Thursday, January 31, 2008

उत्तरकाण्ड

श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते

श्रीरामचरितमानस सप्तम सोपान (उत्तरकाण्ड)

श्लोक
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम, पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम ||१ ||

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ, जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ ||२ ||

कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम, कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम ||३ ||

दो -
रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग, जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ||
सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर, प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर ||
कौसल्यादि मातु सब मन अनंद अस होइ, आयउ प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ ||
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार, जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ||
रहेउ एक दिन अवधि अधारा, समुझत मन दुख भयउ अपारा ||
कारन कवन नाथ नहिं आयउ, जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ ||
अहह धन्य लछिमन बड़भागी, राम पदारबिंदु अनुरागी ||
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा, ताते नाथ संग नहिं लीन्हा ||
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी, नहिं निस्तार कलप सत कोरी ||
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ, दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ ||
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई, मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ||
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना, अधम कवन जग मोहि समाना ||

दो -
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत, बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ||
१(क) ||
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात, राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ||
१(ख) ||
देखत हनूमान अति हरषेउ, पुलक गात लोचन जल बरषेउ ||
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी, बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ||
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती, रटहु निरंतर गुन गन पाँती ||
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता, आयउ कुसल देव मुनि त्राता ||
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत, सीता सहित अनुज प्रभु आवत ||
सुनत बचन बिसरे सब दूखा, तृषावंत जिमि पाइ पियूषा ||
को तुम्ह तात कहाँ ते आए, मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ||
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना, नामु मोर सुनु कृपानिधाना ||
दीनबंधु रघुपति कर किंकर, सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर ||
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता, नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ||
कपि तव दरस सकल दुख बीते, मिले आजु मोहि राम पिरीते ||
बार बार बूझी कुसलाता, तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ||
एहि संदेस सरिस जग माहीं, करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ||
नाहिन तात उरिन मैं तोही, अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ||
तब हनुमंत नाइ पद माथा, कहे सकल रघुपति गुन गाथा ||
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं, सुमिरहिं मोहि दास की नाईं ||
छं -
निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर यो, सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर यो ||
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो, काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो ||

दो -
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात, पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात ||
२(क) ||
सो -
भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं, कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ||
२(ख) ||
हरषि भरत कोसलपुर आए, समाचार सब गुरहि सुनाए ||
पुनि मंदिर महँ बात जनाई, आवत नगर कुसल रघुराई ||
सुनत सकल जननीं उठि धाईं, कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ||
समाचार पुरबासिन्ह पाए, नर अरु नारि हरषि सब धाए ||
दधि दुर्बा रोचन फल फूला, नव तुलसी दल मंगल मूला ||
भरि भरि हेम थार भामिनी, गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी ||
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं, बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं ||
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई, तुम्ह देखे दयाल रघुराई ||
अवधपुरी प्रभु आवत जानी, भई सकल सोभा कै खानी ||
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा, भइ सरजू अति निर्मल नीरा ||

दो -
हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत, चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ||
३(क) ||
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान, देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ||
३(ख) ||
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान, बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ||
३(ग) ||
इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर, कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ||
सुनु कपीस अंगद लंकेसा, पावन पुरी रुचिर यह देसा ||
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना, बेद पुरान बिदित जगु जाना ||
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ||
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि, उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ||
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा, मम समीप नर पावहिं बासा ||
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी ||
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी, धन्य अवध जो राम बखानी ||

दो -
आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान, नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ||
४(क) ||
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु, प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ||
४(ख) ||
आए भरत संग सब लोगा, कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ||
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक, देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ||
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह, अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ||
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया, हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ||
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा, धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा ||
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज, नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ||
परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए ||
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े, नव राजीव नयन जल बाढ़े ||
छं -
राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी, अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ||
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही, जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ||
१ ||
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई, सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ||
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो, बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ||
२ ||

दो -
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ, लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ||
५ ||
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे, दुसह बिरह संभव दुख मेटे ||
सीता चरन भरत सिरु नावा, अनुज समेत परम सुख पावा ||
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी, जनित बियोग बिपति सब नासी ||
प्रेमातुर सब लोग निहारी, कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ||
अमित रूप प्रगटे तेहि काला, जथाजोग मिले सबहि कृपाला ||
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी, किए सकल नर नारि बिसोकी ||
छन महिं सबहि मिले भगवाना, उमा मरम यह काहुँ न जाना ||
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा, आगें चले सील गुन धामा ||
कौसल्यादि मातु सब धाई, निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ||
छं -
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं, दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई ||
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे, गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ||

