Monday, January 26, 2009

शीश नवाता चल

सुख की रजनी दुख की रातें
कुछ भी हों पर तु गाता चल,
जननी को शीश नवाता चल।

आराधन कर वर दान न ले
इस जीवन में अभिमान न ले,
होता चल नीलाम्बर जैसा
खारे सागर अभिमान न ले,

क्या हुआ अगर कुछ हाथ नहीं
चरणों की धूल उठाता चल।
जननी को शीश नवाता चल।

मत तोड़ हृदय अनुरागी मन
त्यागी हों वैरानी मन,
लेता चल अपने साथ पथिक
बेचारे या बड़भागी मन,

क्या हुआ अकेला जो निकला
मन से मन को समझाता चल।
जननी को शीश नवाता चल।

अम्बर बन तो झुक धरती पर
बादल बन तो रूक परती पर,
संवेदनशील हृदय पाकर
न्योछावर हो जा जगती पर,

सूरज जैसी सात्रा के हित,
संध्या के दीप जगाता चल।
जननी को शीश नवाता चल।

इस जग का तु अपमान न कर
किंचित कोई सम्मान न हर,
सब नियम नियति के चलने दे
इनसे कोई व्यापार न कर,

संसार तने तो ना रहे
अपने को स्वयं लचाता चल।
जननी को शीश नवाता चल।

नित नये नये संघान रचा
मानवता को हरहाल बचा,
ललकारे मर्यादा कोई
तो फिर ताकत की तु धूम मचा,

पहले मत छेड़ किसी को तू
मस्ती में बीन बजाता चल।
जननी को शीश नवाता चल।

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