Sunday, January 20, 2008

सारा ब्रह्माण्ड एक है।

आसमान एक है।
सिर्फ धरती फटी है
कई टुकडों में बँटी है
कारण! धरती पर सबकी रगों में
अलग-अलग खून बहता है।
जहाँ जाति, धर्म, कोरा ईमान है,
आदमी बाद में
पहले, सिख, इसाई, हिन्दू, मुसलमान है
जो धर्म के नाम पर छोटी-छोटी बातों पर लड़ा है
एक दूसरे का खून करने पर अड़ा है
लगता है भगवान से बड़ा है
उसके लिए समाज मायने नही,
समाज तो अन्धा है, लूला है, लंगडा है,
आज इनके तो कल उनके साथ खड़ा है।
गरीबी, लाचारी, राष्ट्र की जिम्मेदारी,
राजनेता और जनता के बीच साझेदार सब कुछ तो वही है
सिर्फ तौर तरीके बदल गयें हैं,
एक दूसरे की राहें अलग-अलग मुड़ गयी हैं
धर्म, जाति और विचारधारायें स्वार्थ से जुड़ गयी हैं
ईमान मर गया है
ऐसे में एक कवि ही जीवित है
जो विष को अमृत समझ कर पीता है
जिन्दगी से हटकर शब्दों से जीता है
जिसे एक लम्बी बीमारी है
इसी पर समाज और राष्ट्र की ठेकेदारी है
जिसके लिए कोई बड़ा है न छोटा
ऊँचा है न नीचा
जिसके लिए अल्लाह ईश्वर एक है
हिन्दू मुसलमान एक है
धरती आसमान ही क्या जिसके लिए तो सारा ब्रह्माण्ड एक है।

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