinking of you...

Sunday, May 6, 2007

Girl:Do u love me..?
Boy:Ofcourse darling i do..
Girl:Will u love me even after marriage..?
Boy:That depends on your husband,If he allows me to love you..

Kiss is a key of love.
Love is a lock of marriage.
Marriage is a box of children.
Children are problem of india, so never kiss a girl.

Saturday, May 5, 2007

पत्नी से पति

मिस्टर सेठ को सभी हिन्दुसतानी चीजों से नफरत थी ओर उनकी सुन्दरी पत्नी गोदावरी को सभी विदेशी चीजों से चिढ़ ! मगर धैर्य ओर विनय भारत की देवियों का आभूषण है गोदावरी दिल पर हजार जब्र करके पति की लायी हुई विदेशी चीजों का व्यवहार करती थी, हालांकि भीतर ही भीतर उसका हदय अपनी परवशता पर रोता था। वह जिस वक्त अपने छज्जे पर खड़ी होकर सड़क पर निगाह दौड़ाती ओर कितनी ही महिलाओं को खद्दर की साड़ियों पहने गर्व से सिर उठाते चलते देख्रती, तो उसके भीतर की वेदना एक ठंडी आह बनकर निकल जाती थी। उसे ऐसा मालूम होता था कि मुझसे ज्यादा बदनसीब औरत संसार में नहीं हैं मै अपने स्वदेश वासिंयों की इतनी भी सेवा नहीं कर सकती? शाम को मिस्टर सेठ के आग्रह करने पर वह कहीं मनोरंजन या सैर के लिए जाती, तो विदेशी कपड़े पहने हुए निकलते शर्म से उसकी गर्दन झुक जाती थी। वह पत्रों मे महिलाओं के जोश- भरे व्याख्यान पढ़ती तो उसकी आंखें जगमगा उठती, थोड़ी देर के लिए वह भूल जाती कि मैं यहां बन्धनों मे जकड़ी ह़ई हूं।

होली का दिन था, आठ बजे रात का समय । स्वदेश के नाम पर बिके हुए अनुरागियों का जुलूस आकर मिस्टर सेठ के मकान के सामने रूका ओर उसी चौड़े मैदान में विलायती कपड़ों ही होलियां लगाने की तैयारियां होने ल्रगीं। गोदावरी अपने कमरे में खिड़की पर खड़ी यह समारोह देखती थी ओर दिल मसोसकर रह जाती थी एक वह है, जो यों खुश-खुश, आजादी के नशे-मतवाले, गर्व से सिर उठाये होली लगा रहे हैं, और एक में हूं कि पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह फड़फड़ा रही हूं । इन तीलियों को केसे तोड़ दूं? उसने कमरे मे निगाह दौड़ायी । सभी चीजें विदेशी थीं । स्वेदेशी का एक सूत भी न था यही चीजें वहॉँ जलायी जा रही थी ओर वही चीजें यहॉँ उसके ह्रदय में संचित ग्लानि की भांति सन्दुकों में रखी हुई थीं। उसके जी में एक लहर उठ रही थी कि इन चीजों को उठाकर उसी होली में डाल दे, उसकी सारी ग्लानि और दुर्बलता जलकर भस्म हो जाय। मगर पति को अप्रसन्नता के भय ने उसका हाथ पकड़ लिया । सहसा मि० सेठ के आकर अन्दर कहा- जरा इन सिरफरों को देखों, कपड़े जला रहे हैं। यह पागलपन, उन्माद और विद्रोह नहीं तो और क्या है। किसी ने सच कहा है, हिदुस्तानियों के न अक्ल आयी है न आयेगी । कोई कल भी तो सीधी नहीं ।

गोदावरी ने कहा – तुम भी हिंदुस्तानी हो।

सेठ ने गर्म होकर कहा- हॉ, लेकिन मुझे इसका हमेशा खेद रहता है कि ऐसे अभागे देश में क्यों पैदा हुआ। मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे हिन्दुस्तानी कहे या समझे । कम- से–कम मैंने आचार –व्यवहार वेश-भुषा, रीति-नीति, कर्म – वचन में कोई ऐसी बात नहीं रखी, जिससे हमें कोई हिन्दुस्तानी होने का कलंक लगाए । पूछिए, जब हमें आठ आने गज में बढ़िया कपड़ा मिलता है, तो हम क्यों मोटा टाट खरीदें । इस विषय में हर एक को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए । न जाने क्यों गवर्नमेंट ने इन दुष्टों को यहां। जमा होने दिया । अगर मेरे हाथ में अधिकार होता, तो सबों को जहन्नुम रसीद कर देता । तब आटे- दाल का भाव मालूम होता ।
गोदावरी ने अपने शब्द मे तीक्ष्ण तिरस्कार भर के कहा—तुम्हें अपने भइयों का जरा ख्याल नहीं आता ? भारत के सिवा और भी कोई देश है, जिस पर किसी दूसरी जाति के शासन हो? छोटे-छोटे राष्ट्र भी किसी दूसरी जाति के गुलाम बनकर नहीं रहना चाहते । क्या एक हिन्दुस्तानी के लिए यह लज्जा की बात नहीं है कि वह अपने ही भाइयों के साथ अन्याय करे ?

सेठ ने भोंहैं चढ़ाकर कहा- मैं इन्हे अपना भाई नहीं समझता।
गेदावरी- आखिर तुम्हें सरकार जो वेतन देती है, वह इन्हीं की जेब से तो आता हैं !
सेठ- मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि मेरा वेतन किसकी जेब से आता है मुझे जिसके हाथ से मिलता है, वह मेरा स्वामी है, न जाने इन दुष्टों को क्या सनक सवार हुई है कहते हैं, भारत आध्यात्मिक देश है। क्या अध्यामत्म का यही आशय है कि परमात्मा के विधानों का विरोध किया जाय? जब यह मालूम है कि परमात्मा की इच्छा के विरूद्ध एक पत्ती भी नहीं हिल सकती, तो यह मुमकिन है कि यह इतना बड़ा देश परामात्मा की मर्जी बगैर अंगरेजों के अधीन हो? क्यों इन दीवानों को इतनी अक्ल नहीं आती कि जब तक परमात्मा की इच्छा न होगी, कोई अंग्ररेजों का बाल भी बॉका न कर सकेगा !
गोदावरी - तो फिर क्यों नोकरी करते हो? परमात्मा की इच्छा होगी, तो आप ही आप भोजन मिल जाएगा बीमार होते हो , तो क्यों दौड़े वैद्य के घर जाते हो? पररमात्मा उन्हीं की मदद करता है, जो अपनी मदद आप करते है।
सेठ—बेशक करता है; लेकिन अपने घर में आग लगा देना, घर की चीजों को जला देना, ऐसे काम है, जिन्हें परमात्मा कभी पसंद नहीं कर सकता।
गोदावरी –तो यहँ के लोगों का चुपचाप बैठे रहना चाहिए?
सेठ- नहीं, रोना चाहिए । इस तरह रोना चाहिए, जैसे बच्चे माता के दूध के लिए रोते है।

सहसा होली जली, आग की शिखाएं आसमान से बातें करने लगीं, मानों स्वाधनीता की देवी अग्नि- बस्त्र धारण किए हुए आकाश के देवताओं से गले मिलने जा रही हो ।

दीनानाथ ने खिड़की बन्द कर दी, उनके लिए यह दृश्य भी असह्य था।

गोदावरी इस तरह खड़ी रही, जैसे कोई गाय कसाई के खूंटे पर खड़ी हो । उसी वक्त किसी के गाने का आवाज आयी-

'वतन की देखिए तकदरी कब बदलती हैं'

गोदावरी के विषाद से भरे हुए ह्रदय में एक चोट लगी । उसने खिड़की खोल दी और नीचे की तरफ झॉँका । होली अब भी जल रही थी और एक अंधा लड़का अपनी खँजरी बजाकर गा रहा था-

'वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।'

वह खिड़की के सामने पहुंचा तो गोदावरी पे पुकारा- ओ अन्धे !

खड़ा रहा ।

अन्धा खड़ा हो गया। गोदवारी ने सन्दुक खोला, पर उसेमें उसे एक पैसा मिला । नोट ओर रूपये थे, मगर अन्धे फकीर को नोट या रूपये देने का सवाल ही न था पैसे अगर दो –चार मिल जाते, तो इस वक्त वह जरूर दे देती । पर वहां एक ही पैसा था, वह भी इतना घिसा हुआ कि कहार बाजार से लौटा लाया था । किसी दूकानदार ने न लिया था । अन्धे को वह पैसा देते हुए गोदावरी को शर्म आ रही थी। वह जरा देर तक पैसे को हाथ मे लिए संशय में खड़ी रही । तब अन्धे को बुलाया ओर पैसा दे दिया ।

अन्धे ने कहा—माता जी कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया ।

गोदावरी—दिन भर मॉँगता है, तब भी तुझे खाने को नहीं मिलता?
अन्धा- क्या करूं माता, कोई खाने को नहीं देता ।
गोदावरी- इस पैसे का चवैना लेकर खा ले ।
अन्धा- खा लूंगा माता जी, भगवान् आपको खुशी रखे । अब यहीं
सोता हूँ।
--------

2

दूसरे दिन प्रात: काल कॉँग्रेस की तरफ से एक आम जलसा हुआ । मिस्टर सेठ ने विलायती टूथ पाउडर बिलायती ब्रुश से दॉँतो पर मला , विलायती साबुन से नहाया, विलायती चाय विलायती प्यालियों में पी, विलायती बिस्कुट विलायती मक्खन के साथ खाया, विलायती दूध पिया। फिर विलायती सूट धारण करके विलायती सिंगार मुंह में दबाकर घर से निकले, और अपनी मोटर साइकिल पर बैठ फ्लावर शो देखने चले गये ।

गोदावरी को रात भर नींद नहीं आयी थी, दुराशा ओर पराजय की कठिन यन्त्रणा किसी कोड़े की तरह उसे ह्रदय पर पड़ रही थी । ऐसा मालुम होता था कि उसके कंठ में कोई कड़वी चीज अटक गयी है। मिस्टर सेठ का अपने प्रभाव मे लाने की उसने वह सब योजनाएँ की, जो एक रमणी कर सकती है; पर उस भले आदमी पर उसके सारे हाव –भाव, मृदु मुस्कान ओर वाणी- विलास को कोई असर न हुआ । खुद तो स्वदेशी वस्त्रों के व्यवहार करने पर क्या राजी होते, गोदावरी के लिए एक खद्दर की साड़ी लाने पर भी सहमत न हुए । यहँ तक कि गोदाबरी ने उनसे कभी कोई चीज मांगने की कसम खा ली ।
क्रोध और ग्लानि ने उसकी सद्भावना को इस तरह विकृत कर दिया जेसे कोई मैली बस्तु निर्मल जल को दूषित कर देती है उसने सोंचा, 'जब यह मेरी इतनी सी बात नहीं मान सकते; तब फिर मैं क्या इनके इशारों पर चलूं, क्यों इनकी इच्छाओं की लौंडी बनी रहूं? मैंने इनके हाथ कुछ अपनी आत्मा नहीं बेची है। अगर आज ये चोरी या गबन करें , तो क्या में सजा पाऊँगी? उसी सजा ये खुद झेलेगें । उसका अपराध इनके ऊपर होगा। इन्हें अपने कर्म और वचन का अख्तियार हैं मुझे अपने कर्म और वचन का अख्तियार । यह अपनी सरकार की गुलामी करें, अंगरेजों की चौखट पर नाक रगड़ें, मुझे क्या गरज है कि उसमें उनका सहयोग करूँ ! जिसमें आत्माभिमान नहीं, जिसने अपने को स्वार्थ के हाथों बेच दिया, उसके प्रति अगर मेरे मन में भक्ति न हो तो मेरा दोष नहीं। यह नौकर है या गुलाम ? नौकरी और गुलामी में अन्तर है नौकर कुछ नियमों के अधीन अपना निर्दिष्ट काम करता है। वह नियम स्वामी और सेवक दोनों ही पर लागू होते हैं। स्वामी अगर अपमान करे, अपशब्द कहे तो नौकर उसको सहन करने के लिए मजबूर नहीं। गुलाम के लिए कोई शर्त नहीं, उसकी दैहिक गुलामी पीछे होती है, मानसिक गुलामी पहले ही हो जाती हैं। सरकार ने इनसे कब कहा है कि देशी चीजें न खरीदों।' सरकारी टिकटों तक पर शब्द लिखे होते हैं 'स्वेदेशी चीजें खरीदो। इससे विदित है कि सरकार देशी चीजें का निषेध नहीं करती। फिर भी यह महाश्य सुर्खरू बनने की फिक्र में सरकार से भी दो अंगुल आगे बढ़ना चाहते है !
मिस्टर सेठ ने कुछ झेंपते हुए कहा—कल न फ्लावर शो देखने चलोगी?

गोदावरी ने विरक्त मन से कहा- नहीं !
'बहुत अच्छा तमाशा है।'
'मैं कॉँग्रेस के जलसे में जा रही हूं ।
मिस्टर सेठ के ऊपर यदि छत गिर पड़ी होती या उन्होंने बिजली का तार हाथ से पकड़ लिया होता, तो भी वह इतने बदहवास न होते । आँखें फाड़कर बोले- तुम कॉग्रेस के जलसे में जाओगी ?
'हां जरूर जांउगी !,
' मै नहीं चाहता कि तुम वहँ जाओ।'
'अगर तुम मेरी परवाह नहीं करते, तो मेरा धर्म नहीं कि तुम्हारी हर एक आज्ञा का पालन करूँ।'

मिस्टर सेठ ने आंखों मे विष भर कर कहा – नतीजा बुरा होगा ।

गोदावरी मानों तलवार के सामने छाती खोल कर बोली- इसकी चिंता नहीं, तुम किसी के ईश्वर नहीं हो।

मिस्टर सेठ सूब गर्म पड़े, धमकियॉ दी; आखिर मुंह फेरकर लेटे रहे। प्रात: काल फ्लावर शो जाते समय भी उन्होंने गोदावरी से कुछ न कहा ।
3

गोदावरी जिस समय कँग्रेस के जलसे में पहुंची, तो कई हजार मर्दो और औरतों का जमाव था । मन्त्री ने चन्दे की अपील की थी और कुछ लोग चन्दा दे रहे थे । गोदावरी उस जगह खड़ी हो गई जहॉँ और स्त्रियॉँ जमा थी ओर देखने लगी कि लोग क्या देते हैं। अधिकाश लोग दो-दो चार-चार आना ही दे रहे थे । वहां ऐसा धनवान था ही कौन? उसने अपनी जेब टटोली, तो एक रूपया निकला । उसने समझा यह काफी है। इसी इन्तजार में थी कि झोली सामने आवे तो उसमें डाल दूँ? सहसा वही अन्धा लड़का, जिसे कि उसने पैसा दिया था, न जाने किधर से आ गया और ज्यों ही चन्दे की झोली उसके सामने पहुँचीं, उसने उसमें कुछ डाल दिया । सबकी आँखें उसकी तरफ उठ गयीं । सबको कुतूहल हो रहा था कि अन्धे ने क्या दिया? कही एक-आध पैसा मिल गया होगा। दिन भर गला फाड़ता है, तब भी तो उस बेचारे को रोटी नहीं मिलती ! अगर यही गाना पिश्वाज और साज के साथ किसी महफिल में होता तो रूपये बरसते; लेकिन सड़क पर गाने वाले अन्धे की कौन परवाह करता है।

झोली में पैसा डालकर अन्धा वहाँ से चल दिया और कुछ दूर जाकर गाने लगा-
'वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।'

सभापति ने कहा – मित्रों, देखिए, यह वह पैसा है,जो एक गरीब उन्धा लड़का इस झोली में डाल गया है। मेरी आंखों में इस एक पैसें की कीमत किसी अमीर के एक हजार रूपये से कम नहीं । शायद यही इस गरीब की सारी बिसात होगी। जब ऐसे गरीबों की सहानुभूति हमारे साथ है, तो मुझे सत्य की विजय में संदेह नहीं मालूम होता । हमारे यहाँ क्यों इतने फकीर दिखायी देती हैं? या तो इसलिए कि समाज में इन्हें कोई काम नहीं मिलता या दरिद्रता से पैदा हुई बीमारियों के कारण यह अब इस योग्य ही नहीं रह गये कि कुछ काम करें। या भिक्षावृति ने इनमें कोई सामर्थ्य ही नहीं छोड़ी । स्वराज्य के सिवा इन गरीबों का अब उद्धार कौन कर सकता है। देखिए, वह गा रहा है।–

'वतन की देखिए तकदीर कब बदलती है।'

इस पीड़ित ह्रदय में कितना उत्सर्ग ! क्या अब भी कोई संदेह कर सकता है कि हम किसकी आवाज हैं? (पैसा उपर उठा कर) आपमें कौन इस रत्न को खरीद सकता है?

गोदावरी के मन में जिज्ञासा हुई, क्या वह वही तौ पेसा नहीं है, जो रात मैंने उसे दिया था? क्या उसने सचमुच रात को कुछ नहीं खाया?

उसने जाकर समीप से पैसे को देखा, जो मेज पर रखा दिया गया था। उसका ह्रदय धक् से हो गया । यह वही घिसा हुआ पैसा था।

उस अंधे की दशा, उसके त्याग का स्मरण करके गोदावरी अनुरक्त हो उठी । कँपते हुए स्वर में बोली – मुझे आप यह पैसा दे दीजिए, मैं पॉँच रूपये दूंगी ।

सभापति ने कहा – एक बहन इस पैसे के दाम पांच रूपये दे रही है।

दूसरी आवाज आयी –दस रुपये।

तीसरी आवाज आयी- बीस रुपये ।

गोदावरी ने इस अन्तिम व्यक्ति की ओर देखा । उसके मुख पर आत्माभिमान झलक रहा था, मानों कह रहा हो कि यहॉँ कौन है, जो मेरी बराबरी कर सके ! गोदावरी के मन मे स्पर्द्धा का भाव जाग उठा । चाहे कुछ हो जाय, इसके हाथ में यह पैसा न जाय । समझता है, इसने बीस रुपये क्या कह दिये, सारे संसार का मोल ले लिया ।

गोदावरी ने कहा – चालीस रूपये ।

उस पुरूष ने तुरंत कहा—पचास रूपये ।

हजारों आँखें गोदावरी की ओर उठ गयीं मानो कह रही हों, अब की आप ही हमारी लाज रखिए ।

गोदावरी ने उस आदमी की ओर देखकर धमकी से मिले हुए स्वर में कहा – सौ रुपये।

धनी आदमी ने भी तुरंत कहा- एकं सौ बीस रूपये ।

लोगों के चेहरे पर हवाइयँ उड़ने लगीं। समझ गयें, इसी के हाथ विजय रही। निराश आंखों से गोदावरी की ओर ताकने लगे; मगर ज्यों ही गोदावरी के मुँह से निकला डेढ़ सौ, कि चारों तरफ तालियॉ पड़ने लगीं, मानो किसी दंगल के दर्शक अपने पहलवान कीविजय पर मतवाले हो गये हों।

उस आदमी ने फिर कहा – पौने दो सौ।

गोदावरी बोली – दो सौ।

फिर चारों तरफ से तालियँ पड़ी। प्रतिद्वंद्वी ने अब मैदान से हट जाने ही मेंअपनी कुशल समझी ।

गोदावरी विजय के गर्व पर नम्रता का पर्दा डाले हुए खड़ी थी और हजारो शुभ कामनाऍं उस पर फुलों की तरह बरस रही थीं।

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जब लोगो को मालूम हुआ कि यह देवी मिस्टर सेठ की बीबी है।, तो उन्हें ईर्ष्यामय आनंद के साथ उस पर दया भी आयी ।
मिस्टर सेठ अभी फ्लावर शों मे ही थें कि एक पुलिस के अफसर ने उन्हें यह घातक संवाद सुनाया । मिस्टर सेठ सकते में पड़ गये, मानो सारी देह शुन्य पड़ गयी हो । फिर दानों मुटियँ बांध लीं । दांत पीसे, ओठ चबाये और उसी वक्त घर चले । उनकी मोटर –साईकिल कभी इतनी तेज न चली थी।

घर में कदम रखते ही उन्होंने चिनगारियों –भरी ऑंखों से देखते हुए कहा- क्या तुम मेरे मुंह में कालिख पुतवाना चाहती हो?

गोदावरी ने शांत भाव से कहा-कुछ मुह से भी तो कहो या गालियॉँ ही दिये जाओगे? तुम्हारे मुहँ में कालिख लगेगी, तो क्या मेरे मुहँ में न लगेगी? तुम्हारी जड़ खुदेगी, तो मेरे लिए दूसरा कौन-सा सहारा है।

मिस्टर सेठ—सारे शहर में तूफान मचा हुआ है। तुमने मेरे लिए रुपये दिये क्यों?

