Sunday, January 20, 2008

मर कर क्यों जीते!

रोज-रोज मरकर क्यों जीते!

शाप नही जाने क्यों लगता इस कल युग में,
पाप पुण्य के आगे-आगे ही चलता क्यों?
सत्य हुआ क्यों मौन झूठ चिंग्घाड़ रहा है,
राग-द्वेष का बीज सदा से ही फलता क्यों?

अमृत घट छलकाते दानव देव मनुज विष पीते।
रोज-रोज मरकर क्यों जीते।

बेंच रहे हैं सपने आँखों के सब अन्धे,
काँटों के पारखी फूल के सौदागर ये।
खड़े रेत में ही, दुनिया को ये भरमायें,
दिखलायें मुट्ठी में सपनो के सागर ये।

देख-देख ये खेल निराले कितने ही युग बीते।
रोज-रोज मरकर क्यों जीते.

हुआ समर्पण त्याग स्वयं से किया छलावा,
झूठ स्वार्थ के खातिर भाई बाप सगा है।
हर पतंग की डोर कहीं से कटी हुई है,
सच्चाई के सूरज को भी ग्रहण लगा है.

दुनियाँ के ये नाते रिश्ते होते हैं क्यों तीते.
रोज-रोज मर कर क्यों जीते.

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