Wednesday, January 30, 2008

हिन्दी

भारत की पहचान सर्वदा हिन्दी करती,
जन गण मन सम्मान सर्वदा हिन्दी करती।

इस धरती आकाश पवन में,
जनमानस के विह्वल मन में,
घुल मिलता विष द्रव्य द्वेष,
अति हिंसा अत्याचार वेश
पर अपनी सरस विधा के स्वर से,
नवयुग की नव ज्योति शिखर से
लहराती परचम पर अपनी तान,
सुनाती कोकिल कंठी सी अपनी मृदु बान
यही है भारतवर्ष महान
कहे संगीत स्वरों से,
वसुंधरा के कण-कण में भी
जान सर्वदा हिन्दी भरती,
भारत की पहचान सर्वदा हिन्दी करती,
जन गण मन सम्मान सर्वदा हिन्दी करती।

जब-जब देश घिरा अपनी अन्तर पीड़ा से,
क्षार-क्षार हो गया नीर अति,
रिक्त हुयी वैभव मानस मति,
मानव की मुस्कान घटी,
धर्म-कर्म की आन हटी,
तब उज्जल धार बही मधुरिम वीणा से,
नहा गया यह देश सुवासित स्निग्ध मलय से,
तुलसी, सूर, निराला की विधि विविध विधा से,
जन-मन में मधुपान सर्वदा हिन्दी करती,
भारत की पहचान सर्वदा हिन्दी करती,
जन गण मन सम्मान सवदा हिन्दी करती।

जब कोई मन अपनी विरह वेदना से अति कवलित,
अन्तर मन में आह छिपाये, पैमाने छलकाए, राह न पाये,
तब देदीप्यमान ऊषा के आँचल से अति विकसित,
सुरभित मन सरसाये, हर्षाये, या गीतकार के मन में
स्वयं समाहित हो उसका मन भरती,
भारत की पहचान सर्वदा हिन्दी करती,
जन गण मन सम्मान सर्वदा हिन्दी करती।

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