धारती रही धरा की दिव्य भावना को उस,
भागीरथी धार के किनारा को प्रणाम है।
धड़ से उतारती रही हो शत्रुओं के शीश,
प्यासी रक्त धार की दुधारा को प्रणाम है।
कण-कण में संवारती हो सर्जना के स्वर,
वाणी की 'सरस' रस धारा को प्रणाम है।
धरती के हीर कहीं तुलसी कबीर कहीं,
ऐसे धीर-वीर बैसवारा को प्रणाम है।
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