Wednesday, January 30, 2008

माँ! मुझको ऐसा संबल दो!

हम
जीवन के किसी मोड़ पर
कहीं रुके हैं
तो
इसका यह अर्थ नहीं है
कहीं थके हैं
राह चुक गयी है मंजिल की
अथवा
चलने का मुझमें
उत्साह नहीं है
रुकना, चलना
तो
जीवन की गति है
शुद्ध नियति है
रुकना
चलना
तो जैसे जीवन का उदभव
रूक-रूक कर चलना तो
संकल्पों का संबल
किन्तु न जाने क्यों?
डरता हूँ
कभी कभी
सोचा करता हूँ
बोझ लिए फिरता हूँ जो
साड़ी दुनिया का
ढो पाऊंगा इसे
कहाँ तक!
जितनी दूर पहुँच कर पीड़ा
परिवर्तित हो शुद्ध प्यार में
काश!
वहाँ तक ले जाऊँ मैं
इतना साहस कर पाँऊ मैं
जहाँ पहुँचकर
अहंकार भी झुक जाता है
जहाँ पहुँच कर
सूरज भी जैसे
पल दो पल
रूक जाता है
वे पल दो पल ही
मेरे जीवन की मंजिल
ऐसे ही रूक-रूक
चल-चल कर
पा जाऊँ में
ऐसा बल दो
माँ मुझको ऐसा सम्बल दो।

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