गोदावरी ने उसी शांत भाव से कहा—इसलिए कि मैं उसे अपना ही रुपया समझती हूँ।

मिस्टर सेठ दॉँत किटकिटा कर बोले—हरगिज नहीं, तुम्हें मेरा रुपया खर्च करने का कोई हक नहीं है।

गोदावरी-बिलकुल गलत, तुम्हारे खर्च करने का तुम्हें जितना अख्तियार है, उतना ही मुझको भी है। हॉँ, जब तलाक का कानून पास करा लोगे और तलाक दे दोगे, तब न रहेगा।

मिस्टर सेठ ने अपना हैट इतने जोर से मेज पर फेंका कि वह लुढ़कता हुआ जमीन पर गिर पड़ा और बोले—मुझे तुम्हारी अक्ल पर अफसोस आता है। जानती हो तुम्हारी इस उद्दंडता का क्या नतीजा होगा? मुझसे जवाब तलब हो जाएगा। बतलाओ, क्या जवाब दूँगा? जब यह जाहिर है कि कांग्रेस सरकार से दुश्मनी कर रही है तो कांग्रेस की मदद करना सरकार के साथ दुश्मनी करनी है।

'तुमने तो नहीं की कांग्रेस की मदद!'

'तुमने तो की!'

इसकी सजा मुझे मिलेगी या तुम्हें? अगर मैं चोरी करूँ, तो क्या तुम जेल जाओगे?'

'चोरी की बात और है, और यह बात और है।'

'तो क्या कांग्रेस की मदद करना चोरी या डाके से भी बुरा है?'

'हॉँ, सरकारी नौकर के लिए चोरी या डाके से भी बुरा है।'

'मैंने यह नहीं समझा था।'

अगर तुमने यह नहीं समझा था, तो तुम्हारी ही बुद्धि का भ्रम था। रोज अखबारों में देखती हो, फिर भी मुझसे पूछती हो। एक कॉँग्रेस का आदमी प्लेटफार्म पर बोलने खड़ा होता है, तो बीसियों सादे कपड़े वाले पुलिस अफसर उसकी रिपोर्ट लेने बैठते हैं। काँग्रेस के सरगनाओं के पीछे कई-कई मुखबिर लगा दिए जाते हैं, जिनका काम यही है कि उन पर कड़ी निगाह रखें। चोरों के साथ तो इतनी सख्ती कभी नहीं की जाती। इसीलिए हजारों चोरियॉँ और डाके और खून रोज होते रहते हैं, किसी का कुछ पता नहीं चलता, न पुलिस इसकी परवाह करती है। मगर पुलिस को जिस मामले में राजनीति की गंध भी आ जाती है। फिर देखो पुलिस की मुस्तैदी। इन्सपेक्टर जरनल से लेकर कांस्टेबिल तक ऐड़ियों तक का जोर लगाते हैं। सरकार को चोरों से भय नहीं। चोर सरकार पर चोट नहीं करता। कॉँग्रेस सरकार को अख्तियार पर हमला करती है, इसलिए सरकार भी अपनी रक्षा के लिए अपने अख्तियार से काम लेती है। यह तो प्रकृति का नियम है।

मिस्टर सेठ आज दफ्तर चले, तो उनके कदम पीछे रह जाते थे! न जाने आज वहॉँ क्या हाल हो। रोज की तरह दफ्तर में पहुँच कर उन्होंने चपरासियों को डॉंटा नहीं, क्लर्कों पर रोब नहीं जमाया, चुपके से जाकर कुर्सी पर बैठ गये। ऐसा मालूम होता था, कोई तलवार सिर पर लटक रही है। साहब की मोटर की आवाज सुनते ही उनके प्राण सूख गये। रोज वह अपने कमरे में बैठ रहते थे। जब साहब आकर बैठ जाते थे, तब आध घण्टे के बाद मिसलें लेकर पहुँचते थे। आज वह बरामदे में खड़े थे, साहब उतरे तो झुककर उन्होंने सलाम किया। मगर साहब ने मुँह फेर लिया।

लेकिन वह हिम्मत नहीं हारे, आगे बढ़कर पर्दा हटा दिया, साहब कमरे में गये, तो सेठ साहब ने पंखा खोल दिया, मगर जान सूखी जाती थी कि देखें, कब सिर पर तलवार गिरती है। साहब ज्यों ही कुर्सी पर बैठे, सेठ ने लपककर, सिगार-केस और दियासिलाई मेज पर रख दी।

एकाएक ऐसा मालूम हुआ, मानो आसमान फट गया हो। साहब गरज रहै थे, तुम दगाबाज आदमी हो!
सेठ ने इस तरफ साहब की तरफ देखा, जैसे उनका मतलब नहीं समझे।
साहब ने फिर गरज कर कहा-तुम दगाबाज आदमी हो।
मिस्टर सेठ का खून गर्म हो उठा, बोले-मेरा तो ख्याल है कि मुझसे बड़ा राजभक्त इस देश में न होगा।
साहब-तुम नमकहारम आदमी है।
मिस्टर सेठ के चेहरे पर सुर्खी आयी-आप व्यर्थ ही अपनी जबान खराब कर रहै हैं।
साहब-तुम शैतान आदमी है।
मिस्टर सेठ की ऑंखों में सुर्खी आयी-आप मेरी बेइज्जती कर रहै हैं। ऐसी बातें सुनने की मुझे आदत नहीं है।
साहब-चुप रहो, यू ब्लडी। तुमको सरकार पॉँच सौ रूपये इसलिए नहीं देता कि तुम अपने वाइफ के हाथ से कॉँग्रेस का चंदा दिलवाये। तुमको इसलिए सरकार रुपया नहीं देता।
मिस्टर सेठ को अपनी सफाई देने का अवसर मिला। बोले-मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरी वाइफ ने सरासर मेरी मर्जी के खिलाफ रुपये दिये हैं। मैं तो उस वक्त फ्लावर शो देखने गया था, जहॉँ मिस फ्रॉँक का गुलदस्ता पॉँच रुपये में लिया। वहॉँ से लौटा, तो मुझे यह खबर मिली।
साहब-ओ! तुम हमको बेवकूफ बनाता है?

यह बात अग्नि-शिला की भॉँति ज्यों ही साहब के मस्तिष्क में घुसी, उनके मिजाज का पारा उबाल के दर्जे तक पहुँच गया। किसी हिंदुस्तानी की इतनी मजाल कि उन्हें बेवकूफ बनाये! वह जो हिंदुस्तान के बादशाह हैं, जिनके पास बड़े-बड़े तालुकेदार सलाम करने आते हैं, जिनके नौकरों को बड़े-बडे रईस नजराना देते हैं, उन्हीं को कोई बेवकूफ बनाये! उसके लिये वह असह्य था! रूल उठा कर दौड़ा।

लेकिन मिस्टर सेठ भी मजबूत आदमी थे। यों वह हर तरह की खुशामद किया करते थे! लेकिन यह अपमान स्वीकार न कर सके। उन्होंने रूल का तो हाथ पर लिया और एक डग आगे आगे बढ़कर ऐसा घूँसा साहब के मुँह पर रसीद किया कि साहब की ऑंखों के सामने अँधेरा छा गया। वह इस मुष्टिप्रहार के लिए तैयार न थे। उन्हें कई बार इसका अनुभव हो चुका था कि नेटिव बहुत शांत, दब्बू और गमखोर होता है। विशेषकर साहबों के सामने तो उनकी जबान तक नहीं खुलती। कुर्सी पर बैठ कर नाक का खून पोंछने लगा। फिर मिस्टर सेठ के उलझने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ीं; मगर दिल में सोच रहा था, इसे कैसे नीचा दिखाऊँ।

मिस्टर सेठ भी अपने कमरे में आ कर इस परिस्थिति पर विचार करने लगे। उन्हें बिलकुल खेद न था; बल्कि वह अपने साहस पर प्रसन्न थे। इसकी बदमाशी तो देखो कि मुझ पर रूल चला दिया! जितना दबता था, उतना ही दबाये जाता था। मेम यारों को लिये घूमा करती है, उससे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती। मुझसे शेर बन गया। अब दौड़ेगा कमिश्नर के पास। मुझे बरखास्त कराये बगैर न छोड़ेगा। यह सब कुछ गोदावरी के कारण हो रहा है। बेइज्जती तो हो ही गयी अब रोटियों को भी मुहताज होना पड़ा। मुझ से तो कोई पूछेगा भी नहीं, बरखास्तगी का परवाना आ जायेगा। अपील कहॉँ होगी? सेक्रेटरी हैं हिन्दुस्तानी, मगर अँगरेजों से भी ज्यादा अँगरेज। होम मेम्बर भी हिन्दुस्तानी हैं, मगर अँगरेजों के गुलाम। गोदावरी के चंदे का हाल सुनते ही उन्हें जूड़ी चढ़आयेगी। न्याय कीकिसी से आशा नहीं, अब यहॉँ से निकल जाने में ही कुशल है।

उन्होंने तुंरत एक इस्तीफा लिखा और साहब के पास भेज दिया। साहब ने उस पर लिख दिया, 'बरखास्त'।

5
दोपहर को जब मिस्टर सेठ मुहँ लटकाये हुए घर पहूँचे तो गोदावरी ने पूछा-आज जल्दी कैसे आ गये?
मिस्टर सेठ दहकती हुई ऑखों से देख कर बोले-जिस बात पर लगी थीं, वह हो गयी। अब रोओ, सिर पर हाथ रखके!
गोदावरी-बात क्या हुई, कुछ कहो भी तो?
सेठ-बात क्या हुई, उसने ऑंखें दिखायीं, मैंने चाँटा जमाया और इस्तीफा दे कर चला आया।
गोदावरी-इस्तीफा देने की क्या जल्दी थी?
सेठ-और क्या सिर के बाल नुचवाता? तुम्हारा यही हाल है, तो आज नहीं, कल अलग होना ही पड़ता।
गोदावरी-खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। आज से तुम भी कॉँग्रेस में शरीक हो जाओ।
सेठ ने ओठ चबा कर कहा-लजाओगी तो नहीं, ऊपर से घाव पर नमक छिड़कती हो।
गोदावरी-लजाऊँ क्यों, मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारी बेड़ियॉँ कट गयीं।
सेठ-आखिर कुछ सोचा है, काम कैसे चलेगा?
गोदावरी-सब सोच लिया है। मैं चल कर दिखा दूँगी। हॉँ, मैं जो कुछ कहूँ, वह तुम किये जाना। अब तक मैं तुम्हारे इशारे पर चलती थी, अब से तुम मेरे इशारे पर चलना। मैं तुमसे किसी बात की शिकायत न करती थी; तुम जो कुछ खिलाते थे खाती थी, जो कुछ पहनाते थे पहनती थी। महल में रखते, महल में रहती। झोपड़ी मे रखते, झोपड़ी में रहती। उसी तरह तुम भी रहना। जो काम करने को कहूँ वह करना। फिर देखूँ कैसे काम नहीं चलता। बड़प्पन सूट-बूट और ठाठ-बाट में नहीं है। जिसकी आत्मा पवित्र हो, वही ऊँचा है। आज तक तुम मेरे पति थे आज से मैं तुम्हारा पति हूँ।

सेठ जी उसकी और स्नेह की ऑंखों से देख कर हँस पड़े।

पुत्र-प्रेम

बाबू चैतन्यादास ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही नहीं था, उसका यथायोग्य व्याहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गांवो मे उनक जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वाभावत: प्रश्न होता था-इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपहार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। 'व्यर्थ' को वे विष के समाने समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धन्त उनके जीवन-स्तम्भ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत्र थे। बड़े का नाम प्रभुदास था, छोटे का शिवदास। दोनों कालेज में पढ़ते थे। उनमें केवल एक श्रेणी का अन्तर था। दोनो ही चुतर, होनहार युवक थे। किन्तु प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था। उसमें सदुत्साह की मात्रा अधिक थी और पिता को उसकी जात से बड़ी-बड़ी आशाएं थीं। वे उसे विद्योन्नति के लिए इंग्लैण्ड भेजना चाहते थे। उसे बैरिस्टर बनाना उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।



किन्तु कुछ ऐसा संयोग हुआ कि प्रभादास को बी०ए० की परीक्षा के बाद ज्वर आने लगा। डाक्टरों की दवा होने लगी। एक मास तक नित्य डाक्टर साहब आते रहे, पर ज्वर में कमी न हुई दूसरे डाक्टर का इलाज होने लगा। पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। प्रभुदास दिनों दिन क्षीण होता चला जाता था। उठने-बैठने की शक्ति न थी यहां तक कि परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का शुभ-सम्बाद सुनकर भी उसक चेहरे पर हर्ष का कोई चिन्हृ न दिखाई दिया । वह सदैव गहरी चिन्जा में डुबा रहाता था । उसे अपना जीवन बोझ सा जान पडने लगा था । एक रोज चैतन्यादास ने डाक्टर साहब से पूछा यह क्याा बात है कि दो महीने हो गये और अभी तक दवा कोई असर नहीं हुआ ?
डाक्टर साहब ने सन्देहजनक उत्तर दिया- मैं आपको संशय में नही डालना चाहता । मेरा अनुमान है कि यह टयुबरक्युलासिस है ।
चैतन्यादास ने व्यग्र होकर कहा – तपेदिक ?
डाक्टर - जी हां उसके सभी लक्षण दिखायी देते है।
चैतन्यदास ने अविश्वास के भाव से कहा मानों उन्हे विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो –तपेदिक हो गया !
डाक्टर ने खेद प्रकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुप्तरीति सेशरीर में प्रवशे करता है।
चैतन्यदास – मेरे खानदान में तो यह रोग किसी को न था।
डाक्टर – सम्भव है, मित्रों से इसके जर्म (कीटाणु ) मिले हो।
चैतन्यदास कई मिनट तक सोचने के बाद बोले- अब क्या करना चाहिए ।
डाक्टर -दवा करते रहिये । अभी फेफड़ो तक असर नहीं हुआ है इनके अच्छे होने की आशा है ।
चैतन्यदास – आपके विचार में कब तक दवा का असर होगा?
डाक्टर – निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता । लेकिन तीन चार महीने में वे स्वस्थ हो जायेगे । जाड़ो में इसरोग का जोर कम हो जाया करता है ।
चैतन्यदास – अच्छे हो जाने पर ये पढने में परिश्रम कर सकेंगे ?
डाक्टर – मानसिक परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास – किसी सेनेटोरियम (पहाड़ी स्वास्थयालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डाक्टर - बहुत ही उत्तम ।
चैतन्यदास तब ये पूर्णरीति से स्वस्थ हो जाएंगे?
डाक्टर - हो सकते है, लेकिन इस रोग को दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से बचना ही अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से बोले – तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।

3

गर्मी बीत गयी। बरसात के दिन आये, प्रभुदास की दशा दिनो दिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बड़े बड़े डाक्टरों की व्याख्याएं पढा करता था। उनके अनुभवो से अपनी अवस्था की तुलना किया करता था। उनके अनुभवो स अपनी अवस्था की तुलना किया करता । पहले कुछ दिनो तक तो वह अस्थिरचित –सा हो गया था। दो चार दिन भी दशा संभली रहती तो पुस्तके देखने लगता और विलायत यात्रा की चर्चा करता । दो चार दिन भीज्वर का प्रकोप बढ जाता तो जीवन से निराश हो जाता । किन्तु कई मास के पश्चात जब उसे विश्वास हो गया कि इसरोग से मुक्त होना कठिन है तब उसने जीवन की भी चिन्ता छोड़ दी पथ्यापथ्य का विचार न करता , घरवालो की निगाह बचाकर औषधियां जमीन पर गिरा देता मित्रोंके साथ बैठकर जी बहलाता। यदि कोई उससे स्वास्थ्य केविषय में कुछ पूछता तोचिढकर मुंह मोड लेता । उसके भावों में एक शान्तिमय उदासीनता आ गई थी, और बातो मेंएक दार्शनिक मर्मज्ञता पाई जाती थी । वह लोक रीति और सामाजिक प्रथाओं पर बड़ी निर्भीकता से आलोचनारंए किया करता । यद्यपि बाबू चैतन्यदास के मन में रह –रहकर शंका उठा करती थी कि जब परिणाम विदित ही है तब इस प्रकार धन का अपव्यय करने से क्या लाभ तथापि वेकुछ तो पुत्र-प्रेम और कुछ लोक मत के भय से धैर्य के साथ् दवा दर्पन करतेक जाते थें ।
जाड़े का मौसम था। चैतन्यदास पुत्र के सिरहाने बैठे हुए डाक्टर साहब की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देख रहे थे। जब डाक्टर साहब टेम्परचर लेकर (थर्मामीटर लगाकर ) कुर्सी पर बैठे तब चैतन्यदास ने पूछा- अब तो जाड़ा आ गया। आपको कुछ अन्तर मालूम होता है ?
डाक्टर – बिलकुल नहीं , बल्कि रोग और भी दुस्साध्य होता जाता है।
चैतन्यदास ने कठोर स्वर में पूछा – तब आप लोग क्यो मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे किजाडे में अच्छे हो जायेगें ? इस प्रकार दूसरो की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने का साधन हो तो हो इसे सज्जनताकदापि नहीं कह सकते।
डाक्टर ने नम्रता से कहा- ऐसी दशाओं में हम केवल अनुमान कर सकते है। और अनुमान सदैव सत्य नही होते। आपको जेरबारी अवश्य हुई पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मेरी इच्छा आपको भ्रम में डालने के नहीं थी ।
शिवादास बड़े दिन की छुटिटयों में आया हुआ था , इसी समय वहि कमरे में आ गया और डाक्टर साहब से बोला – आप पिता जी की कठिनाइयों का स्वयं अनुमान कर सकते हैं । अगर उनकी बात नागवार लगी तो उन्हे क्षमा कीजिएगा ।
चैतन्यदास ने छोटे पुत्र की ओर वात्सल्य की दृष्टि से देखकर कहा-तुम्हें यहां आने की जरुरत थी? मै तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि यहॉँआया करो । लेकिन तुमको सबर ही नही होता ।
शिवादास ने लज्जित होकर कहा- मै अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हों । मै केवल डाक्टर साहब से यह पूछना चाहताथा कि भाई साहब के लिए अब क्या करना चाहिए ।
डाक्टर साहब ने कहा- अब केवल एकही साधनऔर है इन्हे इटली के किसी सेनेटारियम मे भेज देना चाहिये ।
जचैतन्यदास ने सजग होकर पूछा- कितना खर्च होगा? 'ज्यादा स ज्यादा तीन हजार । साल भसा रहना होगा?
निश्चय है कि वहां से अच्छे होकर आवेगें ।
जी नहीं यहातो यह भयंकर रोग है साधारण बीमारीयो में भी कोई बात निश्चय रुप से नही कही जा सकती ।'
इतना खर्च करनेपर भी वहां सेज्यो के त्यो लौटा आये तो?
तो ईश्वार कीइच्छा। आपको यह तसकीन हो जाएगी कि इनके लिए मै जो कुछ कर सकता था। कर दिया ।

4

आधी रात तक घर में प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्तवा पर वाद-विवाद होता रहा । चैतन्यदास का कथन था कि एक संदिग्य फल केलिए तीन हजार का खर्च उठाना बुद्धिमत्ता के प्रतिकूल है। शिवादास फल उनसे सहमत था । किन्तु उसकी माता इस प्रस्ताव का बड़ी ढृझ्ता के साथ विरोध कर रही थी । अतं में माता की धिक्कारों का यह फल हुआ कि शिवादास लज्जित होकर उसके पक्ष में हो गया बाबू साहब अकेले रह गये । तपेश्वरी ने तर्क से कामलिया । पति केसदभावो को प्रज्वलित करेन की चेष्टा की ।धन की नश्वरात कीलोकोक्तियां कहीं इनं शस्त्रों से विजय लाभ न हुआ तो अश्रु बर्षा करने लगी । बाबू साहब जल –बिन्दुओ क इस शर प्रहार के सामने न ठहर सके । इन शब्दों में हार स्वीकार की- अच्छा भाई रोओं मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।
तपेश्वरी –तो कब ?
'रुपये हाथ में आने दो ।'
'तो यह क्यों नही कहते किभेजना ही नहीं चाहते?'
भेजना चाहता हूँ किन्तु अभी हाथ खाली हैं। क्या तुम नहीं जानतीं?'
'बैक में तो रुपये है? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?'
चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो उसे खाजायेगें और एक क्षण केबाद बोले – बिलकूल बच्चों कीसी बाते करतीहो। इटली में कोई संजीवनी नही रक्खी हुई है जो तुरन्त चमत्कार दिखायेगी । जब वहां भी केवल प्रारबध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी से कर लेगें । पूर्व पूरुषो की संचित जायदाद और रक्खहुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर सकता।
तपेश्वरी ने डरते – डरते कहा- आखिर , आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है?
बाबू साहब तिरस्कार करते हुए बोले – आधा नही, उसमें मै अपना सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा होती , वह खानदान की मर्यादा मै और ऐश्वर्य बढाता और इस लगाये। हुए लगाये हुए धन केफलस्वरुप कुछ कर दिखाता । मै केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता ।
तपेश्वीर अवाक रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई ।
इस प्रस्ताव केछ: महीने बाद शिवदास बी.ए पास होगया। बाबू चैतत्यदास नेअपनी जमींदरी केदो आने बन्धक रखकर कानून पढने के निमित्त उसे इंग्लैड भेजा ।उसे बम्बई तक खुद पहुँचाने गये । वहां से लौटेतो उनके अतं: करण में सदिच्छायों से परिमित लाभ होने की आशा थी उनके लौटने केएक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषओं को लिये हुए परलोक सिधारा ।

