एक दिन!
एक दिन मैं भूल कर अस्तित्व अपना
बस किसी लय के सहारे,
गुन गुनाता चल रहा था
सोचता था प्रणय का ये गीत मेरा
एक दिन होगा अमर
किन्तु अनजाने न जाने किस तरह ठोकर लगी
तो टूट कर धागा गिरा था उस प्रणय का
जो बंधा था संवरण से
गीत कविता की विधा के आचरण से
मुक्त होकर इस ह्रदय ने गुन गुनाया
एक दिन
हो गया विश्वास जैसे हर किसी का एक ही दर्शन नही है
गीत लिखना भी वियोगी पन नही है
हैं कहीं उदगार यदि जन वेदना संवेदना के
राष्ट्रवंदन चेतना के
तो लिखो नवगीत अब उत्कर्ष के हर्ष या निष्कर्ष के
सम्पूर्ण भारत वर्ष के
इसलिए तो
गीत अब लिखने लगा हूँ क्रान्ति के ही
काँप उठती हैं जिसे सुनकर दिशायें
अब धारा पर
हो रहे बोझिल घिनौने वार को अब कलम की मार से
बचने न दूँगा
एक दिन।
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