दो -
भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि, रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ||
६(क) ||
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ, कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ||
६ ||
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही, चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ||
देहिं असीस बूझि कुसलाता, होइ अचल तुम्हार अहिवाता ||
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं, मंगल जानि नयन जल रोकहिं ||
कनक थार आरति उतारहिं, बार बार प्रभु गात निहारहिं ||
नाना भाँति निछावरि करहीं, परमानंद हरष उर भरहीं ||
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि, चितवति कृपासिंधु रनधीरहि ||
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा, कवन भाँति लंकापति मारा ||
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे, निसिचर सुभट महाबल भारे ||

दो -
लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु, परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ||
७ ||
लंकापति कपीस नल नीला, जामवंत अंगद सुभसीला ||
हनुमदादि सब बानर बीरा, धरे मनोहर मनुज सरीरा ||
भरत सनेह सील ब्रत नेमा, सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ||
देखि नगरबासिन्ह कै रीती, सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ||
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए, मुनि पद लागहु सकल सिखाए ||
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे, इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ||
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे, भए समर सागर कहँ बेरे ||
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे, भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ||
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, निमिष निमिष उपजत सुख नए ||

दो -
कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ ||
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ||
८(क) ||
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद, चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ||
८(ख) ||
कंचन कलस बिचित्र सँवारे, सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ||
बंदनवार पताका केतू, सबन्हि बनाए मंगल हेतू ||
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई, गजमनि रचि बहु चौक पुराई ||
नाना भाँति सुमंगल साजे, हरषि नगर निसान बहु बाजे ||
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं, देहिं असीस हरष उर भरहीं ||
कंचन थार आरती नाना, जुबती सजें करहिं सुभ गाना ||
करहिं आरती आरतिहर कें, रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें ||
पुर सोभा संपति कल्याना, निगम सेष सारदा बखाना ||
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं, उमा तासु गुन नर किमि कहहीं ||

दो -
नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस, अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस ||
९(क) ||
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान, पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ||
९(ख) ||
प्रभु जानी कैकेई लजानी, प्रथम तासु गृह गए भवानी ||
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा, पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ||
कृपासिंधु जब मंदिर गए, पुर नर नारि सुखी सब भए ||
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई, आजु सुघरी सुदिन समुदाई ||
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन, रामचंद्र बैठहिं सिंघासन ||
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए, सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ||
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका, जग अभिराम राम अभिषेका ||
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे, महाराज कहँ तिलक करीजै ||

दो -
तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ, रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ||
१०(क) ||
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ, हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ||
१०(ख) ||
नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम अवधपुरी अति रुचिर बनाई, देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ||
राम कहा सेवकन्ह बुलाई, प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ||
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए, सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ||
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे, निज कर राम जटा निरुआरे ||
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई, भगत बछल कृपाल रघुराई ||
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई, सेष कोटि सत सकहिं न गाई ||
पुनि निज जटा राम बिबराए, गुर अनुसासन मागि नहाए ||
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे, अंग अनंग देखि सत लाजे ||

दो -
सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ, दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ||
११(क) ||
राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि, देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ||
११(ख) ||
सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद, चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ||
११(ग) ||
प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा, तुरत दिब्य सिंघासन मागा ||
रबि सम तेज सो बरनि न जाई, बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ||
जनकसुता समेत रघुराई, पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ||
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे, नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ||
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा, पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ||
सुत बिलोकि हरषीं महतारी, बार बार आरती उतारी ||
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे, जाचक सकल अजाचक कीन्हे ||
सिंघासन पर त्रिभुअन साई, देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ||
छं -
नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं, नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ||
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते, गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ||
१ ||
श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोहई, नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ||
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे, अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ||
२ ||

दो -
वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस, बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ||
१२(क) ||
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम, बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ||
१२(ख) ||
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान, लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ||
१२(ग) ||
छं -
जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने, दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ||
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे, जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ||
१ ||
तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे, भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ||
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे, भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ||
२ ||
जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी, ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ||
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे, जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ||
३ ||
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी, नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ||
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे, पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ||
४ ||
अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने, षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ||
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे, पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ||
५ ||
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं, ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ||
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं, मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ||
६ ||