5

चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट पर अपने सम्बन्धियों केसाथ बैठे चिता – ज्वाला की ओर देख रहे थे ।उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी । पुत्र –प्रेम एक क्षण के लिए अर्थ –सिद्धांत पर गालिब हो गयाथा। उस विरक्तावस्था में उनके मन मे यह कल्पना उठ रही थी । - सम्भव है, इटली जाकर प्रभुदास स्वस्थ हो जाता । हाय! मैने तीन हजार का मुंह देखा और पुत्र रत्न को हाथ से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती थी और उनको ग्लानि, शोक और पश्चात्ताप के बाणो से बेध रही थी । रह रहकर उनके हृदय में बेदना कीशुल सी उठती थी । उनके अन्तर की ज्वाला उस चिता –ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अक्स्मात उनके कानों में शहनाइयों की आवाज आयी। उन्होने आंख ऊपर उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सब के सब ढोल बजाते, गाते, पुष्य आदि की वर्षा करते चले आते थे । घाट पर पहुँचकर उन्होने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे । उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा –किस मुहल्ले में रहते हो?
युवक ने जवाब दिया- हमारा घर देहात में है । कल शाम को चले थे । ये हमारे बाप थे । हम लोग यहां कम आते है, पर दादा की अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना ।
चैतन्यदास -येसब आदमी तुम्हारे साथ है?
युवक -हॉँ और लोग पीछे आते है । कई सौ आदमी साथ आये है। यहां तक आने में सैकड़ो उठ गयेपर सोचता हूँ किबूढे पिता की मुक्ति तो बन गई । धन और ही किसलिए ।
चैतन्यदास- उन्हें क्या बीमारी थी ?
युवक ने बड़ी सरलता से कहा , मानो वह अपने किसी निजी सम्बन्धी से बात कर रहा हो।- बीमार का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढा रहता था। सूखकर कांटा हो गये थे । चित्रकूट हरिद्वार प्रयाग सभी स्थानों में ले लेकर घूमे । वैद्यो ने जो कुछ कहा उसमे कोई कसर नही की।
इतने में युवक का एक और साथी आ गया। और बोला –साहब , मुंह देखा बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे । इसने रुपयों को ठीकरे समझा ।घर की सारी पूंजी पिता की दवा दारु में स्वाहा कर दी । थोड़ी सी जमीन तक बेच दी पर काल बली के सामने आदमी का क्या बस है।
युवक ने गदगद स्वर से कहा – भैया, रुपया पैसा हाथ का मैल है। कहां आता है कहां जाता है, मुनष्य नहीं मिलता। जिन्दगानी है तो कमा खाउंगा। पर मन में यह लालसा तो नही रह गयी कि हाय! यह नही किया, उस वैद्य के पास नही गया नही तो शायद बच जाते। हम तो कहते है कि कोई हमारा सारा घर द्वार लिखा ले केवल दादा को एक बोल बुला दे ।इसी माया –मोह का नाम जिन्दगानी हैं , नहीं तो इसमे क्या रक्खा है? धन से प्यारी जान जान से प्यारा ईमान । बाबू साहब आपसे सच कहता हूँ अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता । अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता । नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शान्ति से रहेगीतो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।
बाबू चैतन्यादास सिर झुकाए ये बाते सुन रहे थे ।एक -एक शब्द उनके हृदय में शर के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदय-हीनता, अपनी आत्मशुन्यता अपनी भौतिकता अत्यनत भयंकर दिखायी देती थी । उनके चित्त परइस घटना का कितना प्रभाव पड़ा यह इसी से अनुमान किया जा सकता हैं कि प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में उन्होने हजारों रुपये खर्च कर डाले उनके सन्तप्त हृदय की शान्ति के लिए अब एकमात्र यही उपाय रह गया था।
'सरस्वती' , जून, 1932

प्रतिशोध

माया अपने तिमंजिले मकान की छत पर खड़ी सड़क की ओर उद्विग्न और अधीर आंखों से ताक रही थी और सोच रही थी, वह अब तक आये क्यों नहीं ? कहां देर लगायी ? इसी गाड़ी से आने को लिखा था। गाड़ी तो आ गयी होगी, स्टेशन से मुसाफिर चले आ रहे हैं। इस वक्त तो कोई दूसरी गाड़ी नहीं आती। शायद असबाब वगैरह रखने में देर हुई, यार-दोस्त स्टेशन पर बधाई देने के लिए पहुँच गये हों, उनसे फुर्सत मिलेगी, तब घर की सुध आयेगी ! उनकी जगह मैं होती तो सीधे घर आती। दोस्तों से कह देती , जनाब, इस वक्त मुझे माफ़ कीजिए, फिर मिलिएगा। मगर दोस्तों में तो उनकी जान बसती है !
मिस्टर व्यास लखनऊ के नौजवान मगर अत्यंत प्रतिष्ठित बैरिस्टरों में हैं। तीन महीने से वह एक राजीतिक मुकदमें की पैरवी करने के लिए सरकार की ओर से लाहौर गए हुए हें। उन्होंने माया को लिखा था—जीत हो गयी। पहली तारीख को मैं शाम की मेल में जरूर पहुंचूंगा। आज वही शाम है। माया ने आज सारा दिन तैयारियों में बिताया। सारा मकान धुलवाया। कमरों की सजावट के सामान साफ करायें, मोटर धुलवायी। ये तीन महीने उसने तपस्या के काटे थे। मगर अब तक मिस्टर व्यास नहीं आये। उसकी छोटी बच्ची तिलोत्तमा आकर उसके पैरों में चिमट गयी और बोली—अम्मां, बाबूजी कब आयेंगे ?
माया ने उसे गोद में उठा लिया और चूमकर बोली—आते ही होंगे बेटी, गाड़ी तो कब की आ गयी।
तिलोत्तमा—मेरे लिए अच्छी गुड़ियां लाते होंगे।
माया ने कुछ जवाब न दिया। इन्तजार अब गुस्से में बदलता जाता था। वह सोच रही थी, जिस तरह मुझे हजरत परेशान कर रहे हैं, उसी तरह मैं भी उनको परेशान करूँगी। घण्टे-भर तक बोलूंगी ही नहीं। आकर स्टेशन पर बैठे हुए है ? जलाने में उन्हें मजा आता है । यह उनकी पुरानी आदत है। दिल को क्या करूँ। नहीं, जी तो यही चाहता है कि जैसे वह मुझसे बेरुखी दिखलाते है, उसी तरह मैं भी उनकी बात न पूछूँ।
यकायक एक नौकर ने ऊपर आकर कहा—बहू जी, लाहौर से यह तार आया है।
माया अन्दर-ही-अन्दर जल उठी। उसे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे बड़े जोर की हरारत हो गयी हो। बरबस खयाल आया—सिवाय इसके और क्या लिखा होगा कि इस गाड़ी से न आ सकूंगा। तार दे देना कौन मुश्किल है। मैं भी क्यों न तार दे दूं कि मै एक महीने के लिए मैके जा रही हूँ। नौकर से कहा—तार ले जाकर कमरे में मेज पर रख दो। मगर फिर कुछ सोचकर उसने लिफाफा ले लिया और खोला ही था कि कागज़ हाथ से छूटकर गिर पड़ा। लिखा था—मिस्टर व्यास को आज दस बजे रात किसी बदमाश ने कत्ल कर दिया।



कई महीने बीत गये। मगर खूनी का अब तक पता नहीं चला। खुफिया पुलिस के अनुभवी लोग उसका सुराग लगाने की फिक्र में परेशान हैं। खूनी को गिरफ्तार करा देनेवाले को बीस हजार रुपये इनाम दिये जाने का एलान कर दिया गया है। मगर कोई नतीजा नहीं ।
जिस होटल में मिस्टर व्यास ठहरे थे, उसी में एक महीने से माया ठहरी हुई है। उस कमरे से उसे प्यार-सा हो गया है। उसकी सूरत इतनी बदल गयी है कि अब उसे पहचानना मुश्किल है। मगर उसके चेहरे पर बेकसी या दर्द का पीलापन नहीं क्रोध की गर्मी दिखाई पड़ती है। उसकी नशीली ऑंखों में अब खून की प्यास है और प्रतिशोध की लपट। उसके शरीर का एक-एक कण प्रतिशोध की आग से जला जा रहा है। अब यही उसके जीवन का ध्येय, यही उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा है। उसके प्रेम की सारी निधि अब यही प्रतिशोध का आवेग हैं। जिस पापी ने उसके जीवन का सर्वनाश कर दिया उसे अपने सामने तड़पते देखकर ही उसकी आंखें ठण्डी होंगी। खुफ़िया पुलिस भय और लोभ, जॉँच और पड़ताल से काम ले रही है, मगर माया ने अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिए एक दूसरा ही रास्ता अपनाया है। मिस्टर व्यास को प्रेत-विद्या से लगाव था। उनकी संगति में माया ने कुछ आरम्भिक अभ्यास किया था। उस वक्त उसके लिए यह एक मनोरंजन था। मगर अब यही उसके जीवन का सम्बल था। वह रोजाना तिलोत्तमा पर अमल करती और रोज-ब-रोज अभ्यास बढ़ाती जाती थी। वह उस दिन का इन्तजार कर रही थी जब अपने पति की आत्मा को बुलाकर उससे खूनी का सुराग लगा सकेगी। वह बड़ी लगन से, बड़ी एकाग्रचित्तता से अपने काम में व्यस्त थी। रात के दस बज गये थे। माया ने कमरे को अंधेरा कर दिया था और तिलोत्तमा पर अभ्यास कर रही थी। यकायक उसे ऐसा मालूम कि कमरे में कोई दिव्य व्यक्तित्व आया। बुझते हुए दीपक की अंतिम झलक की तरह एक रोशनी नज़र आयी।
माया ने पूछा—आप कौन है ?
तिलोत्तमा ने हंसकर कहा—तुम मुझे नहीं पहचानतीं ? मैं ही तुम्हारा मनमोहन हूँ जो दुनिया में मिस्टर व्यास के नाम से मशहूर था।
'आप खूब आये। मैं आपसे खूनी का नाम पूछना चाहती हूँ।'
'उसका नाम है, ईश्वरदास।'
'कहां रहता है ?'
'शाहजहॉपुर।'
माया ने मुहल्ले का नाम, मकान का नम्बर, सूरत-शक्ल, सब कुछ विस्तार के साथ पूछा और कागज पर नोट कर लिया। तिलोत्तमा जरा देर में उठ बैठी। जब कमरे में फिर रोशनी हुई तो माया का मुरझाया हुआ चेहरा विजय की प्रसन्नता से चमक रहा था। उसके शरीर में एक नया जोश लहरें मार रहा था कि जैसे प्यास से मरते हुए मुसाफिर को पानी मिल गया हो।
उसी रात को माया ने लाहौर से शाहजहांपुर आने का इरादा किया।



रात का वक्त। पंजाब मेल बड़ी तेजी से अंधेरे को चीरती हुई चली जा रही थी। माया एक सेकेण्ड क्लास के कमरे में बैठी सोच रही थी कि शाहजहॉपुर में कहां ठहरेगी, कैसे ईश्वरदास का मकान तलाशा करेगी और कैसे उससे खून का बदला लेगी। उसके बगल में तिलोत्तमा बेखबर सो रही थीं सामने ऊपर के बर्थ पर एक आदमी नींद में गाफ़िल पड़ा हुआ था।
यकायक गाड़ी का कमरा खुला और दो आदमी कोट-पतलून पहने हुए कमरे में दाखिल हुए। दोनो अंग्रेज थे। एक माया की तरफ बैठा और दूसरा दूसरी तरफ। माया सिमटकर बैठ गयी । इन आदमियों को यों बैठना उसे बहुत बुरा मालूम हुआ। वह कहना चाहती थी, आप लोग दूसरी तरफ बैठें, पर वही औरत जो खून का बदला लेने जा रही थी, सामने यह खतरा देखकर कांप उठी। वह दोनों शैतान उसे सिमटते देखकर और भी करीब आ गये। माया अब वहां न बैठी रह सकी । वह उठकर दूसरे वर्थ पर जाना चाहती थी कि उनमें से एक ने उसका हाथ पकड़ लिया । माया ने जोर से हाथ छुड़ाने की कोशिश करके कहा—तुम्हारी शामत तो नहीं आयी है, छोड़ दो मेरा हाथ, सुअर ?
इस पर दूसरे आदमी ने उठकर माया को सीने से लिपटा लिया। और लड़खड़ाती हुई जबान से बोला—वेल हम तुमका बहुत-सा रुपया देगा।
माया ने उसे सारी ताकत से ढ़केलने की कोशिश करते हुए कहा—हट जा हरामजादे, वर्ना अभी तेरा सर तोड़ दूंगी।
दूसरा आदमी भी उठ खड़ा हुआ और दोनों मिलकर माया को बर्थ पर लिटाने की कोशिश करने लगे ।यकायक यह खटपट सुनकर ऊपर के बर्थ पर सोया हुआ आदी चौका और उन बदमाशों की हरकत देखकर ऊपर से कूद पड़ा। दोनों गोरे उसे देखकर माया को छोड़ उसकी तरफ झपटे और उसे घूंसे मारने लगे। दोनों उस पर ताबड़तोडं हमला कर रहे थे और वह हाथों से अपने को बचा रहा था। उसे वार करने का कोई मौका न मिलता था। यकायक उसने उचककर अपने बिस्तर में से एक छूरा निकाल दिया और आस्तीनें समेटकर बोला—तुम दोनों अगर अभी बाहर न चले गये तो मैं एक को भी जीता ना छोड़ुँगा।
दोनों गोरे छुरा देखकर डरे मगर वह भी निहत्थे न थे। एक ने जेब से रिवाल्वर निकल लिया और उसकी नली उस आदमी की तरफ करके बोला-निकल जाओ, रैस्कल !
माया थर-थर कांप रही थी कि न जाने क्या आफत आने वाली हे । मगर खतरा हमारी छिपी हुई हिम्मतों की कुंजी है। खतरे में पड़कर हम भय की सीमाओं से आगे बढ़ जाते हैं कुछ कर गुजरते हैं जिस पर हमें खुद हैरत होती है। वही माया जो अब तक थर-थर कांप रही थी, बिल्ली की तरह कूद कर उस गोरे की तरफ लपकी और उसके हाथ से रिवाल्वर खींचकर गाड़ी के नीचे फेंक दिया। गोरे ने खिसियाकर माया को दांत काटना चाहा मगर माया ने जल्दी से हाथ खींच लिया और खतरे की जंजीर के पास जाकर उसे जोर से खीचा। दूसरा गोरा अब तक किनारे खड़ा था। उसके पास कोई हथियार न था इसलिए वह छुरी के सामने न आना चाहता था। जब उसने देखा कि माया ने जंजीर खींच ली तो भीतर का दरवाजा खोलकर भागा। उसका साथी भी उसके पीछे-पीछे भागा। चलते-चलते छुरी वाले आदमी ने उसे इतने जोर से धक्का दिया कि वह मुंह के बल गिर पड़ा। फिर तो उसने इतनी ठोकरें, इतनी लातें और इतने घुंसे जमाये कि उसके मुंह से खून निकल पड़ा। इतने में गाड़ी रुक गयी और गार्ड लालटेन लिये आता दिखायी दिया।



मगर वह दोनों शैतान गाड़ी को रुकते देख बेतहाशा नीचे कूद पड़े और उस अंधेरे में न जाने कहां खो गये । गार्ड ने भी ज्यादा छानबीन न की और करता भी तो उस अंधेरे में पता लगाना मुश्किल था । दोनों तरफ खड्ड थे, शायद किसी नदी के पास थीं। वहां दो क्या दो सौ आदमी उस वक्त बड़ी आसानी से छिप सकते थे। दस मिनट तक गाड़ी खड़ी रही, फिर चल पड़ी।
माया ने मुक्ति की सांस लेकर कहा—आप आज न होते तो ईश्वर ही जाने मेरा क्या हाल होता आपके कहीं चोट तो नहीं आयी ?
उस आदमी ने छुरे को जेब में रखते हुए कहा—बिलकुल नहीं। मैं ऐसा बेसुध सोया हुआ था कि उन बदमाशों के आने की खबर ही न हुई। वर्ना मैंने उन्हें अन्दर पांव ही न रखने दिया होता । अगले स्टेशन पर रिपोर्ट करूँगा।
माया—जी नहीं, खामखाह की बदनामी और परेशानी होगी। रिपोर्ट करने से कोई फायदा नहीं। ईश्वर ने आज मेरी आबरू रख ली। मेरा कलेजा अभी तक धड़-धड़ कर रहा है। आप कहां तक चलेंगे?
'मुझे शाहजहॉपुर जाना है।'
'वहीं तक तो मुझे भी जाना है। शुभ नाम क्या है ? कम से कम अपने उपकारक के नाम से तो अपरिचित न रहूँ।
'मुझे तो ईश्वरदास कहते हैं।
'माया का कलेजा धक् से हो गया। जरूर यह वही खूनी है, इसकी शक्ल-सूरत भी वही है जो उसे बतलायी गयी थीं उसने डरते-डरते पूछा—आपका मकान किस मुहल्ले में है ?
'.....में रहता हूँ।
माया का दिल बैठ गया। उसने खिड़की से सिर बाहर निकालकर एक लम्बी सांस ली। हाय ! खूनी मिला भी तो इस हालत में जब वह उसके एहसान के बोझ से दबी हुई है ! क्या उस आदमी को वह खंजर का निशाना बना सकती है, जिसने बगैर किसी परिचय के सिर्फ हमदर्दी के जोश में ऐसे गाढ़े वक्त में उसकी मदद की ? जान पर खेल गया ? वह एक अजीब उलझन में पड़ गयी । उसने उसके चेहरे की तरफ देखा, शराफत झलक रही थी। ऐसा आदमी खून कर सकता है, इसमें उसे सन्देह था
ईश्वरदास ने पूछा—आप लाहौर से आ रही हैं न ? शाहजहाँपुर में कहां जाइएगा ?
'अभी तो कहीं धर्मशाला में ठहरूंगी, मकान का इन्तजाम करना हैं।'
ईश्वरदास ने ताज्जुब से पूछा—तो वहां आप किसी दोस्त या रिश्तेदार के यहाँ नहीं जा रही हैं?
'कोई न कोई मिल ही जाएगा।'
'यों आपका असली मकान कहां है?'
'असली मकान पहले लखनऊ था, अब कहीं नहीं है। मै बेवा हूँ।'



