Wednesday, January 30, 2008

रावण का स्वर्ग से प्रश्न?

रावण करता प्रश्न स्वर्ग से
इस धरती की जनता के प्रत्येक वर्ग से,
आते हमको जाते हमको क्यों प्रतिवर्ष जलाते हमको,
बे मतलब ही अपना वक़्त गुजार रहे हो
यही धर्म रह गया तुम्हारा,
मरे हुए को मार रहे हो,
त्रेता से असंख्य जलते देखे हैं अब तक
किन्तु आज तक अंहकार क्या मर पाया है,
और राम के आदर्शों पर चलने का साहस भी
कोई कर पाया है,
दानवता की दुष्प्रवृत्ति क्या
मानव में अवशेष नही है,
धरती के कण-कण में कोई क्लेश नही है,
मर्यादा की रखवाली वालों से
क्या अनुबंध हो गये,
चीर हरण भी पांचाली के बन्द हो गये,
नहीं-नहीं
अब तो इस युग में
सीता या युग की परिणीता नहीं सुरक्षित,
मेरे युग में अहंकार की परिणति
रंग लायी थी,
लंका में पर वैदेही को
आंच नही आई थी,
और आज अब होता अत्याचार
चतुर्दिग बजता डंका,
राम तुम्हारे कलयुग में तो
घर-घर रावण घर-घर लंका,
कर्तव्यों से विमुख आपके
आदर्शों के नकली चेहरे,
करते घर-घर, द्वार-द्वार स्वयमेव स्वयं
अभिनय अच्छा है,
ऐसी मर्यादा से तो
मेरा जीवन परिचय अच्छा है,
इसीलिए तो मैं कहता हूँ सत्य आपसे,
बन्द करो अब ये सब नाटक खेल तमाशे,
मन में है उदगार कहीं यदि
राष्ट्रभक्ति या युग चिंतन के,
मर्यादित आचरण राम के कहीं शेष हैं,
तो मारो असली रावण को
जो है ऐंठा, घर-घर बैठा,
और जलाओ अहंकार के उपनिवेश को,
दंभ-द्वेष को,
हो प्रकाश विश्वास रहे,
घर-घर खुशहाली,
नित्य मने होली दीवाली,
और मनाओ वसुन्धरा के हर घर-घर में,
हो जायें बस एक-एक ही राम,
'सरस' तुलसी का दामन भर जायेगा,
और जलाना नही पड़ेगा
रावण खुद ही मर जायेगा।

No comments:

Post a Comment