दो -
सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार, अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ||
१३(क) ||
बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर, बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ||
१३(ख) ||
छं -
जय राम रमारमनं समनं, भव ताप भयाकुल पाहि जनं ||
अवधेस सुरेस रमेस बिभो, सरनागत मागत पाहि प्रभो ||
१ ||
दससीस बिनासन बीस भुजा, कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ||
रजनीचर बृंद पतंग रहे, सर पावक तेज प्रचंड दहे ||
२ ||
महि मंडल मंडन चारुतरं, धृत सायक चाप निषंग बरं ||
मद मोह महा ममता रजनी, तम पुंज दिवाकर तेज अनी ||
३ ||
मनजात किरात निपात किए, मृग लोग कुभोग सरेन हिए ||
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे, बिषया बन पावँर भूलि परे ||
४ ||
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए, भवदंघ्रि निरादर के फल ए ||
भव सिंधु अगाध परे नर ते, पद पंकज प्रेम न जे करते ||
५ ||
अति दीन मलीन दुखी नितहीं, जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ||
अवलंब भवंत कथा जिन्ह के ||
प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ||
६ ||
नहिं राग न लोभ न मान मदा ||
तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ||
एहि ते तव सेवक होत मुदा, मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ||
७ ||
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ, पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ||
सम मानि निरादर आदरही, सब संत सुखी बिचरंति मही ||
८ ||
मुनि मानस पंकज भृंग भजे, रघुबीर महा रनधीर अजे ||
तव नाम जपामि नमामि हरी, भव रोग महागद मान अरी ||
९ ||
गुन सील कृपा परमायतनं, प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ||
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं, महिपाल बिलोकय दीन जनं ||
१० ||

दो -
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग, पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ||
१४(क) ||
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास, तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ||
१४(ख) ||
सुनु खगपति यह कथा पावनी, त्रिबिध ताप भव भय दावनी ||
महाराज कर सुभ अभिषेका, सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ||
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं, सुख संपति नाना बिधि पावहिं ||
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं, अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ||
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई, लहहिं भगति गति संपति नई ||
खगपति राम कथा मैं बरनी, स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ||
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी, मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ||
नित नव मंगल कौसलपुरी, हरषित रहहिं लोग सब कुरी ||
नित नइ प्रीति राम पद पंकज, सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ||
मंगन बहु प्रकार पहिराए, द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ||

दो -
ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति, जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति ||
१५ ||
बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं, जिमि परद्रोह संत मन माही ||
तब रघुपति सब सखा बोलाए, आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ||
परम प्रीति समीप बैठारे, भगत सुखद मृदु बचन उचारे ||
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई, मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई ||
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे, मम हित लागि भवन सुख त्यागे ||
अनुज राज संपति बैदेही, देह गेह परिवार सनेही ||
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना, मृषा न कहउँ मोर यह बाना ||
सब के प्रिय सेवक यह नीती, मोरें अधिक दास पर प्रीती ||

दो -
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम, सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ||
१६ ||
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, को हम कहाँ बिसरि तन गए ||
एकटक रहे जोरि कर आगे, सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ||
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा, कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ||
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं, पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं ||
तब प्रभु भूषन बसन मगाए, नाना रंग अनूप सुहाए ||
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए, बसन भरत निज हाथ बनाए ||
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए, लंकापति रघुपति मन भाए ||
अंगद बैठ रहा नहिं डोला, प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ||

दो -
जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ, हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ||
१७(क) ||
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि, अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ||
१७(ख) ||
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो, दीन दयाकर आरत बंधो ||
मरती बेर नाथ मोहि बाली, गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली ||
असरन सरन बिरदु संभारी, मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ||
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता, जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ||
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा, प्रभु तजि भवन काज मम काहा ||
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना, राखहु सरन नाथ जन दीना ||
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ, पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ ||
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही, अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ||

दो -
अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव, प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव ||
१८(क) ||
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ, बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ||
१८(ख) ||
भरत अनुज सौमित्र समेता, पठवन चले भगत कृत चेता ||
अंगद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा, फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ||
बार बार कर दंड प्रनामा, मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ||
राम बिलोकनि बोलनि चलनी, सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ||
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी, चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी ||
अति आदर सब कपि पहुँचाए, भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ||
तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ||
दिन दस करि रघुपति पद सेवा, पुनि तव चरन देखिहउँ देवा ||
पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा ||
अस कहि कपि सब चले तुरंता, अंगद कहइ सुनहु हनुमंता ||