ईश्वर दास ने शाहजहॉँपुर में माया के लिए एक अच्छा मकान तय कर दिया । एक नौकर भी रख दिया । दिन में कई बार हाल-चाल पूछने आता। माया कितना ही चाहती थी कि उसके एहसान न ले, उससे घनिष्ठता न पैदा करे, मगर वह इतना नेक, इतना बामुरौवत और शरीफ था कि माया मजबूर हो जाती थी।
एक दिन वह कई गमले और फर्नीचर लेकर आया। कई खूबसूरत तसवीरें भी थी। माया ने त्यौरियां चढ़ाकर कहा—मुझे साज-सामान की बिलकुल जरूरत नहीं, आप नाहक तकलीफ करते हैं।
ईश्वरदास ने इस तरह लज्जित होकर कि जैसे उससे कोई भूल हो गयी हो कहा—मेरे घर में यह चीजें बेकार पड़ी थीं, लाकर रख दी।
'मैं इन टीम-टाम की चीजों का गुलाम नहीं बनना चाहती।'
ईश्वरदास ने डरते-डरते कहा –अगर आपको नागवार हो तो उठवा ले जाऊँ ?
माया ने देखा कि उसकी ऑंखें भर आयी हैं, मजबूर होकर बोली—अब आप ले आये हैं तो रहने दीजिए। मगर आगे से कोई ऐसी चीज न लाइएगा
एक दिन माया का नौकर न आया। माया ने आठ-नौ बजे तक उसकी राह देखीं जब अब भी वह न आया तो उसने जूठे बर्तन मांजना शुरू किया। उसे कभी अपने हाथ से चौका –बर्तन करने का संयोग न हुआ था। बार-बार अपनी हालत पर रोना आता था एक दिन वह था कि उसके घर में नौकरों की एक पलटन थी, आज उसे अपने हाथों बर्तन मांजने पड़ रहे हैं। तिलोत्तमा दौड़-दौड़ कर बड़े जोश से काम कर रही थी। उसे कोई फिक्र न थी। अपने हाथों से काम करने का, अपने को उपयोगी साबित करने का ऐसा अच्छा मौका पाकर उसकी खुशी की सीमा न रही । इतने में ईश्वरदास आकर खड़ा हो गया और माया को बर्तन मांजते देखकर बोला—यह आप क्या कर रही हैं ? रहने दीजिए, मैं अभी एक आदमी को बुलावाये लाता हूँ। आपने मुझे क्यों ने खबर दी, राम-राम, उठ आइये वहां से ।
माया ने लापरवाही से कहा—कोई जरुरत नहीं, आप तकलीफ न कीजिए। मैं अभी मांजे लेती हूँ।
'इसकी जरूरत भी क्या, मैं एक मिनट में आता हूँ।'
'नहीं, आप किसी को न लाइए, मै इतने बर्तन आसानी से धो लूँगी।'
'अच्छा तो लाइए मैं भी कुछ मदद करूँ।'
यह कहकर उसने डोल उठा लिया और बाहर से पानी लेने दौड़ा। पानी लाकर उसने मंजे हुए बर्तनों को धोना शुरू किया।
माया ने उसके हाथ से बर्तन छीनने की कोशिश करके कहा—आप मुझे क्यों शर्मिन्दा करते है ? रहने दीजिए, मैं अभी साफ़ किये डालती हूँ।
'आप मुझे शर्मिदा करती हैं या मैं आपको शर्मिदा कर रहा हूँ? आप यहॉँ मुसाफ़िर हैं , मैं यहां का रहने वाला हूँ, मेरा धर्म है कि आपकी सेवा करूँ। आपने एक ज्यादती तो यह की कि मुझे जरा भी खबर न दी, अब दूसरी ज्यादती यह कर रही हैं। मै इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता ।'
ईश्वरदास ने जरा देर में सारे बर्तन साफ़ करके रख दिये। ऐसा मालूम होता था कि वह ऐसे कामों का आदी है। बर्तन धोकर उसने सारे बर्तन पानी से भर दिये और तब माथे से पसीना पोंछता हुआ बोला–बाजार से कोई चीज लानी हो तो बतला दीजिए, अभी ला दूँ।
माया—जी नहीं, माफ कीजिए, आप अपने घर का रास्ता लीजिए।
ईश्वरदास—तिलोत्तमा, आओ आज तुम्हें सैर करा लायें।
माया—जी नहीं, रहने दीजिएं। इस वक्त सैर करने नहीं जाती।
माया ने यह शब्द इतने रूखेपन से कहे कि ईश्वरदास का मुंह उतर गया। उसने दुबारा कुछ न कहा। चुपके से चला गया। उसके जाने के बाद माया ने सोचा, मैंने उसके साथ कितनी बेमुरौवती की। रेलगाड़ी की उस दु:खद घटना के बाद उसके दिल में बराबर प्रतिशोध और मनुष्यता में लड़ाई छिड़ी हुई थी। अगर ईश्वरदास उस मौके पर स्वर्ग के एक दूत की तरह न आ जाता तो आज उसकी क्या हालत होती, यह ख्याल करके उसके रोएं खड़े हो जाते थे और ईश्वादास के लिए उसके दिल की गहराइयों से कृतज्ञता के शब्द निकलते । क्या अपने ऊपर इतना बड़ा एहसान करने वाले के खून से अपने हाथ रंगेगी ? लेकिन उसी के हाथों से उसे यह मनहूस दिन भी तो देखना पड़ा ! उसी के कारण तो उसने रेल का वह सफर किया था वर्ना वह अकेले बिना किसी दोस्त या मददगार के सफर ही क्यों करती ? उसी के कारण तो आज वह वैधव्य की विपत्तियां झेल रही है और सारी उम्र झेलेगी। इन बातों का खयाल करके उसकी आंखें लाल हो जातीं, मुंह से एक गर्म आह निकल जाती और जी चाहता इसी वक्त कटार लेकरचल पड़े और उसका काम तमाम कर दे।



आज माया ने अन्तिम निश्चय कर लिया। उसने ईश्वरदास की दावत की थी। यही उसकी आखिरी दावत होगी। ईश्वरदास ने उस पर एहसान जरूर किये हैं लेकिन दुनिया में कोई एहसान, कोई नेकी उस शोक के दाग को मिटा सकती है ? रात के नौ बजे ईश्वादास आया तो माया ने अपनी वाणी में प्रेम का आवेग भरकर कहा—बैठिए, आपके लिए गर्म-गर्म पूड़ियॉं निकाल दूँ ?
ईश्वरदास—क्या अभी तक आप मेरे इन्तजार में बैठी हुई हैं ? नाहक गर्मी में परेशान हुई।
माया ने थाली परसकर उसके सामने रखते हुए कहा—मैं खाना पकाना नहीं जानती ? अगर कोई चीज़ अच्छी न लगे तो माफ़ कीजिएगा।
ईश्वरदास ने खूब तारीफ़ करके एक-एक चीज खायीं। ऐसी स्वादिष्ट चीजें उसने अपनी उम्र में कभी न खायी थी।
'आप तो कहती थी मैं खाना पकाना नहीं जानती ?'
'तो क्या मैं ग़लत कहती थी ?'
'बिलकुल ग़लत। आपने खुद अपनी ग़लती साबित कर दीं। ऐसे खस्ते मैंने जिन्दगी में भी न खाये थे।'
'आप मुझे बनाते है, अच्छा साहब बना लीजिए।'
'नहीं, मैं बनाता नहीं, बिलकुल सच कहता हूँ। किस-कीस चीज की तारीफ करूं? चाहता हूँ कि कोई ऐब निकालूँ, लेकिन सूझता ही नहीं। अबकी मैं अपने दोस्तों की दावत करूंगा तो आपको एक दिन तकलीफ दूंगा।'
'हां, शौक़ से कीजिए, मैं हाजिर हूँ।'
खाते-खाते दस बज गये। तिलोत्तमा सो गयी। गली में भी सन्नाटा हो गया। ईश्वरदास चलने को तैयार हुआ, तो माया बोली—क्या आप चले जाएंगे ? क्यों न आज यहीं सो रहिए? मुझे कुछ डर लग रहा है। आप बाहर के कमरे में सो रहिएगा, मैं अन्दर आंगन में सो रहूँगीं
ईश्वरदास ने क्षण-भर सोचकर कहा—अच्छी बात है। आपने पहले कभी न कहा कि आपको इस घर में डर लगता है वर्ना मैं किसी भरोसे की बुड्ढी औरत को रात को सोने के लिए ठीक कर देता ।
ईश्वरदास ने तो कमरे में आसन जमाया, माया अन्दर खाना खाने गयी। लेकिन आज उसके गले के नीचे एक कौर भी न उतर सका। उसका दिल जोर-जोर से घड़क रहा था। दिल पर एक डर–सा छाया हुआ था। ईश्वरदास कहीं जाग पड़ा तो ? उसे उस वक्त कितनी शर्मिन्दगी होगी !
माया ने कटार को खूब तेज कर रखा था। आज दिन-भर उसे हाथ में लेकर अभ्यास किया । वह इस तरह वार करेगी कि खाली ही न जाये। अगर ईश्वरदास जाग ही पड़ा तो जानलेवा घाव लगेगा।
जब आधी रात हो गयी और ईश्वरदास के खर्राटों की आवाजें कानों में आने लगी तो माया कटार लेकर उठी पर उसका सारा शरीर कांप रहा था। भय और संकल्प, आकर्षण और घृणा एक साथ कभी उसे एक कदम आगे बढ़ा देती, कभी पीछे हटा देती । ऐसा मालूम होता था कि जैसे सारा मकान, सारा आसमान चक्कर खा रहा हैं कमरे की हर एक चीज घूमती हुई नजर आ रही थी। मगर एक क्षण में यह बेचैनी दूर हो गयी और दिल पर डर छा गया। वह दबे पांव ईश्वरदास के कमरे तक आयी, फिर उसके क़दम वहीं जम गये। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। आह, मैं कितनी कमजोर हूँ, जिस आदमी ने मेरा सर्वनाश कर दिया, मेरी हरी-भरी खेती उजाड़ दी, मेरे लहलहाते हुए उपवन को वीरान कर दिया, मुझे हमेशा के लिए आग के जलते हुए कुंडों में डाल दिया, उससे मैं खून का बदला भी नहीं ले सकती ! वह मेरी ही बहनें थी, जो तलवार और बन्दूक लेकर मैदान में लड़ती थीं, दहकती हुई चिता में हंसते-हंसते बैठ जाती थी। उसे उस वक्त ऐसा मालूम हुआ कि मिस्टर व्यास सामने खडें हैं और उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा कर रहे हैं, कह रहे है, क्या तुम मेरे खून का बदला न लोगी ? मेरी आत्मा प्रतिशोध के लिए तड़प रही हैं । क्या उसे हमेशा-हमेशा यों ही तड़पाती रहोगी ? क्या यही वफ़ा की शर्त थी ? इन विचारों ने माया की भावनाओं को भड़का दिया। उसकी आंखें खून की तरह लाल हो गयीं, होंठ दांतों के नीचे दब गये और कटार के हत्थे पर मुटठी बंध गयी। एक उन्माद-सा छा गया। उसने कमरे के अन्दर पैर रखा मगर ईश्वरदास की आंखें खुल गयी थीं। कमरे में लालटेन की मद्धिम रोशनी थी। माया की आहट पाकर वह चौंका और सिर उठाकर देखा तो खून सर्द हो गया—माया प्रलय की मूर्ति बनी हाथ में नंगी कटार लिये उसकी तरफ चली आ रही थी!
वह चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और घबड़ाकर बोला—क्या है बहन ? यह कटार क्यों लिये हुए हो ?
माया ने कहा—यह कटार तुम्हारे खून की प्यासी है क्योंकि तुमने मेरे पति का खून किया है।
ईश्वरदास का चेहरा पीला पड़ गया । बोला—मैंनें !
'हां तुमने, तुम्हीं ने लाहौर में मेरे पति की हत्या की, जब वे एक मुकदमें की पैरवी करने गये थे। क्या तुम इससे इनकार कर सकते हो ?मेरे पति की आत्मा ने खुद तुम्हारा पता बतलाया है।'
'तो तूम मिस्टर व्यास की बीवी हो?'
'हां, मैं उनकी बदनसीब बीवी हूँ और तुम मेरा सोहाग लूटनेवाले हो ! गो तुमने मेरे ऊपर एहसान किये हैं लेकिन एहसानों से मेरे दिल की आग नहीं बुझ सकती। वह तुम्हारी खून ही से बुझेगी।'
ईश्वरदास ने माया की ओर याचना-भरी आंखों से देखकर कहा—अगर आपका यही फैसला है तो लीजिए यह सर हाजिर है। अगर मेरे खून से आपके दिल की आग बुझ जाय तो मैं खुद उसे आपके कदमों पर गिरा दूँगा। लेकिन जिस तरह आप मेरे खून से अपनी तलवार की प्यास बुझाना अपना धर्म समझती हैं उसी तरह मैंने भी मिस्टर व्यास को क़त्ल करना अपना धर्म समझा। आपको मालूम है, वह एक रानीतिक मुकदमें की पैरवी करने लाहौर गये थें। लेकिन मिस्टर व्यास ने जिस तरह अपनी ऊंची कानूनी लियाकत का इस्तेमाल किया, पुलिस को झुठी शहादतों के तैयार करने में जिस तरह मदद दी, जिस बेरहमी और बेदर्दी से बेकस और ज्यादा बेगुनाह नौजवानों को तबाह किया, उसे मैं सह न सकता था। उन दिनों अदालत में तमाशाइयों की बेइन्ता भीड़ रहती थी। सभी अदालत से मिस्टर व्यास को कोसते हुए जाते थे मैं तो मुकदमे की हकीकत को जानता था । इस लिए मेरी अन्तरात्मा सिर्फ कोसने और गालियॉँ देने से शांत न हो सकती थी । मैं आपसे क्या कहूँ । मिस्टर व्यास ने आखं खोलकर समझ- बूझकर झूठ को सच साबित किया और कितने ही घरानो को बेचिराग कर दिया आज कितनी माए अपने बेटो के लिए खून के आंसू रो रही है, कितनी ही औरते रंडापे की आग में जल रही है। पुलिस कितनी ही ज्यादतियां करे, हम परवाह नही करते । पुलिस से हम इसके सिवा और उम्मीद नही रखते। उसमे ज्यादातर जाहिल शोहदे लुच्चे भरे हुए है । सरकार ने इस महकमे को कायम ही इसलिए किया है कि वह रिआया को तंग करे। मगर वकीलो से हम इन्साफ की उम्मीद रखते है। हम उनकी इज्जत करते है । वे उच्चकोटि के पढे लिखे सजग लोग होते है । जब ऐसे आदमियों को हम पुलिस के हाथो की कठपुतली बना हुआ देखते है तो हमारे क्रोध की सीमा नहीं रहती मैं मिस्टर व्यास का प्रशंसक था। मगर जब मैने उन्हें बेगुनाह मुलजिमों से जबरन जुर्म का इकबाल कराते देखा तो मुझे उनसे नफरत हो गयी । गरीब मुलजिम रात दिन भर उल्टे लटकाये जाते थे ! सिर्फ इसलिए कि वह अपना जुर्म, तो उन्होने कभी नही किया, इकबाल कर ले ! उनकी नाक में लाल मिर्च का धुआं डाला जाता था ! मिस्टर व्यास यह सारी ज्यादातियां सिर्फ अपनी आंखो से देखते ही नही थे, बल्कि उन्हीं के इशारे पर वह की जाती थी।
माया के चेहरे की कठोरता जाती रही । उसकी जगह जायज गुस्से की गर्मी पैदा हुई । बोली–इसका आपके के पास कोई सबूत है कि उन्होने मुलजिमो पर ऐसी सख्तियां की ?
'यह सारी बाते आमतौर पर मशहूर थी । लाहौर का बच्चा बच्चा जानता है। मैने खुद अपनी आंखों से देखी इसके सिवा मैं और क्या सबूत दे सकता हूँ उन बेचारो का बस इतना कसूर था। कि वह हिन्दुस्तान के सच्चे दोस्त थे, अपना सारा वक्त प्रजा की शिक्षा और सेवा में खर्च करते थे। भूखे रहते थे, प्रजा पर पुलिस हुक्काम की सख्तिंया न होने देते थे, यही उनका गुनाह था और इसी गुनाह की सजा दिलाने में मिस्टर व्यास पुलिस के दाहिने हाथ बने हुए थे!'
माया के हाथ से खंजर गिर पड़ा। उसकी आंखो मे आंसू भर आये, बोली मुझे न मालूम था कि वे ऐसी हरकते भी कर सकते है।
ईश्वरदास ने कहा- यह न समझिए कि मै आपकी तलवार से डर कर वकील साहब पर झूठे इल्जाम, लगा रहा हूं । मैने कभी जिन्दगी की परवाह नहीं की। मेरे लिए कौन रोने वाला बैठा हुआ है जिसके लिए जिन्दगी की परवाह करुँ। अगर आप समझती हैं कि मैने अनुंचित हत्या की है तो आप इस तलवार को उठाकर इस जिन्दगी का खात्मा कर दीजिए, मै जरा भी न झिझकूगां। अगर आप तलवार न उठा सके तो पुलिस को खबर कर दीजिए, वह बड़ी आसानी से मुझे दुनिया से रुखसत कर सकती है। सबूत मिल जाना मुश्किल न होगा। मैं खुद पुलिस के सामने जुर्म का इकबाल कर लेता मगर मै इसे जुर्म नही समझता। अगर एक जान से सैकड़ो जाने बच जाएं तो वह खून नही है। मैं सिर्फ इसलिए जिन्दा रहना चाहता हूँ कि शायद किसी ऐसे ही मौके पर मेरी फिर जरुरत पड़े
माया ने रोते हुए- अगर तुम्हारा बयान सही है तो मै अपना, खून माफ करती हूँ तुमने जो किया या बेजा किया इसका फैसला ईश्वर करेगे। तुमसे मेरी प्रार्थना है कि मेरे पति के हाथों जो घर तबाह हुए है। उनका मुझे पता बतला दो, शायद मै उनकी कुछ सेवा कर सकूँ।
-- प्रेमचालीसा' से

प्रेम-सूत्र

संसार में कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं जिन्हें दूसरों के मुख से अपनी स्त्री की सौंदर्य-प्रशंसा सुनकर उतना ही आनन्द होता है जितनी अपनी कीर्ति की चर्चा सुनकर। पश्चिमी सभ्यता के प्रसार के साथ ऐसे प्राणियों की संख्या बढ़ती जा रही है। पशुपतिनाथ वर्मा इन्हीं लोगों में थ। जब लोग उनकी परम सुन्दरी स्त्री की तारीफ करते हुए कहते—ओहो! कितनी अनुपम रूप-राशि है, कितनी अलौकिक सौन्दर्य है, तब वर्माजी मारे खुशी और गर्व के फूल उठते थे।
संध्या का समय था। मोटर तैयार खड़ी थी। वर्माजी सैर करने जा रहे थे, किन्तु प्रभा जाने को उत्सुक नहीं मालूम होती थी। वह एक कुर्सी पर बैठी हुई कोई उपन्यास पढ़ रही थी।
वर्मा जी ने कहा—तुम तो अभी तक बैठी पढ़ रही हो।
'मेरा तो इस समय जाने को जी नहीं चाहता।'
'नहीं प्रिये, इस समय तुम्हारा न चलना सितम हो जाएगा। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी इस मधुर छवि को घर से बाहर भी तो लोग देखें।'
'जी नहीं, मुझे यह लालसा नहीं है। मेरे रूप की शोभा केवल तुम्हारे लिए है और तुम्हीं को दिखाना चाहती हूं।'
'नहीं, मैं इतना स्वार्थान्ध नहीं हूं। जब तुम सैर करने निकलो, मैं लोगों से यह सुनना चाहता हूं कि कितनी मनोहर छवि है! पशुपति कितना भाग्यशाली पुरुष है!'
'तुम चाहो, मैं नहीं चाहती। तो इसी बात पर आज मैं कहीं नहीं जाऊंगी। तुम भी मत जाओ, हम दोनों अपने ही बाग में टहलेंगे। तुम हौज के किनारे हरी घास पर लेट जाना, मैं तुम्हें वीणा बजाकर सुनाऊंगी। तुम्हारे लिए फूलों का हार बनाऊंगी, चांदनी में तुम्हारे साथ आंख-मिचौनी खेलूंगी।'
'नहीं-नहीं, प्रभा, आज हमें अवश्य चलना पड़ेगा। तुम कृष्णा से आज मिलने का वादा कर आई हो। वह बैठी हमारा रास्ता देख रही होगी। हमारे न जाने से उसे कितना दु:ख होगा!'
हाय! वही कृष्णा! बार-बार वही कृष्णा! पति के मुख से नित्य यह नाम चिनगारी की भांति उड़कर प्रभा को जलाकर भस्म् कर देता था।
प्रभा को अब मालूम हुआ कि आज ये बाहर जाने के लिए क्यों इतने उत्सुक हैं! इसीलिए आज इन्होंने मुझसे केशों को संवारने के लिए इतना आग्रह किया था। वह सारी तैयारी उसी कुलटा कृष्णा से मिलने के लिए थी!
उसने दृढ़ स्वर में कहा—तुम्हें जाना हो जाओ, मैं न जाऊंगी।
वर्माजी ने कहा—अच्छी बात है, मैं ही चला जाऊंगा।



