Wednesday, January 30, 2008

मेरे अमर बहादुर का शायद कोई पैगाम आ गया

खाकी वर्दी ने ऐसा पैगाम सुनाया,
भाव देख खाकी वर्दी का
पिता बिना पैगाम सुने ही भांप गया था,
लगता लाल शहीद हो गया अपना कोई
यही सोच कर,
रोम-रोम उसका अपना ही काँप गया था,
बेदम हुआ शरीर काँपते रुंधे गले से
पत्नी से ही कहा अरी सुनती हो!
देखो मेरा बेटा शायद धरती माँ के काम आ गया,
मेरे अमर बहादुर का शायद कोई पैगाम आ गया,
यह सुनकर माँ चीख उठी ये क्या कहते हो!
सगुन-बेसगुन की बातें ही बेमतलब कर
जज्बातों के साये में दिनभर रहते हो,
किन्तु उसी क्षण फिर चीखी माँ जैसे विपदा आन पड़ी हो,
हुआ अनिष्ट यहीं अपने घर थी आशंका जान पड़ी हो,
सुनकर चीख रुदन के स्वर से
बच्चे-बच्चे का मन भर आया,
खाकी वर्दी ने ऐसा पैगाम सुनाया,
सुनकर वह पैगाम किसी के माथे का सिन्दूर धो गया,
टूट गया राखी का बन्धन छूट गया भाई, अपनापन,
ममता का दर्पण टूटा
और दुधमुंहे का भी साया भी दूर हो गया,
बँधी सिसकियाँ छूट गयी जब माँ ने अन्तिम दर्शन पाया,
खाकी वर्दी ने ऐसा पैगाम सुनाया,
ऐसा था पैगाम कि सुनकर
ग्राम बजौरा में जैसे कोहराम मचा हो,
बच्चे बूढे युवा सभी थे इस दुःख में इन सब के साथी,
शायद कोई शेष बचा हो,
सुना रहा था हाल अमर का उस सरहद का एक सिपाही,
सुनकर हाल अमर का आया मित्र एक था या हमराही,
बोला भैया क्या कहते हो?
फिर से सारा हाल सुनाओ,
सैनिक बोला फिर से सुनो सुनाता हूँ मैं,
यार तुम्हारे नर नाहर की
साड़ी कथा बताता हूँ मैं,
अमर तुम्हारा!
धरती माँ की रक्षा में दिन रात लगा था,
द्रास कारगिल की सीमा पर
भूखा प्यासा रहा और छः रात जगा था,
किन्तु न जाने क्या, कोई, कैसा!
नृसिंह सा अवतारी था,
छुड़ा दिया दुश्मन के छक्के भूल गये सब हक्के-बक्के,
एक-एक दुश्मन के जबड़े चीर रहा था,
बीस-बीस दुश्मन पर मेरा
अमर बहादुर ही भारी था,
देख युद्ध उस नर-नाहर का
मैंने सोचा क्या लगता है,
यह कोई राणाप्रताप या वीर शिवाजी सा लगता है,
रक्त बहाकर दुश्मन का
अपनी सरहद धो सकता है जो,
वीर कहीं का और नहीं रणधीर कहीं का और नहीं,
आजाद चन्द्रशेखर की ही
धरती का बस हो सकता है वो,
सरहद पर दुश्मन की जैसे छद्म युद्ध कि तैयारी थी,
किन्तु काल की गति न्यारी थी
और समय की बलिहारी थी,
या फिर मानो युद्ध भूमि में
अमर शहीदों की पारी में,
अबकी बारी अमर बहादुर की बारी थी,
उसी समय सर में थी गोली लगी अमर के
और गिरा वह लाल, लगा भूचाल आ गया,
और सदा के लिए सो गया वह अमर,
आया तो पल भर में ही उसका काल आ गया,
यहीं विधाता रूठ गया तुमसे या हमसे,
गया कारगिल साथी लौट न पाया,
खाकी वर्दी ने ऐसा पैगाम सुनाया,
हुई सूरमा की जब शुरू आखिरी यात्रा
खेत बाग़ वन पशु पक्षी
जन-जन में हाहाकार मचा था
बीच-बीच में अमर बहादुर अमर रहे,
का नारा ही बस शेष बचा था,
ठीक छः बजे चिर निद्रा में
वीरों की अन्तिम सैया पर वह धरती का लाल सो गया,
और बैसवारा की धरती का शूरवीर
वह अमर बहादुर अमर हो गया,
ऐसा अमर कि माँ का आँचल धन्य हो गया,
चुका गया वह कर्ज दूध का फ़र्ज़ पूत का,
और पिता के पाये विश्वासों का प्रतिफल धन्य हो गया,
धन्य हुए उस परमवीर के सभी सहोदर नगर गाँव घर,
और कलम तलवार धार की शक्ति उर्वरा धन्य हो गयी,
धन्य हुआ फिर वीर बैसवारा का पानी,
और निराला की धरती फिर धन्य हो गयी,
धन्य हुआ वह पल भी जिसने
जनपद का सम्मान बढ़ाया,
खाकी वर्दी ने ऐसा पैगाम सुनाया।

(कारगिल युद्ध में शहीद की पुण्य स्मृति में)

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