Monday, January 14, 2008

कस्बे में मेरे कुछ बन्दर

कस्बे में मेरे कुछ बन्दर, आ जाते थाने के अन्दर।
यहाँ सुरक्षित रह फल खाते, चौबीस घंटे मौज मनाते।
पेड़ों पर रहते हैं बैठे, कभी-कभी वे दाल हिलाते॥
हर आने-जाने वाले की, सभी कोण से थाह लगाते।
आगन्तुक अपराधी हों यदि, घुड़की देकर उसे डराते॥
समझ लिया करते पहले से, कौन लिए आता है खंजर।
कस्बे में मेरे कुछ बन्दर अन्जाने थाने के अन्दर॥

निकट वहीं तहसील भवन है, कूद-फंड कर जम्प दिखाते।
बेघर, बेबस, मुफ्लसी आते, इन्हें देख कर बहुत लजाते॥
कुछ किसान भगवान् यहाँ पर, चना-चबेना तक लुटवाते।
घुड़की भी मजबूर कराती, हाथों से कागज छिन्वाते॥
थाह लगा लेते पहले से, क्या रक्खा झोले के अन्दर।
कस्बे में मेरे कुछ बन्दर आ जाते थाने के अन्दर॥

अस्पताल भी यहीं पास है, रातें प्रायः वहीं बिताते।
पानी पीकर काम चलाते, किन्तु नही वे दवा चुराते॥
स्वतः मरीजों से जो मिलता आसानी से उसे पचाते।
छेड़छाड़ करके नर्सों से, शायद अपना दिल बहलाते॥
स्वस्थ रहे तब तक जीवन सुख, अस्थि-माँस का मानव पंजर।
कस्बे में मेरे कुछ बन्दर, आ जाते थाने के अन्दर।।

निकट शंकरी मंदिर भी है, जहाँ नही ये बन्दर जाते।
हीनभाव से ग्रस्त कदाचित, पूजन से रहते कतराते।।
पुनर्जन्म पाकर यह आये, पैसा-पैसा रहे चुराते।
जैसी जिसकी वृत्ति रही है, कृत्य आज भी वे दुहराते॥
अरे पुजारी और प्रबन्धक, मरने बाद सोच लो मंजर।
कस्बे में मेरे कुछ बन्दर, आ जाते थाने के अन्दर॥


- सुरेन्द्र पाण्डेय 'रज्जन'

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