पशुपति के जाने के बाद प्रभा को ऐसा जान पड़ा कि वह बाटिका उसे काटने दौड़ रही है। ईर्ष्या की ज्वाला से उसका कोमल शरीर-हृदय भस्म होने लगा। वे वहां कृष्णा के साथ बैठे विहार कर रहे होंगे—उसी नांगिन के-से केशवाली कृष्णा के साथ, जिसकी आंखों में घातक विष भरा हुआ है! मर्दो की बुद्धि क्यों इतनी स्थूल होती है? इन्हें कृष्णा की चटक-मटक ने क्यों इतना मोहित कर लिया है? उसके मुख से मेरे पैर का तलवा कहीं सुन्दर है। हां, मैं एक बच्चे की मां हूं और वह नव यौवना है! जरा देखना चाहिए, उनमें क्या बातें हो रही हैं।
यह सोचकर वह अपनी सास के पास आकर बोली—अम्मा, इस समय अकेले जी घबराता है, चलिए कहीं घूम आवें।
सास बहू पर प्राण देती थी। चलने पर राजी हो गई। गाड़ी तैयार करा के दोनों घूमने चलीं। प्रभा का श्रृंगार देखकर भ्रम हो सकता था कि वह बहुत प्रसन्न है, किन्तु उसके अन्तस्तल में एक भीषण ज्वाला दहक रही थी, उसे छिपाने के लिए वह मीठे स्वर में एक गीत गाती जा रही थी।
गाड़ी एक सुरम्य उपवन में उड़ी जा रही थी। सड़के के दोनों ओर विशाल वृक्षों की सुखद छाया पड़ रही थी। गाड़ी के कीमती घोड़े गर्व से पूछं और सिर उठोय टप-टप करते जा रहे थे। अहा! वह सामने कृष्णा का बंगला आ गया, जिसके चारों ओर गुलाब की बेल लगी हुई थी। उसके फूल उस समय निर्दय कांटों की भांति प्रभा के हृदय में चुभने लगे। उसने उड़ती हुई निगाह से बंगले की ओर ताका। पशुपति का पता न था, हां कृष्णा और उसकी बहन माया बगीचे में विचर रही थीं। गाड़ी बंगले के सामने से निकल ही चुकी थी कि दोनों बहनों ने प्रभा को पुकारा और एक क्षण में दोनों बालिकाएं हिरनियों की भांति उछलती-कूदती फाटक की ओर दौड़ीं। गाड़ी रुक गई।
कृष्णा ने हंसकर सास से कहा—अम्मा जी, आज आप प्रभा को एकाध घण्टे के लिए हमारे पास छोड़ जाइए। आप इधर से लौटें तब इन्हें लेती जाइएगा, यह कहकर दोनों ने प्रभा को गाड़ी से बाहर खींच लिया। सास कैसे इन्कार करती। जब गाड़ी चली गई तब दोनों बहनों ने प्रभा को बगीचे में एक बेंच पर जा बिठाया। प्रभा को इन दोनों के साथ बातें करते हुए बड़ी झिझक हो रही थी। वह उनसे हंसकर बोलना चाहती थी, अपने किसी बात से मन का भाव प्रकट नहीं करना चाहती थी, किन्तु हृदय उनसे खिंचा ही रहा।
कृष्णा ने प्रभा की साड़ी पर एक तीव्र दृष्टि डालकर कहा—बहन, क्या यह साड़ी अभी ली है? इसका गुलाबी रंग तो तुम पर नहीं खिलता। कोई और रंग क्यों नहीं लिया?
प्रभा—उनकी पसन्द है, मैं क्या करती।
दोनों बहनें ठट्ठा मारकर हंस पड़ीं। फिर माया ने कहा—उन महाशय की रुचि का क्या कहना, सारी दुनिया से निराली है। अभी इधर से गये हैं। सिर पर इससे भी अधिक लाल पगड़ी थी।
सहसा पशुपति भी सैर से निकलता हुआ सामने से निकला। प्रभा को दोनों बहनों के साथ देखकर उसके जी में आया कि मोटर रोक ले। वह अकेले इन दोनों से मिलना शिष्टाचार के विरूद्ध समझता था। इसीलिए वह प्रभा को अपने साथ लाना चाहता था। जाते समय वह बहुत साहस करने पर भी मोटर से न उतर सका। प्रभा को वहां देखकर इस सुअवार से लाभ उठाने की उसकी बड़ी इच्छा हुई। लेकिन दोनों बहनों की हास्य ध्वनि सुनकर वह संकोचवश न उतरा।
थोड़ी देर तक तीनों रमणियां चुपचाप बैठी रहीं। तब कृष्णा बोली—पशुपति बाबू यहां आना चाहते हैं पर शर्म के मारे नहीं आये। मेरा विचार है कि संबंधियों को आपस में इतना संकोच न करना चाहिए। समाज का यह निमय कम से कम मुझे तो बुरा मालूम होता है। तुम्हारा क्या विचार है, प्रभा?
प्रभा ने व्यंग्य भाव से कहा—यह समाज का अन्याय है?
प्रभा इस समय भूमि की ओर ताक रही थी। पर उसकी आंखों से ऐसा तिरसकार निकल रहा था जिसने दोनों बहनों के परिहास को लज्जा-सूचक मौन में परिणत कर दिया। उसकी आंखों से एक चिनगारी-सी निकली, जिसने दोनों युवतियों के आमोद-प्रमोछ और उस कुवृत्ति को जला डाला जो प्रभा के पति-परायण हृदय को बाणों से वेध रही थी, उस हृदय को जिसमें अपने पति के सिवा और किसी को जगह न थी।
माया ने जब देखा कि प्रभा इस वक्त क्रोध से भरी बैठी है, तब बेंच से उठ खड़ी हुई और बोली—आओ बहन, जरा टहलें, यहां बैठे रहने से तो टहलना ही अच्छा है।
प्रभा ज्यों की त्यों बैठी रही। पर वे दोनों बहने बाग मे टहलने लगीं। उस वक्त प्रभा का ध्यान उन दोनों के वस्त्राभूषण की ओर गया। माया बंगाल की गुलाबी रेशमी की एक महीन साड़ी पहने हुए थी जिसमें न जाने कितने चुन्नटें पड़ी हुई थीं। उसके हाथ में एक रेशमी छतरी थी जिसे उसने सूर्य की अमित किरणों से बचने के लिए खोल लिया था। कृष्णा के वस्त्र भी वैसे ही थे। हां, उसकी साड़ी पीले रंग की थी और उसके घूंघर वाले बाल साड़ी के नीचे से निकल कर माथे और गालों पर लहरा रहे थे।
प्रभा ने एक ही निगाह से ताड़ लिया कि इन दोनों युवतियों में किसी को उसके पति से प्रेम नहीं है। केवल आमोद लिप्सा के वशीभूत होकर यह स्वयं बदनाम होंगी और उसके सरल हृदय पति को भी बदनाम कर देंगी। उसने ठान लिया कि मैं अपने भ्रमर को इन विषाक्त पुष्पों से बचाऊंगी और चाहे जो कुछ हो उसे इनके ऊपर मंडराने न दूंगी, क्योंकि यहां केवल रूप और बास है, रस का नाम नहीं।
प्रभा अपने घर लौटते ही उस कमरे में गई, उसकी लड़की शान्ति अपनी दाई की गोद में खेल रही थी। अपनी नन्हीं जीती-जागती गुड़िया की सूरत देखते ही प्रभा की आंखें सजल हो गई। उसने मातृस्नेह से विभोर होकर बालिका को गोद में उठा लिया, मानो किसी भयंकर पशु से उसकी रक्षा कर रही है। उस दुस्सह वेदना की दशा में उसके मुंह से यह शब्द निकला गए-बच्ची, तेरे बाप को लोग तुझसे छीनना चाहते हैं! हाय, तू क्या अनाथ हो जाएगी? नहीं-नहीं, अगर मेरा, बस चलेगा तो मैं इन निर्बल हाथों से उन्हें बचाऊंगी।
आज से प्रभा विषादमय भावनाओं में मग्न रहने लगी। आने वाली विपत्ति की कल्पना करके कभी-कभी भयातुर होकर चिल्ला पड़ती, उसकी आंखों में उस विपत्ति की तस्वीर खींच जाती जो उसकी ओर कदम बढ़ाये चली आती थी, पर उस बालिका की तोतली बातें और उसकी आंखों की नि:शंक ज्योति प्रभा के विकल हृदय को शान्त कर देती। वह लड़की को गोद में उठा लेती और वह मधुर हास्य-छवि जो बालिका के पतले-पतले गुलाबी ओठों पर खेलती होती, प्रभा की सारी शंकाओं और बाधाओं को छिन्न-भिन्न कर देती। उन विश्वासमय नेत्रों में आशा का प्रकाश उसे आश्वस्त कर देता।
हां! अभागिनी प्रभा, तू क्या जानती है क्या होनेवाला है?



ग्रीष्मकाल की चांदनी रात थी। सप्तमी का चांद प्रकृति पर अपना मन्द शीतल प्रकाश डाल रहा था। पशुपति मौलसिरी की एक डाली हाथ से पकड़े और तने से चिपटा हुआ माया के कमरे की ओर टकटकी लगाये ताक रहा था कमरे का द्वार खुला हुआ था और शान्त निशा में रेशमी साड़ियों की सरसराहट के साथ दो रमणियों की मधुर हास्य-ध्वनि मिलकर पशुपति के कानों तक पहुंचते-पहुंचते आकाश में विलीन हो जाती थी। एकाएक दोनों बहनें कमरे से निकलीं और उसी ओर चलीं जहां पशुपति खड़ा था। जब दोनों उस वृक्ष के पास पहुंची तब पशुपति की परछाईं देखकर कृष्णा चौंक पड़ी और बोली—है बहन! यह क्या है?
पशुपति वृक्ष के नीचे से आकर सामने खड़ा हो गया। कृष्णा उन्हें पहचान गई और कठोर स्वर में बोली—आप यहां क्या करते हैं? बतलाइए, यहां आपका क्या काम है? बोलिए, जल्दी।
पशुपति की सिट्टभ्-पिट्टी गुम हो गई। इस अवसर के लिए उसने जो प्रेम-वाक्य रटे थे वे सब विस्मृत हो गये। सशंक होकर बोला—कुछ नहीं प्रिय, आज सन्ध्या समय जब मैं आपके मकान के सामने से आ रहा था तब मैंने आपको अपनी बहन से कहते सुना कि आज रात को आप इस वृक्ष के नीचे बैठकर चांदनी का आनन्द उठाएंगी। मैं भी आपसे कुछ कहने के लिए....आपके चरणों पर अपना...समर्पित करने के लिए...
यह सुनते ही कृष्णा की आंखों से चंचल ज्वाला-सी निकली और उसके ओठों पर व्यंग्यपूर्ण हास्य की झलक दिखाई दी। बोली—महाशय, आप तो आज एक विचित्र अभिनय करने लगे, कृपा करके पैरों पर से उठिए और जो कुछ कहना चाहते हों, जल्द कह डालिए और जितने आंसू गिराने हों एक सेकेण्ड में गिरा दीजिए, मैं रुक-रुककर और घिघिया-घिघियाकर बातें करनेवालों को पसन्द नहीं करती। हां, और जरा बातें और रोना साथ-साथ न हों। कहिए क्या कहना चाहते हैं....आप न कहेंगे? लीजिए समय बीत गया, मैं जाती हूं।
कृष्णा वहां से चल दी। माया भी उसके साथ ही चली गई। पशुपति एक क्षण तक वहां खड़ा रहा फिर वह भी उनके पीछे-पीछे चला। मानो वह सुई है जो चुम्बक के आकर्षण से आप ही आप खिंचा चला जाता है।
सहसा कृष्णा रुक गई और बोली—सुनिए पशुपति बाबू, आज संध्या समय प्रभा की बातों से मालूम हो गया कि उन्हें आपका और मेरा मिलना-जुलना बिल्कुल नहीं भाता...
पशुपति—प्रभा की तो आप चर्चा ही छोड़ दीजिए।
कृष्णा—क्यों छोड़ दूं? क्या वह आपकी स्त्री नहीं है? आप इस समय उसे घर में अकेली छोड़कर मुझसे क्या कहने के लिए आये हैं? यही कि उसकी चर्चा न करूं?
पशुपति—जी नहीं, यह कहने के लिए कि अब वह विरहाग्नि नहीं सही जाती।
कृष्णा ने ठठ्टा मारकर कहा—आप तो इस कला में बहुत निपुण जान पड़ते हैं। प्रेम! समर्पण! विरहाग्नि! यह शब्द आपने कहां सीखे!
पशुपति—कृष्णा, मुझे तुमसे इतना प्रेम है कि मैं पागल हो गया हूं।
कृष्णा—तुम्हें प्रभा से क्यों प्रेम नहीं है?
पशुपति—मैं तो तुम्हारा उपासक हूं।
कृष्णा—लेकिन यह क्यों भूल जाते हो कि तुम प्रभा के स्वामी हो?
पशुपति—तुम्हारा तो दास हूं।
कृष्णा—मैं ऐसी बातें नहीं सुनना चाहती।
पशुपति—तुम्हें मेरी एक-एक बात सुननी पड़ेगी। तुम जो चाहो वह करने को मैं तैयार हूं।
कृष्णा—अगर यह बातें कहीं वह सुन लें तो?
पशुपति—सुन ले तो सुन ले। मैं हर बात के लिए तैयार हूं। मैं फिर कहता हूं, कि अगर तुम्हारी मुझ पर कृपादृष्टि न हुई तो मैं मर जाऊंगा।
कृष्णा—तुम्हें यह बात करते समय अपनी पत्नी का ध्यान नहीं आता?
पशुपति—मैं उसका पति नहीं होना चाहता। मैं तो तुम्हारा दास होने के लिए बनाया गया हूं। वह सुगन्ध जो इस समय तुम्हारी गुलाबी साड़ी से निकल रही है, मेरी जान है। तुम्हारे ये छोटे-छोटे पांव मेरे प्राण हैं। तुम्हारी हंसी, तुम्हारी छवि, तुम्हारा एक-एक अंग मेरे प्राण हैं। मैं केवल तुम्हारे लिए पैदा हुआ हूं।
कृष्णा—भई, अब तो सुनते-सुनते कान भर गए। यह व्याख्यान और यह गद्य-काव्य सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है। आओ माया, मुझे तो सर्दी लग रही है। चलकर अन्दर बैठे।
यह निष्ठुर शब्द सुनकर पशुपति की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। मगर अब भी उसका मन यही चाहता था कि कृष्णा के पैरों पर गिर पड़े और इससे भी करुण शब्दों में अपने प्रेम-कथा सुनाए। किन्तु दोनों बहनें इतनी देर में अपने कमरे में पहुंच चुकी थीं और द्वार बन्द कर लिया था। पशुपति के लिए निराश घर लौट आने के सिवा कोई चारा न रह गया।
कृष्णा अपने कमरे में जाकर थकी हुई-सी एक कुर्सी पर बैठ गई और सोचने लगी—कहीं प्रभा सुन ले तो बात का बतंगड़ हो जाय, सारे शहर में इसकी चर्चा होने लगे और हमें कहीं मुंह दिखाने को जगह न रहे। और यह सब एक जरा-सी दिल्लगी के कारण पर पशुपति का प्रम सच्चा हें, इसमें सन्देह नहीं। वह जो कुछ कहता है, अन्त:करण से कहता है। अगर में इस वक्त जरा-सा संकेत कर दूँ तो वह प्रभा को भी छोड़ देगा। अपने आपे में नहीं है। जो कुछ कहूँ वह करने को तैयार है। लेकिन नहीं, प्रभा डरो मत, मै। तुम्हारा सर्वनाश न करुँगी। तुम मुझसे बहुत नीचे हों यह मेरे अनुपम सौन्दर्य के लिए गौरव की बात नहीं कि तुम जैसी रुप-विहीना से बाजी मार ले जाऊं। अभागे पशुपति, तुम्हारे भाग्य में जो कुछ लिखा था वह हो चुका। तुम्हारे ऊपर मुझे दया आती है, पर क्या किया जाय।



एक खत पहले हाथ पड़ चुका था। यह दूसरा पत्र था, जो प्रभा को पतिदेव के कोट की जेब में मिला। कैसा पत्र था आह इसे पढ़ते ही प्रभा की देह में एक ज्वाला-सी उठने लगी। तो यों कहिए कि ये अब कृष्णा के दो चुके अब इसमें कोई सन्देह नहीं रहा। अब मेरे जीने को धिक्कार है जब जीवन में कोई सुख ही नहीं रहा, तो क्यों न इस बोझ को उतार कर फेक दूँ। वही पशुपति, जिसे कविता से लेशमात्र भी रुचि न थी, अब कवि हो गया था और कृष्णा को छन्दों में पत्र लिखता था। प्रभा ने अपने स्वामी को उधर से हटाने के लिए वह सब कुछ किया जो उससे हो सकता था, पर प्रेम का प्रवाह उसके रोके न रुका और आज उस प्रवाह तके उसके जीवन की नौका निराधार वही चली जा रही है।
इसमें सन्देह नहीं कि प्रभा को अपने पति से सच्चा प्रेम था, लेकिन आत्मसमर्पण की तुष्टी आत्मसमर्पण से ही होती है। वह उपेक्षा और निष्ठुरता को सहन नही कर सकता। प्रभा के मन के विद्रोह का भाव जाग्रत होने लगा। उसके आत्माभिमान जाता रहा। उसके मन मे न जाने कितने भीषण संकल्प होते, किन्तु अपनी असमर्थता और दीनता पर आप ही आप रोने लगती। आह! उसका सर्वस्व उससे छीन लिया गया और अब संसार मे उसका कोई मित्र नहीं, कोई साथी नही!
पशुपति आजकल नित्य बनाव-सवार मे मग्न रहता, नित्य नये-नये सूट बदलता। उसे आइने के सामने अपने बालों को संवारते देखकर प्रभा की आखों से आंसू बहने लगते। सह सारी तैयारी उसी दुष्ट के लिए हो रही है। यह चिन्ता जहरीले सापं की भांति उसे डस लेती थी; वह अब अपने पति को प्रत्येक बात प्रत्येक गति को सूक्ष्म दृष्टि से देखती। कितनी ही बातें जिन पर वह पहले ध्यान भी न देती थी, अब रहस्य से भरी हुई जान पड़ती। वह रात का न सोती, कभी पशुपति की जेब टटोलती, कभी उसकी मेज पर रक्खें हुए पत्रों को पढ़ती! इसी टोह मे वह रात-दिन पड़ी रहती।
वह सोचने लगी—मै क्या प्रेम-वंचिता बनी बैठी रहूं? क्या मै प्राणेश्वरी नही बन सकती? क्या इसे परित्यक्ता बनकर ही काटना होगा! आह निर्दयी तूने मुझे धोखा दिया। मुझसे आंखें फेर ली। पर सबसे बड़ा अनर्थ यह किया कि मुझे जीरवन का कलुषित मार्ग दिखा दिया। मै भी विश्वासघात करके तुझे धोखा देकर क्या कलुषित प्रेम का आन्नद नही उठा सकती? अश्रुधारा से सीचंकर ही सही, पर क्या अपने लिए कोई बाटिका नही लगा सकती? वह सामने के मकान मे घुघंराले बालोंवाला युवक रहता है और जब मौका पाता है, मेरी ओर सचेष्ट नेत्रों से देखता । क्या केवल एक प्रेम-कटाक्ष से मै उसके हृदय पर अधिकार नहीं प्राप्त कर सकती? अगर मै इस भांति निष्ठुरता का बदला लूं तो क्या अनुचित होगा? आखिर मैने अपना जीवन अपने पति को किस लिए सौंपा था? इसीलिए तो कि सुख से जीवन व्यतीत करूँ। चाहूं और चाही जाऊं और इस प्रेम-साम्राज्य की अधीश्वर बनी रहूं। मगह आह! वे सारी अभिलाषाएं धूल मे मिल गई। अब मेरे लिए क्या रह गया है? आज यदि मै मर जाऊं तो कौन रोयेगा? नहीं, घी के चिराग जलाए जाएंगें। कृष्णा हंसकर कहेगी—अब बस हम है और तुम। हमारे बीच मे कोई बाधा, कोई कंटक नहीं है।
आखिर प्रभा इन कलुषित भावनाओं के प्रवाह मे बह चली। उसके हृदय में रातों को, निद्रा और आशविहीन रातों को बड़े प्रबल वेग से यह तूफान उठने लगा। प्रेम तो अब किसी अन्य पुरूष्ज्ञ के साथ कर सकती थी, यह व्यापार तो जीवन में केवल एक ही बार होता है। लेकिन वह प्राणेश्वरी अवश्य बन सकती थी और उसके लिए एक मधुर मुस्कान, एक बांकी निगाह काफी थी। और जब वह किसी की प्रेमिका हो जायेगी तो यह विचार कि मैने पति से उसकी बेवफाई का बदला ले लिया कितना आनन्दप्रद होगा! तब वह उसके मुख की ओर कितने गर्व, कितने संतोष, कितने उल्लास से देखेगी।
सन्ध्या का समय था। पशुपति सैर करने गया था। प्रभा कोठे पर चढ गई और सामने वाले मकान की ओर देखा। घुंघराले बोलोवाला युवक उसके कोठे की ओर ताक रहा था। प्रभा ने आज पहली बार उस युवक की ओर मुस्करा कर देखा। युवक भी मुस्कराया और अपनी गर्दन झुकाकर मानों यह संकेत किया कि आपकी प्रेम दृष्टि का भिखारी हूं। प्रभा ने गर्व से भरी हुई दृष्टि इधर-उधर दौड़ाई, मानों वह पशुपति सेकहना चाहती थी—तुम उस कुलटा केपैरो पड़ते हो और समझते हो कि मेरे हृदय को चोट नही लगती। लो तुम भी देखो और अपने हृदय पर चोट न लगने दो, तुम उसे प्यार करो, मै भी इससे हंसू-बोलू। क्यों? यह अच्छा नही लगता? इस दृश्य को शान्त चित से नही देख सकते? क्यों रक्त खौलने लगता है? मै वही तो कह रही हूं जो तुम कर रहे हो!
आह! यदि पशुपति को ज्ञात हो जाता कि मेरी निष्ठुरता ने इस सती के हृदय की कितनी कायापलट कर दी है तो क्या उसे अपने कृत्य पर पश्चाताप न होता, क्या वह अपने किये पर लज्जित न होता!
प्रभा ने उस युवक से इशारें मे कहा—आज हम और तुम पूर्व वाले मैदान में मिलेगें और कोठे के नीचे उतर आई।
प्रभा के हृदय मे इस समय एक वही उत्सुकता थी जिसमें प्रतिकार का आनन्द मिश्रित था। वह अपने कमरे मे जाकर अपने चुने हुए आभूषण पहनने लगी। एक क्षण मे वह एक फालसई रंग की रेशमी साड़ी पहने कमरे से निकली और बाहर जाना ही चाहती थी कि शान्ता ने पुकारा—अम्मा जी, आप कहां जा रहा है, मै भी आपके साथ चलूंगी।
प्रभा ने झट बालिका को गोद मे उठा लिया और उसेछाती से लगाते ही उसके विचारों ने पलटा खाया। उन बाल नेत्रों मे उसके प्रति कितना असीम विश्वास, कितना सरल स्नेह, कितना पवित्र प्रेम झलक रहा था। उसे उस समय माता का कर्त्तव्य याद आया। क्या उसकी प्रेमाकांक्षा उसके वात्सल्य भाव को कुचल देगीं? क्या वह प्रतिकार की प्रबल इच्छा पर अपने मातृ-कर्त्तव्य को बलिदान कर देगी? क्या वह अपने क्षणिक सुख के लिए उस बालिका का भविष्य, उसका जीवन धूल में मिला देगी? प्रभा कीआखों से आसूं की दो बूंदूं गिर पड़ी। उसने कहा—नही, कदापि नहीं, मै अपनी प्यारी बच्ची के लिए सब कुछ सह सकती हूं।



