Monday, January 26, 2009

आग छुओ मत

अतीत की घटनाओं ने एकाएक झकझोरा. मन बेचैन हुआ और खो गया विश्व के पटल पर बदलते परिद्रश्य में, कहीं कोलाहल है तो कहीं उथल-पुथल, कहीं हिंसा का तांडव है तो कहीं विप्लव कि आंधी, तो कहीं आग. इन सबके बीच "वसुधैव कुटुम्बकम" की परिकल्पना गले नहीं उतरती है. विश्व बंधुत्व की बात कपोल कल्पना प्रतीत होती है.
आग तो आग है, इसमें तपिस है, जलन है और और सब कुछ स्वः कर देने की शक्ति है. इससे दूर रहा जाये तो बेहतर है.
संसार के झंझावातों के बीच जीते हुए भी जो व्यक्ति मन की शांति को अक्षुणण रख सके, वाही सच्छा और कर्मठ व्यक्ति है. 
श्री नन्द किशोर 'सजल' जी द्वारा रचित पुस्तक की पंक्तियाँ उनकी अभिव्यक्ति किसी की मन को छू सके, जनमानस को मानव कल्याण का सन्देश दे सके तो कवी का प्रयास सार्थक होगा. 

कंकरीले सपने

मन तुम्हारी वेदना - संवेदा के साथ है,
किन्तु तुमने जिदगी छोर ही झुठला दिये हैं।

टूटने कह क्या नियति है
कौन इसको कह सका है,
किन्तु संयम तोड़ने का
सहज साहस हो चुका है,

मन तुम्हारी चेतना - प्रति चेतना के साथ है,
किन्तु तुमने जिदगीे पोर ही झुठला दिये हैं।

जो सहन तुमको ही है,
वह मुझे तुमने सहाया,
धार जो निकली नहीं थी
दृगों से तुमने बहाया,

मन तुम्हारी प्रेरणा - अनुप्रेरणा के साथ है,
किन्तु तुमने जिदगी भोर ही झुठला दिये हैं।

यह नहीं सोचा की गोया
हृय को तुम ही छलोगी,
नेह नयनों में कभी तुम
स्वन्प कंकरील भरोगे,

मन तुम्हारी धारणा - अवधारणा के साथ है,
किन्तु तुमने जिदगी कोर ही झुठला दिये हैं।

खुशियों के पीछे

कुछ भाव हमारी ख्ुशियों के
यो सहज नही मिलने देते।
आगतुक हेाते हैं लेकिन
धर्मों पाखण्डों के स्वामी

कितने कितने सघर्ष हुये
अपने ही घर को पाने में
जाने कितने सुख रूठ गये
अपना ही ध्वज फहराने में,

कुछ घाव हमारी खुशियों के
संवेदन होते हैं। लेकिन,
अक्सर छल छन्दों के स्वामी
यों सहज नही सिलने देते।

अपने आँँगन की क्यारी में
हर पौध हरी दिखलाती है,
सच है यह पूरे भारत का
सुखमय भविष्य बताती है,

कुछ चाव हमारी खुशियों के
परिचायक होते हैं लेकिन,
झूठे आदर्शाें के स्वामी
यों सहज नहीं लिखने देते।

खुशियों के रक्षक बलिदानी
जीवन कुद याद दिलाते हैं।
एकता, प्रेम, संयम, गौरव का
सब रहस्य समझाते हैं,

कुछ ताव हमारी खुशियों के
संवाहक होते हैं लेकिन,
कोरे सन्दर्भों के स्वामी
यों सहज नहीं हिलने देते।

शियाकत हो तो

कभी शिकायत करना हो तो
हमसे ही कर लिया करो।

दुनिया है इसमें लोगों के
हाव भाव कुछ ठीक नहीं हैं,
इसमें अपने दिखने वालों
के भी करम सटीक नहीं हैं।

कभी हिदायत करना हो तो
हमसे ही कर लिया करो।
यहाँ दृष्टि मेरी कहती है
वे भी हंसी उड़ाते होगें,
मेरे और तुम्हारे भेदों
को सुन बहुत जुड़ते होगें।

कभी रियायत करना हो तो
हमसे ही कर लिया करो।

बन्धु हमारे निराधार ही
हठ में तुम इतने जकड़े क्यों,
मेरी निन्दा करने वालों
को इतना पोड़े पकडे क्यों।

कभी हिमायत करना हो तो
हमसे ही कर लिया करो।

कथानक रक्त के

चाहिए कुछ भी नहीं हमको
प्राप्ति के वातायानों से,
किन्तु ऐसा भी न हो
हम नित छले जाते रहें।

