Thursday, May 10, 2007

दुर्भाग्य !

टूटे कांच-सी मनुष्यता
इधर-उधर बिखरी पड़ी है !
चुभ रही है खूब
हर इन्सान के पाँव में
मायाविन-रीति खोखली हो गयी है !
प्रीति की डोर कुछ ढीली हो गयी है
हर आत्मा चीखती है
पुकारती है, शोर करती है
और कहीं-कहीं विध्वंश-नाश के बीज
भी बोती है !
स्वतन्त्रता-यौवना मदिर-मस्त सोती है
वर्तमान ही नही भविष्य भी खोती है
चूर हो गए सपने
बेबस जीवन का भार है रेहन
गदहे-सी नीति

बोझा ढोने की प्रीति
अलबेली शान, सभी कुछ जानबूझकर
अजान बन गयी है !
आधी रोटी सूखी-सी तुष्टि रह गयी है !
जीवन पर मृत्यु की घण्टी-सी टंगी है !!
अपराधी अपराध को छुपाये
चिल्लाता है, रिकार्ड कराता है
अपराध बढ रहा है !
हाय रे, देश का दुर्भाग्य
आज सभी धृतराष्ट्र हो गए हैं !

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