एक महीना गुजर गया। प्रभा अपनी चिन्ताओं को भूल जाने की चेष्टा करती रहती थी, पर पशुपति नित्य किसी न किसी बहने से कॄष्णा की चर्चा किया करता। कभी-कभी हंसकर कहता—प्रभा, अगर तुम्हारी अनुमति हो तो मै कृष्णा से विवाह कर लूं। प्रभा इसके जवाब मे रोने के सिवा और क्या कर सकती थी?
आखिर एक दिन पशुपति ने उसे विनयपूर्ण शब्दों में कहा-कहा कहूं प्रभा, उस रमणी की छवि मेरी आंखों से नही उतरती। उसने मुझे कहीं का नही रक्खा। यह कहकरउसने कई बार अपना माथा ठोका। प्रभा का हृदय करूणा से द्रवित हो गया। उसकी दशा उस रोगी की-सी-थी जो यह जानता हो कि मौत उसके सिर परखेल रही हैं, फिर भी उसकी जीवन-लालसा दिन-दिन बढती जाती हो। प्रभा इन सारी बातो पर भी अपने पति से प्रेम करती थी और स्त्री-सुलभ स्वभाव के अनुसार कोई बहाना खोजती थी कि उसके अपराधों को भूल जाय और उसे क्षमाकर दे।
एक दिन पशुपति बड़ी रात गये घर आया और रात-भर नींद मे 'कृष्णा! कृष्णा!' कहकर बर्राता रहा। प्रभा ने अपने प्रियतम का यह आर्तनाद सुना और सारी रात चुपके-चुपके रोया की…बस रोया की!
प्रात: काल वह पशुपति के लिए दुध का प्याला लिये खड़ी थी कि वह उसके पैरा पर गिर पड़ा और बोला—प्रभा, मेरी तुमसे एक विनय है, तुम्ही मेरी रक्षा कर सकती हो, नहीं मै मर जाऊंगा। मै जनता हूं कि यह सुनकर तुम्हें बहुत कष्टहोगा, लेकिन मुझ पर दया करों। मै तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझ पर दया करो।
प्रभा कांपने लगी। पशुपति क्या कहना चाहता है, यह उसका दिल साफ बता रहा था। फिर भी वह भयभीत होकर पीछे हट गई और दूध का प्याला मेज पर रखकर अपने पीले मुख को कांपतेहुए हाथों सेछिपा लिया। पशुपति ने फिर भी सब कुछ ही कह डाला। लालसाग्नि अब अंदर न रह सकती थी, उसकीज्वाला बाहर निकल ही पड़ी। तात्पर्य यह था कि पशुपति ने कृष्णा के साथ विवाह करना निश्चय कर लिया था। वह से दूसरे घर मे रक्खेगा और प्रभा के यहां दो रात और एक रात उसके यहां रहेगा।
ये बातें सुनकर प्रभा रोई नहीं, वरन स्तम्भित होकर खड़ी रह गई। उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसके गले मे कोई चीज अटकी हुई है और वह सांस नही ले सकती।
पशुपति ने फिर कहा—प्रभा, तुम नही जानती कि जितना प्रेम तुमसे मुझे आज है उतना पहले कभी नही था। मै तुमसे अलग नही हो सकता। मै जीवन-पर्यन्त तुम्हे इसी भांति प्यार करता रहूंगा। पर कृष्णा मुझे मार डालेगी। केवल तुम्ही मेर रक्षा कर सकती हो। मुझे उसके हाथ मत छोड़ों, प्रिये!
अभागिनी प्रभा! तुझसे पूछ-पूछ कर तेरी गर्दन पर छुरी चलाई जा रही है! तू गर्दन झुका देगी यच आत्मगौरव से सिर उठाकर कहेगी—मै यह नीच प्रस्ताव नही सुन सकती।
प्रभा ने इन बातों मे एक भी न की। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब होश आया, कहने लगी—बहुत अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा! लेकिनद मुझे छोड़ दों, मै अपनी मां के घर जाऊंगी, मेरी शान्ता मुझे दे दों।
यह कहकर वह रोती हुई वहां से शांता को लेने चली गई और उसे गोद में लेकर कमरे से बाहर निकली। पशुपति लज्जा और ग्लानि से सिर झुकायें उसके पीछे-पीछे आता रहा और कहता रहा—जैसी तुम्हारी इच्छा हो प्रभा, वह करो, और मै क्या कहूं, किंतु मेरी प्यारी प्रभा, वादा करों कि तुम मुझे क्षमा कर दोगी। किन्तु प्रभा ने उसको कुछ जवाब न दियय और बराबर द्वार की ओर चलती रही। तब पशुपति ने आगे बढ़कर उसेपकड लिया और उसके मुरझाये हुए पर अश्रु-सिचिंत कपोलों को चूम-चूमकर कहने लगा—प्रिये, मुझे भूल न जाना, तुम्हारी याद मेरे हृदय मे सदैव बनी रहेगी। अपनी अंगूठी मुझे देती जाओ, मै उसे तुम्हारी निशानी समझ कर रक्खूगां और उसे हृदय से लगाकर इस दाह को शीतल करूंगा। ईश्वर के लिएप्रभा, मुझे छोड़ना मत, मुझसे नाराज न होना…एक सप्ताह के लिए अपनी माता केपास जाकर रहो। फिर मै तुम्हें जाकर लाऊंगा।
प्रभा ने पंशुपति के कर-पाश से अपने को छुड़ा लिया और अपनी लड़की का हाथ पकड़े हुए गाड़ी की ओर चली। उसने पशुपति को न कोई उत्तर दिया और न यह सुना कि वह क्या कर रहा है।



अम्मां, आप क्यों हंस रही है?
'कुछ तो नहीं बेटी।'
'वह पीले-पीले पुराने कागज तुम्हारे हाथ में क्या हैं?'
'ये उस ऋण के पुर्जे हैं जो वापस नही मिला।'
'ये तो पुराने खत मालूम होते है?'
'नही बेटी।'
बात यह थी कि प्रभा अपनी चौदह वर्ष की युवती पुत्री के सामने सत्य का पर्दा नही खोलना चाहती थी। हां, वे कागज वास्तव मे एक ऐसे कर्ज के पुर्जे थे जो वापस नही मिला। ये वही पुरानें पत्र थे जो आज एक किताब मे रक्खें हुए मिले थे और ऐसे फूल की पशुड़ियां की भांति दिखाई देते थे जिनका रंग और गंध किताब मे रक्खें-रक्खें उड़ गई हो, तथापि वे सुख के दिनों को याद दिला रहे थे और इस कारण प्रभा की दूष्टि मे वे बहुमूल्य थे।
शांता समझ गई कि अम्मा कोई ऐसा काम कर रही है जिसकी खबर मुझे नही करना चाहती और इस बात से प्रसन्न होकर कि मेरी दुखी माता आज अपना शोक भूल गई है और जितनी देर तक वह इस आनन्द मे मग्न रहे उतना ही अच्छा है, एक बहाने से बाहर चली गई। प्रभा जब कमरे मे अकेली रह गई तब उसने पत्रों का फिर पढ़ना शुरू किया।
आह! इन चौदह वर्षो मे क्या कुछ नही हो गया! इस समय उस विरहणी के हृदय मे कितनी ही पूर्व स्मृतियॉँ जग्रत हो गई, जिन्होने हर्ष और शोक के स्रोत एक साथ ही खोल दिए।
प्रभा के चले जाने के बाद पशुपति ने बहुत चाहा कि कृष्णा से उसका विवाह हो जाय पर वह राजी न हुई। इसी नैराश्य और क्रोध की दशा मे पशुपति एक कम्पनी का एजेण्ट होकर योरोप चला गया। तब फिर उसे प्रभा की याद आई। कुछदिनों तक उसके पास से क्षमाप्रार्थना-पूर्ण पत्र आते रहे, जिनमें वह बहुत जल्द घर आकर प्रभासे मिलने के वादे करता रहा औ प्रेम के इस नये प्रवाह में पुरानी कटुताओ कों जलमग्न कर देने के आशामय स्वप्न देखता रहा। पति-परायणा प्रभा के संतप्त हृदय मे फिर आशा की हरियाली लहराने लगी, मुरझाई हुई आशा-लताएं फिर पल्लवित होने लगी! किन्तु यह भी भाग्य की एक क्रीड़ा ही थी। थोड़े ही दिनों मे रसिक पशुपति एक नये प्रेम-जाल मे फंस गया और तब से उसके पत्र आने बन्द हो गये। इस वक्त प्रभा के हाथ मे वही पत्र थे जो उसके पति ने यारोप से उस समय भेजे थे जब नैराश्य का घाव हरा था। कितनी चिकनी-चुपडी बातें थी। कैसे-कैसे दिल खुश करने वाले वादे थे! इसके बाद ही मालूम हुआ कि पशुपति ने एक अंग्रेज लड़की से विवाह कर लिया है। प्रभा पर वज्र-सा गिर पड़ा—उसके हृदय के टुकड़े हो गये—सारी आशाओं पर पानी फिर गय। उसका निर्बल शरीर इस आघात का सहन न कर सका। उसे ज्वर आने लगा। और किसी को उसके जीवन की आशा न रही। वह स्वयं मृत्यु की अभिलाषिणी थी और मालूम भी होता था कि मौत किसी सर्प की भांति उसकी देह से लिपट गई है। लेकिन बुलने से मौत भी नही आती। ज्वर शान्त हो गया और प्रभा फिर वही आशाविह विहीन जीवन व्यतीत करने लगी।



एक दिन प्रभा ने सुना कि पशुपति योरोप से लौट आया है और वह योरोपीय स्त्री उसके साथ नही है। बल्कि उसके लौटने क कारण वही स्त्री हुई है। वह औरत बारह साल तक उसकी सहयोगिनी रही पर एक दिन एक अंग्रेज युवक के साथ भाग गई। इस भीषण और अत्यन्त कठोर आघात ने पशुपति की कमर तोड़ दी। वह नौकरी छोड़कर घर चला आया। अब उसकी सूरत इतनी बदल गई थी उसके मित्र लोग उससे बाजार मे मिलते तो उसे पहचान न सकते थे—मालूम होता था, कोई बूढ़ा कमर झुकाये चला जाता है। उसके बाल तक सफेद हो गये।
घर आकर पशुपति ने एक दिन शान्ता को बुला भेजा। इस तरह शांता उसके घर आने-जाने लगी। वह अपने पिता की दशा देखकर मन ही मन कुढ़ती थी।
इसी बीच मे शान्ता के विवाह के सन्देश आने लगे, लेकिन प्रभा को अपने वैवाहिक जीवन मे जो अनुभव हुआ था वह उसे इन सन्देशों को लौटने पर मजबूर करता था। वह सोचती, कहीं इस लडकी की भी वही गति न हो जो मेरी हुई हैं। उसे ऐसा मालूम होता था कि यदि शान्त का विवाह हो गया तो इस अन्तिम अवस्था मे भी मुझे चैन न मिलेगा और मरने के बाद भी मै पुत्री का शोक लेकर जाऊंगी। लेकिन अन्त मे एक ऐसे अच्छे घराने से सन्देश आया कि प्रभा उसे नाही न कर सकी। घर बहुत ही सम्पन्न् था, वर भी बहुत ही सुयोग्य। प्रभा को स्वीकार ही करना पड़ेगा। लेकिन पिता की अनुमति भी आवश्यक थी। प्रभा ने इस विषय मेपशुपति को एक पत्र लिखा और शान्ता के ही हाथ् भेज दिया। जब शान्ता पत्र लेकर चली गई तब प्रभा भोजन बनाने चली गई। भाति-भांति की अमंगल कल्पनाएं उसके मन मे आने लगी और चूल्हे से निकलते धुएं मे उसे एक चित्र-सा दिखाई दिया कि शान्ता के पतले-पतले होंठ सूखे हूए है और वह कांप रही है और जिस तरह प्रभा पतिगृह से आकर माता की गोद मे गिर गई थी उसी तर शान्ता भी आकर माता की गोद मे गिर पड़ी है।



पशुपति ने प्रभा का पत्र पढ़ा तो उसे चुप-सी लग गई। उसने अपना सिगरेट जलाया और जोर-जोर कश खीचनें लगा।
फिर वह उठ खड़ा हुआ और कमरे मे टहलने लगा। कभी मूंछों को दांतों से काटता की खिचड़ी दाढ़ी को नीचे की ओर खींचता।
सहसा वह शान्ता के पास आकर खड़ा हो गया और कांपते हुए स्वर मे बोला—बेटी जिस घर को तेरी मां स्वीकार करती हो उसे मै कैसे नाही कर सकता हूं। उन्होने बहुत सोच-समझकर हामी भरी होगी। ईश्वर करे तुम सदा सौभागय्वती रहों। मुझे दुख है तो इतना ही कि जब तू अपने घर चली जायेगी तब तेरी माता अकेली रह जायगी। कोई उसके आंसू पोंछने वाला न रहेगा। कोई ऐसा उपाय सोच कि तेरी माता का क्लेश दूर हो और मै भी इस तरह मारा-मारा न फिरूं। ऐसा उपाय तू ही निकाल सकती है। सम्भव है लज्जा और संकोच के कारण मै अपने हृदय की बात तुझसे कभी न कह सकता, लेकिन अब तू जा रही है और मुझे संकोच का त्याग करने के सिवा कोई उपाय नही है। तेरी मां तुझे प्यार करती है और तेरा अनुरोध कभी न टालेगी। मेरी दशा जो तू अपनी आंखों से देश रही है यही उनसे कह देना। जा, तेरा सौभाग्य अमर हो।
शान्ता रोती हुई पिता की छाती से लिपट गई और यह समय से पहले बूढ़ा हो जाने वाला मनुष्य अपनी दुर्वासनाओं का दण्ड भोगने के बाद पश्चाताप और ग्लानि के आंसू बहा-बहाकर शान्ता क केशराशि को भिगोने लगा।
पतिपरायणा प्रभा क्या शान्ता का अनुरोध टाल सकती थी? इस प्रेम-सूत्र ने दोनों भग्न-हृदय को सदैव के लिए मिला दिया।

