हुई दुर्दशा, लोग हों गए धन के बिना बेहाल॥
एक कृषक था वहाँ उस समय जिसके विमल विचार।
सदा सोचता जो परहित हित, ऐसा चतुर उदार॥
उसने किया विचार हो गयी, नष्ट सभी हैं चीज़।
फसल उगाने समय यहाँ से, सब पायेंगे बीज॥
उसके घर में रखा हुआ था, इक बोरा भर धान।
सोचा इसे बचाना इस दम है, है कर्तव्य महान॥
ठान लिया इस बोरे का अब, नही करूँ स्पर्श।
और सभी के संग भूखा रहता, मर जाने में है हर्ष॥
इस प्रकार से भूखा रहता, कुछ भी छुआ ना धान।
भूखा रहा बिना कुछ खाए, छोड़ा अपना प्रान॥
एक दिवस देखा सब ही ने, पर हित का अनुराग।
बोरे पर सिर टिका पड़ा था, कितना अद्भुत त्याग॥
- ओम प्रकाश 'जयन्त'
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