सहन की है यातनायें
समय ने इतनी दया की,
मौन रहकर सह गया सब
आपने इतनी दया की।

अब न हमको चाहिए दुख
यह की सुख की नव पहेली,
किन्तु ऐसा भी न हो गुण
निगुण के गीत गाते रहे।

सभ्यताओं की धरोहर
मान मर्यादा संजोये,
जो दिया स्वीकार था सब
आज तक किंचित न सोये,

अब न हमको दीजियेगा
प्यार की थाती कहीं की,
किन्तु ऐसा भी हो
हम घृणा ही पाते रहें।

समय की चाल मानो
दे तुम्हे विस्वास जाना,
व्यर्थ पुष्पन पल्लवन की
स्हज तुमसे आस माना,

कर लिया षड़यंत्र जितना
हो सका तुमसे अभी तक,
किन्तु अब ऐसा न हो
कि हम धैर्य खो आते रहें।

समय का शुभ चक्र
अबकी बार अपने हाथ होगा,
तुम न नम अगर तो
नभ हमारे साथ होगा।

कान्ति की लिखकर कहानी
फिर तुम्ही से पुछ लुँगा,
कल कहीं ऐसा न हो
हम आप पर छाते रहें।

अगर तुम चाहो अभी भी
हम तुम्हारे संग होगंे,
न्याय में संतुप्त पर
अप्याय में बदरंग होगें।

अब न हम पर थोपियेगा
रक्त की कोई कथानक,
कल कहीं ऐसा न हो
सब टूटते नाते रहें

कामना

माँ तु भाव नदी की धारा।
संचारी भावों की वाहक
दया, क्षमा, करूणा, वत्सलता
तेरे ही नेहिल अंशों पर
यह सारा जग-जीवन पलता
तू ही है अवजम्ब हमारा
माँ तु भाव नदी की धारा।
जीवन में गति देने वाली
प्रेम राग स्वर की मतवाली
पल - छिन कर्म सिखती धारा
भव बन्धन हर लेने वाली,
तू ही शोख सके अंगारा
माँ तु भाव नदी की धारा।
तुझसे उऋण न हो आये
माँ तु मन्द मन्द मुस्काये,
डगमग, डगमग करती नैया
तु हौले से पार लगाये,
तट मिलने तक रही सहारा
माँ तु भाव नदी की धारा।
तेरी धार हरे दुख सारे
तपे, धरा आकाश पुकारे,
मंगल कर मंगल कर देवी
क्षम्य बना अपराध हमारे,
मन तेरा संगीत सितारा।
माँ तु भाव नदी की धारा।
घिरे प्रलय के घने मनमाने
सब हैं तुझको पहचाने,
ध्वंस निशाना साध रहा है
तुझको सारे वार बचाने,
तेरा ही नव जीवन की धारा
माँ तु भाव नदी की धारा।

फिर चाहोगे हरियाली तुम

तुम मुकुट चाहते भारत का
कैसे मन में आया विचार
आवाजें बंद करो अपनी
भारत प्राणों का कण्ठहार

कह सको तो भारत माँ बोलो
इसके चरणो की धूल गहो,
मत रोकों हिमगिरि के प्रपात
भारत माँ की जय जयति कहो,
मनमानी हुँकारे छोड़ो
इनको कब तक सह पायेंगें
कल चाहोगे सुरसरि धारा
उसको कैसे दे पायेगें,
माँ का दूध लजाकर हम,
सह लेगें कैसे सदाचार
भारत प्राणों का कण्ठहार

पंजाब तमिल उत्तर प्रदेश
केरल कर्नाटक में प्रवेश,
सतलज यमुना सरयू झेलम
कृष्णा कावेरी के प्रदेश,
फिर चाहोगे मधुर यादगार
शुभ तालमहल के दरवाजे,
कल आशा लता मुकेश रफी
की चाहोगे तुम आवाजें,
सौगन्ध माँ के चरणों की
तुमको कर देगें निराधार
भारत प्राणों का कण्ठहार।

फिर चाहोगे बसन्त दे दें
झूले दे दें कजरी दे दें,
दें अवध तुम्हे वृन्दावन दें
मोहन माखन, गगरी दे दें,
दीवाली दे फागुन दे दें
गाती कोयल काली दे दें,
हिमगिरि कैलास ऋचायें दें,
मधुवन मयुर माली दे दें,
मत देखो सरवर कमल खिले
संयत मन से क लो विचार।
भारत प्राणों का कण्ठहार