—'सरस्वती' जनवरी, १९२६

निर्वासन

परशुराम –वहीं—वहीं दालान में ठहरो!
मर्यादा—क्यों, क्या मुझमें कुछ छूत लग गई!
परशुराम—पहले यह बताओं तुम इतने दिनों से कहां रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहां किसके साथ आयीं? तब, तब विचार...देखी जाएगी।
मर्यादा—क्या इन बातों को पूछने का यही वक्त है; फिर अवसर न मिलेगा?
परशुराम—हां, यही बात है। तुम स्नान करके नदी से तो मेरे साथ ही निकली थीं। मेरे पीछे-पीछे कुछ देर तक आयीं भी; मै पीछे फिर-फिर कर तुम्हें देखता जाता था,फिर एकाएक तुम कहां गायब हो गयीं?
मर्यादा – तुमने देखा नहीं, नागा साधुओं का एक दल सामने से आ गया। सब आदमी इधर-उधर दौड़ने लगे। मै भी धक्के में पड़कर जाने किधर चली गई। जरा भीड़ कम हुई तो तुम्हें ढूंढ़ने लगी। बासू का नाम ले-ले कर पुकारने लगी, पर तुम न दिखाई दिये।
परशुराम – अच्छा तब?
मर्यादा—तब मै एक किनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सूझ ही न पड़ता कि कहां जाऊं, किससे कहूं, आदमियों से डर लगता था। संध्या तक वहीं बैठी रोती रही।ै
परशुराम—इतना तूल क्यों देती हो? वहां से फिर कहां गयीं?
मर्यादा—संध्या को एक युवक ने आ कर मुझसे पूछा, तुम्हारेक घर के लोग कहीं खो तो नहीं गए है? मैने कहा—हां। तब उसने तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना पूछा। उसने सब एक किताब पर लिख लिया और मुझसे बोला—मेरे साथ आओ, मै तुम्हें तुम्हारे घर भेज दूंगा।
परशुराम—वह आदमी कौन था?
मर्यादा—वहां की सेवा-समिति का स्वयंसेवक था।
परशुराम –तो तुम उसके साथ हो लीं?
मर्यादा—और क्या करती? वह मुझे समिति के कार्यलय में ले गया। वहां एक शामियाने में एक लम्बी दाढ़ीवाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। वही उन सेवकों का अध्यक्ष था। और भी कितने ही सेवक वहां खड़े थे। उसने मेरा पता-ठिकाना रजिस्टर में लिखकर मुझे एक अलग शामियाने में भेज दिया, जहां और भी कितनी खोयी हुई स्त्रियों बैठी हुई थीं।
परशुराम—तुमने उसी वक्त अध्यक्ष से क्यों न कहा कि मुझे पहुंचा दीजिए?
पर्यादा—मैने एक बार नहीं सैकड़ो बार कहा; लेकिन वह यह कहते रहे, जब तक मेला न खत्म हो जाए और सब खोयी हुई स्त्रियां एकत्र न हो जाएं, मैं भेजने का प्रबन्ध नहीं कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी हैं, न इतना धन?
परशुराम—धन की तुम्हे क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच देती तो काफी रूपए मिल जाते।
मर्यादा—आदमी तो नहीं थे।
परशुराम—तुमने यह कहा था कि खर्च की कुछ चिन्ता न कीजिए, मैं अपने गहने बेचकर अदा कर दूंगी?
मर्यादा—सब स्त्रियां कहने लगीं, घबरायी क्यों जाती हो? यहां किस बात का डर है। हम सभी जल्द अपने घर पहुंचना चाहती है; मगर क्या करें? तब मैं भी चुप हो रही।
परशुराम – और सब स्त्रियां कुएं में गिर पड़ती तो तुम भी गिर पड़ती?
मर्यादा—जानती तो थी कि यह लोग धर्म के नाते मेरी रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकरी या मजूर नहीं हैं, फिर आग्रह किस मुंह से करती? यह बात भी है कि बहुत-सी स्त्रियों को वहां देखकर मुझे कुछ तसल्ली हो गईग् परशुराम—हां, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात हो सकती थी? अच्छा, वहां के दिन तस्कीन का आनन्द उठाती रही? मेला तो दूसरे ही दिन उठ गया होगा?
मर्यादा—रात- भर मैं स्त्रियों के साथ उसी शामियाने में रही।
परशुराम—अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न दिलवा दिया?
मर्यादा—मैंने समझा, जब यह लोग पहुंचाने की कहते ही हैं तो तार क्यों दूं?
परशुराम—खैर, रात को तुम वहीं रही। युवक बार-बार भीतर आते रहे होंगे?
मर्यादा—केवल एक बार एक सेवक भोजन के लिए पूछने आयास था, जब हम सबों ने खाने से इन्कार कर दिया तो वह चला गया और फिर कोई न आया। मैं रात-भर जगती रही।
परशुराम—यह मैं कभी न मानूंगा कि इतने युवक वहां थे और कोई अन्दर न गया होगा। समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होत। खैर, वह दाढ़ी वाला अध्यक्ष तो जरूर ही देखभाल करने गया होगा?
मर्यादा—हां, वह आते थे। पर द्वार पर से पूछ-पूछ कर लौट जाते थे। हां, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो-तीन बार दवाएं पिलाने आए थे।
परशुराम—निकली न वही बात!मै इन धूर्तों की नस-नस पहचानता हूं। विशेषकर तिलक-मालाधारी दढ़ियलों को मैं गुरू घंटाल ही समझता हूं। तो वे महाशय कई बार दवाई देने गये? क्यों तुम्हारे पेट में तो दर्द नहीं होने लगा था.?
मर्यादा—तुम एक साधु पुरूष पर आक्षेप कर रहे हो। वह बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दूसरे आंखे नीची किए रहने के सिवाय कभी किसी पर सीधी निगाह नहीं करते थे।
परशुराम—हां, वहां सब देवता ही देवता जमा थे। खैर, तुम रात-भर वहां रहीं। दूसरे दिन क्या हुआ?
मर्यादा—दूसरे दिन भी वहीं रही। एक स्वयंसेवक हम सब स्त्रियों को साथ में लेकर मुख्य-मुख्य पवित्र स्थानो का दर्शन कराने गया। दो पहर को लौट कर सबों ने भोजन किया।
परशुराम—तो वहां तुमने सैर-सपाटा भी खूब किया, कोई कष्ट न होने पाया। भोजन के बाद गाना-बजाना हुआ होगा?
मर्यादा—गाना बजाना तो नहीं, हां, सब अपना-अपना दुखड़ा रोती रहीं, शाम तक मेला उठ गया तो दो सेवक हम लोगों को ले कर स्टेशन पर आए।
परशुराम—मगर तुम तो आज सातवें दिन आ रही हो और वह भी अकेली?
मर्यादा—स्टेशन पर एक दुर्घटना हो गयी।
परशुराम—हां, यह तो मैं समझ ही रहा था। क्या दुर्घटना हुई?
मर्यादा—जब सेवक टिकट लेने जा रहा था, तो एक आदमी ने आ कर उससे कहा—यहां गोपीनाथ के धर्मशाला में एक आदमी ठहरे हुए हैं, उनकी स्त्री खो गयी है, उनका भला-सास नाम है, गोरे-गोरे लम्बे-से खूबसूरत आदमी हैं, लखनऊ मकान है, झवाई टोले में। तुम्हारा हुलिया उसने ऐसा ठीक बयान किया कि मुझे उसस पर विश्वास आ गया। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबूजी को जानते हो? वह हंसकर बोला, जानता नहीं हूं तो तुम्हें तलाश क्यो करता फिरता हूं। तुम्हारा बच्चा रो-रो कर हलकान हो रहा है। सब औरतें कहने लगीं, चली जाओं, तुम्हारे स्वामीजी घबरा रहे होंगे। स्वयंसेवक ने उससे दो-चार बातें पूछ कर मुझे उसके साथ कर दिया। मुझे क्या मालूम था कि मैं किसी नर-पिशाच के हाथों पड़ी जाती हूं। दिल मैं खुशी थी किअब बासू को देखूंगी तुम्हारे दर्शन करूंगी। शायद इसी उत्सुकता ने मुझे असावधान कर दिया।
परशुराम—तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? वह कौन था?
मर्यादा—क्या बतलाऊं कौन था? मैं तो समझती हूं, कोई दलाल था?
परशुराम—तुम्हे यह न सूझी कि उससे कहतीं, जा कर बाबू जी को भेज दो?
मर्यादा—अदिन आते हैं तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
परशुराम—कोई आ रहा है।
मर्यादा—मैं गुसलखाने में छिपी जाती हूं।
परशुराम –आओ भाभी, क्या अभी सोयी नहीं, दस तो बज गए होंगे।
भाभी—वासुदेव को देखने को जी चाहता था भैया, क्या सो गया?
परशुराम—हां, वह तो अभी रोते-रोते सो गया।
भाभी—कुछ मर्यादा का पता मिला? अब पता मिले तो भी तुम्हारे किस काम की। घर से निकली स्त्रियां थान से छूटी हुई घोड़ी हैं। जिसका कुछ भरोसा नहीं।
परशुराम—कहां से कहां लेकर मैं उसे नहाने लगा।
भाभी—होनहार हैं, भैया होनहार। अच्छा, तो मै जाती हूं।
मर्यादा—(बाहर आकर) होनहार नहीं हूं, तुम्हारी चाल है। वासुदेव को प्यार करने के बहाने तुम इस घर पर अधिकार जमाना चाहती हो।
परशुराम –बको मत! वह दलाल तुम्हें कहां ले गया।
मर्यादा—स्वामी, यह न पूछिए, मुझे कहते लज्ज आती है।
परशुराम—यहां आते तो और भी लज्ज आनी चाहिए थी।
मर्यादा—मै परमात्मा को साक्षी देती हूं, कि मैंने उसे अपना अंग भी स्पर्श नहीं करने दिया।
पराशुराम—उसका हुलिया बयान कर सकती हो।
मर्यादा—सांवला सा छोटे डील डौल काआदमी था।नीचा कुरता पहने हुए था।
परशुराम—गले में ताबीज भी थी?
मर्यादा—हां,थी तो।
परशुराम—वह धर्मशाले का मेहतर था।मैने उसे तुम्हारे गुम हो जाने की चर्चा की थी। वहउस दुष्ट ने उसका वह स्वांग रचा।
मर्यादा—मुझे तो वह कोई ब्रह्मण मालूम होता था।
परशुराम—नहीं मेहतर था। वह तुम्हें अपने घर ले गया?
मर्यादा—हां, उसने मुझे तांगे पर बैठाया और एक तंग गली में, एक छोटे- से मकान के अन्दर ले जाकर बोला, तुम यहीं बैठो, मुम्हारें बाबूजी यहीं आयेंगे। अब मुझे विदित हुआ कि मुझे धोखा दिया गया। रोने लगी। वह आदमी थोडी देर बाद चला गया और एक बुढिया आ कर मुझे भांति-भांति के प्रलोभन देने लगी। सारी रात रो-रोकर काटी दूसरे दिन दोनों फिर मुझे समझाने लगे कि रो-रो कर जान दे दोगी, मगर यहां कोई तुम्हारी मदद को न आयेगा। तुम्हाराएक घर डूट गया। हम तुम्हे उससे कहीं अच्छा घर देंगें जहां तुम सोने के कौर खाओगी और सोने से लद जाओगी। लब मैने देखा किक यहां से किसी तरह नहीं निकल सकती तो मैने कौशल करने का निश्चय किया।
परशुराम—खैर, सुन चुका। मैं तुम्हारा ही कहना मान लेता हूं कि तुमने अपने सतीत्व की रक्षा की, पर मेरा हृदय तुमसे घृणा करता है, तुम मेरे लिए फिर वह नहीं निकल सकती जो पहले थीं। इस घर में तुम्हारे लिए स्थान नहीं है।
मर्यादा—स्वामी जी, यह अन्याय न कीजिए, मैं आपकी वही स्त्री हूं जो पहले थी। सोचिए मेरी दशा क्या होगी?
परशुराम—मै यह सब सोच चुका और निश्चय कर चुका। आज छ: दिन से यह सोच रहा हूं। तुम जानती हो कि मुझे समाज का भय नहीं। छूत-विचार को मैंने पहले ही तिलांजली दे दी, देवी-देवताओं को पहले ही विदा कर चुका:पर जिस स्त्री पर दूसरी निगाहें पड चुकी, जो एक सप्ताह तक न-जाने कहां और किस दशा में रही, उसे अंगीकार करना मेरे लिए असम्भव है। अगर अन्याय है तो ईश्वर की ओर से है, मेरा दोष नहीं।
मर्यादा—मेरी विवशमा पर आपको जरा भी दया नहीं आती?
परशुराम—जहां घृणा है, वहां दया कहां? मै अब भी तुम्हारा भरण-पोषण करने को तैयार हूं।जब तक जीऊगां, तुम्हें अन्न-वस्त्र का कष्ट न होगा पर तुम मेरी स्त्री नहीं हो सकतीं।
मर्यादा—मैं अपने पुत्र का मुह न देखूं अगर किसी ने स्पर्श भी किया हो।
परशुराम—तुम्हारा किसी अन्य पुरूष के साथ क्षण-भर भी एकान्त में रहना तुम्हारे पतिव्रत को नष्ट करने के लिए बहुत है। यह विचित्र बंधन है, रहे तो जन्म-जन्मान्तर तक रहे: टूटे तो क्षण-भर में टूट जाए। तुम्हीं बताओं, किसी मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उच्छिट भोलन खिला दियया होता तो मुझे स्वीकार करतीं?
मर्यादा—वह.... वह.. तो दूसरी बात है।
परशुराम—नहीं, एक ही बात है। जहां भावों का सम्बन्ध है, वहां तर्क और न्याय से काम नहीं चलता। यहां तक अगर कोई कह दे कि तुम्हारें पानी को मेहतर ने छू निया है तब भी उसे ग्रहण करने से तुम्हें घृणा आयेगी। अपने ही दिन से सोचो कि तुम्हारेंसाथ न्याय कर रहा हूं या अन्याय।
मर्यादा—मै तुम्हारी छुई चीजें न खाती, तुमसे पृथक रहती पर तुम्हें घर से तो न निकाल सकती थी। मुझे इसलिए न दुत्कार रहे हो कि तुम घर के स्वामी हो और कि मैं इसका पलन करतजा हूं।
परशुराम—यह बात नहीं है। मै इतना नीच नहीं हूं।
मर्यादा—तो तुम्हारा यहीं अतिमं निश्चय है?
परशुराम—हां, अंतिम।
मर्यादा-- जानते हो इसका परिणाम क्या होगा?
परशुराम—जानता भी हूं और नहीं भी जानता।
मर्यादा—मुझे वासुदेव ले जाने दोगे?
परशुराम—वासुदेव मेरा पुत्र है।
मर्यादा—उसे एक बार प्यार कर लेने दोगे?
परशुराम—अपनी इच्छा से नहीं, तुम्हारी इच्छा हो तो दूर से देख सकती हो।
मर्यादा—तो जाने दो, न देखूंगी। समझ लूंगी कि विधवा हूं और बांझ भी। चलो मन, अब इस घर में तुम्हारा निबाह नहीं है। चलो जहां भाग्य ले जाय।

Thursday, May 3, 2007

विजय

शहज़ादा मसरूर की शादी मलका मख़मूर से हुई और दोनों आराम से ज़िन्दगी बसर करने लगे। मसरूर ढोर चराता, खेत जोतता, मख़मूर खाना पकाती और चरखा चलाती। दोनों तालाब के किनारे बैठे हुए मछलियों का तैरना देखते, लहरों से खेलते, बगीचे में जाकर चिड़ियों के चहचहे सुनते और फूलों के हार बनाते। न कोई फिक्र थी, न कोई चिन्ता थी।
लेकिन बहुत दिन न गुज़रने पाये थे उनके जीवन में एक परिवर्तन आया। दरबार के सदस्यों में बुलहवस खॉँ नाम का एक फ़सादी आदमी था। शाह मसरूर ने उसे नज़र बन्द कर रखा था। वह धीरे-धीरे मलका मख़मूर के मिज़ाज में इतना दाखिल हो गया कि मलका उसके मशविरे के बग़ैर कोई काम न करती। उसने मलका के लिए एक हवाई जहाज बनाया जो महज़ इशारे से चलता था। एक सेकेण्ड में हज़ारों मील रोज जाता ओर देखते-देखते ऊपर की दूनिया की खबर लाता। मलका उस जहाज़ पर बैठकर योरोप और अमरीका की सैर करती। बुलहवस उससे कहता, साम्राज्य को फैलाना बादशाहों का पहला कर्तव्य है। इस लम्बी-चौड़ी दुनिया पर कब्ज़ा कीजिए, व्यापार के साधन बढ़ाइये, छिपी हुई दौलत निकालिये, फौजें खड़ी कीजिए, उनके लिए अस्त्र-शस्त्र जुटाइये। दुनिया हौसलामन्दों के लिए है। उन्हीं के कारनामे, उन्हीं की जीतें याद की जाती हैं। मलका उसकी बातों को खूब कान लगाकर सुनती। उसके दिल में हौसले का जोश उमड़ने लगता। यहां तक कि अपना सरल-सन्तोषी जीवन उसे रूखा-फीका मालूम होने लगा।
मगर शाह मसरूर सन्तोष का पुतला था। उसकी जिन्दी के वह मुबारक लमहे होते थे जब वह एकान्त के कुंज में चुपचाप बैठकर जीवन और उसके कारणों पर विचार करता और उसकी विराटता और आश्चर्यों को देखकर श्रद्धा के भाव से चीख उठता-आह! मेरी हस्ती कितनी नाचीज हैं, उसे मलका के मंसूबों और हौसलों से ज़रा भी दिलचस्पी न थी। नतीजा यह हूआ कि आपस के प्यार और सच्चाई की जगह सन्देह पैदा हो गये। दरबारियों में गिरोह बनने लगे। जीवन का सन्तोष विदा हो गया। मसरूर को इन सब परेशानियों के लिए जो उसकी सभ्यता के रास्ते में बाधक होती थीं, धीरज न था। वह एक दिन उठा और सल्तनत मलका के सुपुर्द करके एक पहाड़ी इलाके में जा छिपा। सारा दरबार नयी उमंगों से मतवाला हो रहा था। किसी ने बादशाह को रोकने की कोशिश न की। महीनों, वर्षों हो गये, किसी को उनकी खबर न मिली।



मलका मख़मूर ने एक बड़ी फ्रौज खड़ी की और बुलहवस खां को चढ़ाइयों पर रवाना किया। उसने इलाके पर इलाके और मुल्क पर मुल्क जीतने शुरू किये। सोने-चांदी और हीरे-जवाहरात के अम्बार हवाई जहाजों पर लदकर राजधानी को आगे लगे।
लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि इन रोज-ब-रोज बढ़ती हुई तरक्कियों से मुल्क के अन्दरूनी मामलों में उपद्रव खड़े होने लगे। वह सूबे जो अब हुक्म के ताबेदार थे, बग़ावत के झण्ड़े करने लगे। कर्णसिंह बुन्देला एक फ्रौज लेकर चढ़ आया। मगर अजब फ़ौज थी, न कोई हरबे-हथियार, न तोपें, सिपाहियां, के हाथों में बंदूक और तीर-तुपुक के बजाय बरबर-तम्बूरे और सारंगियां, बेले, सितार और ताऊस थे। तोपों की धनगरज सदाओं के दले तबले और मृदंग की कुमक थी। बम गोलों की जगह जलतरंग, आर्गन और आर्केस्ट्रा था। मलका मख़मूर ने समझा आन की आन में इस फ़ौज को तितर-बितर करती हूँ। लेकिन ज्यों ही उस की फ़ौज कर्णसिंह के मुकाबिले में रवना हुई, लुभावने, आत्मा को शान्ति पहुँचाने वाले स्वरों की वह बाढ़ आयी, मीठे और सुहाने गानों की वह बौछार हुई कि मलका की सेना पत्थर की मरतों की तरह आत्मविस्मृत होकर खड़ी रह गयी। एक क्षण में सिपाहियों की आंखें नशे में डूबने लगीं और वह हथेलियां बजा-बजा कर नाचने लगे, सर हिला-हिलाकर उछलने लगे, फिर सबके सब बेजान लाश की ताह गिर पड़े। और सिर्फ सिपाही ही नहीं, राजधानी में भी जिसके कानों में यह आवाजें गयीं वह बेहोश हो गया। सारे शहर में कोई जिन्दा आदमी नज़र न आता था। ऐसा मालूम होता था कि पत्थर की मूरतों का तिलस्म है। मलका अपने जहाज पर बैठी यह करिश्मा देख रही थी। उसने जहाज़ नीचे उतारा कि देखूं क्या माजरा है? पर उन आवाजों के कान में पहुँचते ही उसकी भी वही दशा हो गयी। वह हवाई जहाज पर नाचने लगी और बेहोश होकर गिर पड़ी। जब कर्णसिंह शाही महल के करीब जा पहुँचा और गाने बन्द हो गये तो मलका की आंखें खुजीं जैसे किसी का नशा टूट जाये। उसने कहा-मैं वही गाने सुनूंगी, वही राग, वही अलाप, वही लुभाने वाले गीत। हाय, वह आवाज़ें कहो गयीं। कुछ परवाह नहीं, मेरा राज जाये, पाट जाये, में वही राग सुनूंगी।
सिपाहियों का नशा भी टूटा। उन्होंने उसके स्वर मिलाकर कहा-हम वही गीत सुनेंगे, वही प्यारे-प्यारे मोहक राग। बला से हम गिरफ्तार होंगे, गुलामी की बेड़ियां पहनेंगे, आजादी से हाथ धोयेंगे पर वही राग, वही तराने वही तानें, वही धुनें।



सूबेदार लोचनदास को जब कर्णसिंह की विजय का हाल मालूम हुआ तो उसने भी विद्रोह करने की ठानी। अपनी फौज लेकर राजधानी पर चढ़ दौड़ा। मलका ने अबकी जान-तोड़ मुकाबला करने की ठानी। सिपाहियों को खूब ललकारा ओर उन्हें लोचदास के मुकाबले में खड़ा किया मगर वाह री हमलावन फौज! न कहीं सवार, न कहीं प्यादे, न तोप, न बन्दूक, न हरबे, न हथियार, सिपाहियों की जगह सुन्दर नर्तकियों के गोल थे और थियेटर के एक्टर। सवारों की जगह भांडों और बहुरूपियों के गोल। मोर्चो की जगह तीतर और बटेरों के जोड़ छूटे हुए थे तो बन्दूक की जगह सर्कस ओर बाइसकोप के खेमे पढ़े थे। कहीं हीरे-जवाहरात अपनी आब-ताब दिखा रहे थे, कहीं तरह-तरह के चरिन्दों-परिन्दों की नुमाइश खुली हुई थी। मैदान के एक हिस्से में धरती की अजीब-अजीब चीजें, झने और बर्फिस्तानी चोटियां और बर्फ के पहाढ़, पेरिस का बाजार, लन्दन का एक्स्चेंज या स्टन की मंडियां, अफ्रीका के जंगल, सहारा के रेगिस्तान, जापान की गुलकारियां, चीन के दरियाई शहर, दक्षिण अमरीका के आदमखोर, क़ाफ़ की परियां, लैपलैण्ड के सुमूरपोश इन्सान और ऐसे सेकड़ों विचित्र आकर्षक दृश्य चलते-फिरते दिखायी पड़ते थे। मलका की फौज यह नज्ज़ारा देखते ही बेसुध होगर उसकी तरफ दौड़ी। किसी को सर-पैर का खयाल न रहा। लोगों ने बन्दुकें फेंक दीं, तलवारें और किरचें उतार फेंकीं और बेतहाशा इन दृश्यों के चारों तरफ जमा हो गये। कोई नाचने वालियों की मीठी अदाओं ओर नाजुक चलन पर दिल दे बैठा, कोई थियेटर के तमाशों पर रीझा। कुछ लोग तीतरों और बटेरों के जोड़ देखने लगे और सब के सब चित्र-लिखित-से मन्त्रमुग्ध खड़े रह गये। मलका अपने हवाई जहाज पर बैठी कभी थियेटर की तरफ जाती कभी सर्कस की तरफ दौड़ती, यहां तक कि वह भी बेहोश हो गयी।
लोचनदास जब विजय करता हुआ शाही महल में दाखिल हो गया तो मलका की आंखें खुलीं। उसने कहा-हाय, वह तमाशे कहां गये, वह सुन्दर-सुन्दर दृश्य, वह लुभावने दृश्य कहां गायब हो गये, मेरा राज जाये, पाट जाये लेकिन मैं यह सैर जरूर देखूँगी। मुझे आज मालूम हुआ कि ज़िन्दगी में क्या-क्या मज़े हैं!
सिपाही भी जागे। उन्होने एक स्वर से कहा-हम वही सैर और तमाशे देखेंगे, हमें लड़ाई-भिड़ाई से कुछ मतलब नहीं, हमको आज़ादी की परवाह नहीं, हम गुलाम होकर रहेंगे, पैरों में बेड़ियां पहनेंगे पर इन दिलफरेबियों के बगैर नहीं रह सकेंगे।



