Thursday, May 10, 2007

युग-ध्वनि सुन रहा हूँ !

दोस्तो !
अपनी कृपा-दृष्टि
अपने पास रखो .....
तुम्हारी नियति बहुत अच्छी है
मुझे मालुम है ।
शुभकामनाओं के ढ़ेर
मेरे द्वार यूं मत लगाओ !!
खोखला-व्यवहार और
जर्जर-दायरे को
चांदी के वरक से न ढापों
नींव का रोड़ा हूँ, भवनों से ना नापों ?

मैं सभी कुछ सह गया हूँ .....
एकदम चुपचाप
बिल्कुल एकदम चुपचाप .....
तुम छपो, दर्शन बनो
युग-काव्य-प्रणयी
विरह-विनयी प्रबन्धक,

सम्पादक, निदेशक, प्रशासक सभी कुछ .....
किसी के पैर छूकर
खुशामद कर
अमानत धर.....
मुझको नही स्वीकार
झुकना और चुकना
हाँ, मैं जब भी हिलूँगा
भवन कापेंगे
महाशय द्वार नाचेंगे
थोडा ही बस और चुप रहने दो !!
युग-ध्वनि सुन रहा हूँ !

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