मलका मख़मूर को अपनी सल्तनत का यह हाल देखकर बहुत दु:ख होता। वह सोचती, कया इसी तरह सारा देश मेरे हाथ से निकल जाएगा? अगर शाह मसरूर ने यों किनारा न कर लिया होता तो सल्तनत की यह हालत कभी न होती। क्या उन्हें यह कैफियतें मालूम न होंगी। यहां से दम-दम की खबरें उनके पास आ जाती हैं मगर जरा भी जुम्बिश नहीं करते। कितने बेरहम हैं। खैर, जो कुछ सर पर आयेगी सह लूँगी पर उनकी मिन्नत न करूँगी।
लेकिन जब वह उन आकर्षक गानों को सुनती और दूश्यों को देखती तो यह दुखदायी विचार भूल जाते, उसे अपनी जिन्दगी बहुत आनन्द की मालूम होती।
बुलहवस खां ने लिखा-मैं देश्मनों से घिर गया हूँ, नफरत अली और कीन खां और ज्वालासिंह ने चारों तरफ से हमला शुरू कर दिया है। तब तक ओर कुमक न आये, में मजबूर हूँ। पर मलका की फौज यह सैर और गाने छोड़कर जाने पर राजी न होती थी।
इतने में दो सूबेदसरों ने फिर बग़ावत की। मिर्जा शमीम और रसराजसिंह दोनों एक होकर राजधानी पर चढ़े। मलका की फौज में अब न लज्जा थी न वीरता, गाने-बजाने और सैरै-तमाशे ने उन्हें आरामतलब बना दिया था। बड़ी-बड़ी मुश्किलों से सज-सजा कर मैदान में निकले। दुश्मन की फौज इन्तजार करती खड़ी थी लेकिन न किसी के पास तलवार थी, न बन्दुक, सिपाहियों के हाथों में फूलों के खुलदस्ते थे, किसी के हाथ में इतर की शीशियां, किसी के हाथ में गुलाब के फ़व्वाहर, कहीं लवेण्डर की बोतलें, कहीं मुश्क वगैरह की बहार-सारा मैदान अत्तार की दूकान बना हुआ था। दूसरी तरफ रसराज की सेना थी। उन सिपाहियों के हाथों में सोने के तश्त थे, जरबफ्त के खनपेशों से ढके हुए, किसी में बर्फी और मलाई थी, किसी में कोरमे और कबाब, किसी में खुबानी और अंगूर, कहीं कश्मीर की नेमतें सजी हुई थीं, कहीं इटली की चटनियों की बहार थी और कहीं पुर्तगाल और फ्रांस की शराबें शीशियों में महक रही थीं।
मलका की फौज यह संजीवनी सुगन्ध सूंघते ही मतवाली हो गयी। लोगों ने हथियार फेंक दिये और इन स्वादिष्ट पदार्थें की ओर दौड़े, कोई हलुवे पर गिरा, और कोई मलाई पर टूटा, किसी ने कोरमे और कबाब पर हाथ बढ़ाये, कोई खुबानी और अंगूर चखने लगा, कोई कश्मीरी मुरब्बों पर लपका, सारी फौज भिखमंगों की तरह हाथ फैलाये यह नेमतें मांगती थी और बेहद चाव से खाती थी। एक-एक कौर के लिए, एक चमचा फीरनी के लिए, शराब के एक प्याले के लिए खुशामदें करते थे, नाकें रगड़ते थे, सिजदे करते थे। यहां तक कि सारी फौज पर एक नशा छा गया, बेदम होकर गिर पड़ी। मलका भी इटली के मरब्बों के सामने दामन फैला-फैलाकर मिन्नतें करती और कहती थी कि सिर्फ-एक लुकमा और एक प्याला दो और मेरा राज लो, पाट लो, मेरा सब कुछ ले लो लेकिन मुझे जी-भर खा-पी लेने दो। यहां तक कि वह भी बेहोश होकर गिर पड़ी।



मलका की हालत बेहद दर्दनाक थी। उसकी सल्तनत का एक छोटा-सा हिस्सा दुश्मनों के हाथ से बचा था। उसे एक दम के लिए भी इस गुलामी से नजात न मिलती। की कर्णसिंह के दरबार में हाजिर होती, कभी मिर्जा शमीम की खुशामद करती, इसके बगैर उसे चैन न आता। हां, जब कभी इस मुसाहिबी और जिल्लत से उसकी तबियत थक जाती तो वह अकेले बैठकर घंटों रोती और चाहती कि जाकर शाह मसरूर को मना लाऊं। उसे यकीन था कि उनके आते ही बागी काफूर हो जायेंगे पर एक ही क्षण में उसकी तबियत बदल जाती। उसे अब किसी हालत पर चैन आता था।
अभी तक बुलहवस खां स्वामिभक्ति में फर्क न आया था। लेकिन जब उसने सल्तनत की यह कमजोरी देखी तो वह भी बगावत कर बैठा। उसकी आजमाई हुई फौज के मुकाबले में मलका की फौज क्या ठहरती, पहले ही हमले में क़दम उखड़ गये। मलका खुद गिरफ्तार हो गयी। बुलहवस खां ने उसे एक तिलस्माती कैदखाने में बंद कर दिया। सेवक वे स्वामी बनद बैठा।
यह कैदखाना इतना लम्बा-चौड़ा था कि कैदी कितना ही भागने की कोशिश करे, उसकी चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल सकता था। वहां सन्तरी और पहरेदार न थे लेकिन वहां की हवा में एक खिंचाव था। मलका के पैरों में न बेड़ियां थी न हाथों में हथकड़ियां लेकिन शरीर का अंग-प्रत्यंग तारों से बंधा हुआ था। वह अपनी इच्छा से हिल भी न सकती थी। वह अब दिन के दिन बैठी हुई जमीन पर मिट्टी के घरौंदे बनाया करती और समझती यह महल है। तरह-तरह के स्वांग भरती और समझती दुनिया मुझे देखकर लट्टू हो जाती है। पत्थर टुकड़ों से अपना शरीर गूंध लेती ओर समझती कि अब हूरें भी मेरे सामने मात हैं। वह दरख्तों से पूछती, मैं कितनी खूबसूरत हूँ। शाखों पर बैठी चिड़ियों से पूछती, हीरे-जवाहरात का ऐसा गुलबन्द तुमने देखा है? मिट्टी की ठीकरों का अम्बार लगाती और आसमान से पूछती, इतनी दौलत तुमने देखी है?
मालूम नहीं, इस हालत में कितने दिन गुजर गये। मिर्जा शमीम, लाचनदास वगैरह हरदम उसे घेरे रहते थे। शायद वह उससे डरते थे। ऐसा न हो, यह शाह मासरूर को कोई संदेशा भेज दे। क़ैद में भी उस पर भरोसा न था। यहां तक कि मलका की तबियत इस क़ैद से बेज़ार हो गयी, वह निकल भागने की तदबीरें सोचने लगी।
इसी हालत में एक दिन मलका बैठी सोच रही थी, मैं क्या हो गई ? जो मेरे इशारों के गुलाम थे वह अब मेरे मालिक हैं, मुझे जिस कल चाहते हैं बिठाते हैं, जहां चाहते हैं घुमाते हैं। अफसोस, मेंने शाह मसरूर का कहना न माना, यह उसी की सजा है। काश, एक बार मुझे किसी तरह अस क़ैद से छुकारा मिल जाता तो मैं चलकर उनके पैरों पर सिर रख देती और कहती, लौंडी की खता माफ कीजिए। मैं खून के आंसु रोती और उन्हें मना लाती और फिर कभी उनके हुक्म से इनकार न करती। मैंने इस नमकहराम बुलहवस खां की बातों में पड़कर उन्हें निर्वासित कर दिया, मेरी अक्ल कहॉँ चली गयी थी। यह सोचते-सोचते मलका रोने लगी कि यकायक उसने देखा, सामने एक खिले हुए मुखड़े वाला गम्भीर पुरूष सादा कपड़े खड़ा है। मलका ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-आप कौन हैं? यहां मैंने आपको कभी नहीं देखा।
पुरूष-हां, इस कैदखाने में मैं बहुत कम आता हूँ। मेरा काम है कि जब कैदियों की तबियत यहां से बेजार हो तो उन्हें यहां से निकलने में मदद दूं।
मलका-आपका नाम?
पुरूष-संतोखसिंह।
मलमा-आप मुझे इस कैद से छुटकारा दिला सकते हैं?
संतोख-हां, मेरा तो काम ही यह है, लेकिन मेरी हिदायतों पर चलना पड़ेगा।
मलका-मैं आपके हुक्म से जौ-भर भी इधर-उधर न करूंगी, खुदा के लिए मुझे यहां से जल्द से जल्द ले चलिए, मैं मरते दम तक आपकी शुक्रगुजार रहूंगी।
संतोख- आप कहां चलना चाहती हैं?
मलका-मैं शाह मसरूर के पास जाना चाहती हूँ। आपको मालूम है वह आलकल कहां हैं?
संतोख-हाँ, मालूम है, मैं उनका नौकर हूँ। उन्हीं की तरफ से मैं इस काम पर तैनात हूँ?
मलका-तो खुदा के वास्ते मुझे जल्द ले चलिए, मुझे अब यहां एक घड़ी रहना जी पर भारी हो रहा है।
संतोख-अच्छा तो यह रेशमी कपड़े और यह जवाहरात और सोने के जेवन उतारकर फेंक दो। बुलहवस ने इन्हीं जंजीरों से तुम्हें जाकड़ दिया है। मोटे से मोटा कपड़ा जो मिल सके पहन लो, इन मिट्टी के घरौंदों को गिरा दो। इतर और गुलाब की शीशियां, साबुन की बट्टियां, और यह पाउडर के डब्बे सब फेंक दो।
मलका ने शीशियों और पाउडर के तड़ाक-तड़ाक पटक दिये, सोने के जेवरों को उतारकर फेंक दिया कि इतने में बुलहवस खां धाड़ें मार कर रोता हुआ आकर खड़ा हुआ और हाथ बांधकर कहने लगा-दोनों जहानों की मलका, मैं आपका नाचीज़ गुलाम हूँ, आप मुझसे नाराज हैं?
मलका ने बदला लेने के अपने जोश में मिट्टी के घरौंदों को पैरों से ठुकरा दिया, ठीकरों के अम्बार को ठोकरें मारकर बिखेर दिया। बुलहवस के शरीर का एक-एक अंग कट-कटकर गिरने लगा। वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ा और दम के दम में जहन्नुम रसीद हुआ। संतोखसिंह ने मलका से कहा-देखा तुमन? इस दुश्मन को तुम कितना डरावना समझती थीं, आन की आन में खाक में मिल गया।
मलका-काश, मुझे यह हिकमत मालूम होती तो मैं कभी की आजाद हो जाती। लेकिन अभी और भी तो दुश्मन हैं।
संतोख-उनको मारना इससे भी आसान है। चलो कर्णसिंह के पास, ज्यों ही वह अपना सुर अलापने लगे और मीठी-मीठी बातें करने लगे, कानों पर हाथ रख लो, देखो, अदृश्य के पर्दे से फिर चीज सामने आती है।
मलका कर्णसिंह के दरबार में पहुँची। उसे देखते ही चारों तरफ से धुपद और तिल्लाने के वार होने लगे। पियानो बजने लगे। मलका ने दोनों कान बन्द कर लिये। कर्णसिंह के दरबार में आग का शोला उठने लगा। सारे दरबारी जलने लगे, कर्णसिंह दौड़ा हुआ आया और बड़े विनय-पूर्वक मलका के पैरों पर गिरकर बोला-हुजूर, अपने इस हमेशा के गुलाम पर रहम करें। कानों पर से हाथ हटा कर वर्रा इस गरीब की जान पर बन आयेगी। अब कभी हुजूर की शान में यह गुस्ताखी न होगी।
मलका ने कहा-अच्छा, जा तेरी जां-बख्शी की। अब कभी बग़ावत न करना वर्ना जान से हाथ धोएगा।
कर्णसिंह ने संतोखसिंह की तरफ प्रलय की आंखों से देखकर सिर्फ इतना कहा-'जालिम, तुझे मौत भी नहीं आयी' और बेतहाशा गिरता-पड़ता भागा। सेतोखसिंह ने मलका से कहा-देखा तुमने, इनको मारना कितना आसान था? अब चलो लोचनदान के पास। ज्योंही वह अपने करिश्मे दिखाने लगे, दोनों आंखें बन्द कर लेना।
मलका लोचनदास के दरबार में पहुँची। उसे देखते ही लोचन ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना शुरू किया। ड्रामे होने लगे, नर्तकों ने थिरकना शुरू किया। लालो-जमुरर्द की कश्तियां सामने आने लगीं लेकिन मलका ने दोनों आंखें बन्द कर लीं।
आन की आन में वह ड्रामे और सर्कस और नाचनेवालों के गिरोह खाक में मिल गये। लोचनदास के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं, निराशापूर्ण धैर्य के साथ चिल्ला-चिल्लकर कहने लगा, यह तमाशा देखो, यह पेरिस के क़हवेखाने, यह मिस एलिन का नाच है। देखो, अंग्रेज रईस उस पर कितनी उदारता से सोने और हीरे-जवाहरात निछावर कर रहे हैं। जिसने यह सैर-तमाशे ने देखे उसकी जिन्दगी मौत से बदतर। लेकिन मलका ने आंखें न खोलीं।
तब लोचनदास बदहवास और घबराया हुआ, बेद के दरख्त की तरह कांपता हुआ मलका के सामने आ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला-हुजूर, आंखें खोलें। अपने इस गुलाम पर रहम करें, नहीं तो मेरी जान पर बन जाएगी। गुलाम की गुस्ताखियां माफ़ फीरमायें। अब यह बेअदबी न होगी।
मलका ने कहा-अच्छा जा, तेरी जांबख्शी की लेकिन खबरदार, अब सर न उठाना नहीं तो जहन्नुम रसीद कर दूंगी।
लोचनदास यह सुनते ही गिरता-पड़ता जान लेकर भागा। पीछे फिरकर भी न देखा। संतोखसिंह ने मलका से कहा-अब चलो मिर्जा शमीम और रसराज के पास। वहॉँ एक हाथ से नाक बन्द कर लेना और दूसरे हाथ से खानों के तश्त को जमीन पर गिरा देना।
मलका रसराज और शमीम के दरबार में पहुँचीं उन्होंने जो संतोख को मलका के साथ देखा तो होश उड़ गये। मिर्जा शमीम ने कस्तूरी और केसर की लपटें उड़ाना हुरू कीं। रसराज स्वादिष्ट खानों के तश्त सजा-सजाकर मलका के सामने लाने लगा, और उनकी तारीफ करने लगा-यह पुर्तगात की तीन आंच दी हुई शराब है, इसे पिये तो बुड्डा भी जवान हो जाये। यह फ्रांस का शैम्पेन है, इसे पिये तो मुर्दा जिन्दा हो जाय। यह मथुरा के पेड़े हैं, उन्हें खाये तो स्वर्ग की नेमतों को भूल जाय।
लेकिन मलका ने एक साथ से नाक बन्द कर ली और दूसरे हाथ से उन तश्तों को लमीन पर गिरा दिया और बोतलों को ठोकरें मार-मारकर चूर कर दिया। ज्यों-ज्यों उसकी ठोकरें पड़ती थीं, दरबार के दरबारी चीख-चीख कर भागते थे। आखिर मिर्जा शमीम और रसराज दोनों परेशान और बेहाल, सर से खून जारी, अंग-अंग टूटा हुआ, आकर मलका के सामने खड़े हो गये और गिड़गिड़ाकर बोले-हुजूर, गुलामों पर रहम करें। हुजूर की शान में जो गुस्ताखियां हुई हैं उन्हें मुआफ फरमायें, अब फिर ऐसी बेअदबी न होगी।
मनका ने कहा-रसराज को मैं जान से माना चाहती हूँ। उसके कारण मुझे जलील होना पड़ा।
लेकिन संतोखसिंह ने मना किया-नहीं, इसे जान से न मारिये। इस तरह का सेवक मिलना कठिन है। यह आपके सब सूबेदार अपने काम में यकता हैं सिर्फ इन्हें काबू में रखने की जरूरत है।
मलका ने कहा-अच्छा जाओ, तुम दोनों की भी जां-बख्शी की लेकिन खबरदार, अब कभी उपद्रव मत खड़ा करना वर्ना तुम जानोगे।
दोनों गिरत-पड़ते भागे, दम के दम में नजरों से ओझल हो गये।
मलका की रिआया और फौज ने भेंटे दीं, घर-घर शादियाने बजने लगे। चारों बागी सूबेदार शहरपनाह के पास छापा मारने की घात में बैठ गये लेकिन संतोखसिंह जब रिआया और फौज को मसजिद में शुक्रिए की नमाज अदा करने के लिए ले गया तो बागियों को कोई उम्मीद न रही, वह निराश होकर चले गये।
जब इन कामों से फुर्सत हुई तो मलका ने संतोखसिंह से कहा-मेरे पास अलफ़ाज नहीं में इतनी ताकत है कि मैं आपके एहसानों का शुक्रिया अदा कर सकूँ। आपने मुझे गुलामी ताकत से छुटकारा दिया। में आखिरी दम तक आपका जस गाऊंगी। अब शाह मसरूर के पास मुझे ले चलि, मैं उनकी सेवा करके अपनी उम्र बसर करना चाहती हूँ। उनसे मुंह मोड़कर मैंने बहुत जिल्लत और मसीबत झेली। अब अभी उनके कदमों से जुदा न हूँगी।
संतोखसिंह-हां, हां, चलिए मैं तैयार हूँ लेकिन मंजिल सख्त है, घबराना मत।
मलका ने हवाई जहाज मंगाया। पर संतोखसिंह ने कहा-वहां हवाई जहाज का गुजर नहीं है, पेदल पड़ेगां मलका ने मजबूर होकर जहाज वापस कर दिया और अकेले अपने स्वाती को मनाने चली।
वह दिन-भर भूखी-प्यासी पैदल चलती रही। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा, प्यास से गले में कांटे पड़ने लगे। कांटों से पैर छलनी हो गये। उसने अपने मार्ग-दर्शक से पूछा-अभी कितनी दूर है?
संतोख-अभी बहुत दूर है। चुपचाप चली आओ। यहां बातें करने से मंजिल खोटी हो जाती है।
रात हुई, आसमान पर बादल छा गये। सामने एक नदी पड़ी, किश्ती का पता न था। मलका ने पूछा-किश्ती कहां है?
संतोष ने कहा-नदी में चलना पेड़गा, यहां किश्ती कहां है।
मलका को डर मालूम हुआ लेकिन वह जान पर खेलकर दरिया में चल पड़ी। मालूम हुआ कि सिर्फ आंख का धोखा था। वह रेतीली जमीन थी। सारी रात संतोखसिंह ने एक क्षण के लिए भी दम न लिया। जब भोर का तारा निकल आया तो मलका ने रोकर कहा-अभी कितनी दूर है, मैं तो मरी जाती हूँ। संतोखसिंह ने जवाब दिया-चूपचान चली आओ।
मलका ने हिम्मत करके फिर कदम बढ़ाये। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि रास्ते में मर ही क्यों न जाऊँ पर नाकाम न लौटूँगी। उस कैद से बचने के लिए वह कड़ी मुसीबतें झेलने को तैयार थी।
सूरज निकला, सामने एक पहाड़ नजर आया जिसकी चोटियां आसमान में घुसी हुई थीं। संतोखसिंह ने पूछा-इसी पहाड़ी की सबसे ऊंची चोटी पर शाह मसरूर मिलेंगे, चढ़ सकोगी?
मलका ने धीरज से कहा-हां, चढ़ने की कोशिश करूंगी।
बादशाह से भेंट होने की उम्मीद ने उसके बेजान पैरों में पर लगा दिए। वह तेजी से कदम उठाकर पहाड़ों पर चढ़ने लगी। पहाड़ के बीचों बीच आत-आते वह थककर बैठ गयी, उसे ग़श आ गया। मालूम हुआ कि दम निकल रहा है। उसने निराश आंखों से अपने मित्र को देखा। संतोखसिंह ने कहा-एक दफा और हिम्मत करो, दिल में खुदा की याद करो मलका ने खुदा की याद की। उसकी आंखें खुल गयीं। वह फुर्ती से उठी और एक ही हल्ले में चोटी पर जा पहुँची। उसने एक ठंडी सांस ली। वहां शुद्ध हवा में सांस लेते ही मलका के शरीर में एक नयी जिंदगी का अनुभव हुआ। उसका चेहरा दमकने लगा। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं चाहूँ तो हवा में उड़ सकती हूँ। उसने खुश होकर संतोखसिंह तरफ देखा और आश्चर्य के सागर में डूब गयी। शरीर वही था, पर चेहरा शाह मसरूर का था। मलका ने फिर उसकी तरफ अचरज की आंखों से देखा। संतोखसिंह के शरीर पर से एक बादल का पर्दा हट गया और मलका को वहां शाह मशरूर बड़े नजर आए-वही हल्का नीला कुर्ता, वही गेरुए रंग की तरह। उनके मुखमण्डल से तेज की कांति बरस रही थी, माथा तारों की तरह चमक रहा था। मलका उनके पैरों पर गिर पड़ी। शाह मसरूर ने उसे सीने से लगा लिया।
-'जमाना', अप्रैल,१९१८