दो -
कहेहु दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि, बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ||
१९(क) ||
अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत, तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भए भगवंत ||
!९(ख) ||
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि, चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ||
१९(ग) ||
पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा, दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ||
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू, मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ||
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता, सदा रहेहु पुर आवत जाता ||
बचन सुनत उपजा सुख भारी, परेउ चरन भरि लोचन बारी ||
चरन नलिन उर धरि गृह आवा, प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ||
रघुपति चरित देखि पुरबासी, पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ||
राम राज बैंठें त्रेलोका, हरषित भए गए सब सोका ||
बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई ||

दो -
बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग, चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ||
२० ||
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ||
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ||
चारिउ चरन धर्म जग माहीं, पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ||
राम भगति रत नर अरु नारी, सकल परम गति के अधिकारी ||
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ||
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ||
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी, नर अरु नारि चतुर सब गुनी ||
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी, सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ||

दो -
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ||
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ||
२१ ||
भूमि सप्त सागर मेखला, एक भूप रघुपति कोसला ||
भुअन अनेक रोम प्रति जासू, यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ||
सो महिमा समुझत प्रभु केरी, यह बरनत हीनता घनेरी ||
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी, फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ||
सोउ जाने कर फल यह लीला, कहहिं महा मुनिबर दमसीला ||
राम राज कर सुख संपदा, बरनि न सकइ फनीस सारदा ||
सब उदार सब पर उपकारी, बिप्र चरन सेवक नर नारी ||
एकनारि ब्रत रत सब झारी, ते मन बच क्रम पति हितकारी ||

दो -
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज, जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ||
२२ ||
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन, रहहि एक सँग गज पंचानन ||
खग मृग सहज बयरु बिसराई, सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ||
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा, अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ||
सीतल सुरभि पवन बह मंदा, गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ||
लता बिटप मागें मधु चवहीं, मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ||
ससि संपन्न सदा रह धरनी, त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ||
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी, जगदातमा भूप जग जानी ||
सरिता सकल बहहिं बर बारी, सीतल अमल स्वाद सुखकारी ||
सागर निज मरजादाँ रहहीं, डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ||
सरसिज संकुल सकल तड़ागा, अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ||

दो -
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज, मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ||
२३ ||
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे, दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ||
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर, गुनातीत अरु भोग पुरंदर ||
पति अनुकूल सदा रह सीता, सोभा खानि सुसील बिनीता ||
जानति कृपासिंधु प्रभुताई, सेवति चरन कमल मन लाई ||
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी, बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ||
निज कर गृह परिचरजा करई, रामचंद्र आयसु अनुसरई ||
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ, सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ||
कौसल्यादि सासु गृह माहीं, सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ||
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता, जगदंबा संततमनिंदिता ||

दो -
जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ, राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ||
२४ ||
सेवहिं सानकूल सब भाई, राम चरन रति अति अधिकाई ||
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं, कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ||
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती ||
हरषित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ||
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं, श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ||
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए, लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ||
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर, हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ||
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे, भए रूप गुन सील घनेरे ||

दो -
ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार, सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ||
२५ ||
प्रातकाल सरऊ करि मज्जन, बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ||
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं, सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ||
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं, देखि सकल जननीं सुख भरहीं ||
भरत सत्रुहन दोनउ भाई, सहित पवनसुत उपबन जाई ||
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा, कह हनुमान सुमति अवगाहा ||
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं, बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ||
सब कें गृह गृह होहिं पुराना, रामचरित पावन बिधि नाना ||
नर अरु नारि राम गुन गानहिं, करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ||

दो -
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज, सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ||
२६ ||
नारदादि सनकादि मुनीसा, दरसन लागि कोसलाधीसा ||
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं, देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ||
जातरूप मनि रचित अटारीं, नाना रंग रुचिर गच ढारीं ||
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर, रचे कँगूरा रंग रंग बर ||
नव ग्रह निकर अनीक बनाई, जनु घेरी अमरावति आई ||
महि बहु रंग रचित गच काँचा, जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ||
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत, कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ||
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं, गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ||
छं -
मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची, मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ||
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे, प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ||

दो -
चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ, राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ||
२७ ||
सुमन बाटिका सबहिं लगाई, बिबिध भाँति करि जतन बनाई ||
लता ललित बहु जाति सुहाई, फूलहिं सदा बंसत कि नाई ||
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर, मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ||
नाना खग बालकन्हि जिआए, बोलत मधुर उड़ात सुहाए ||
मोर हंस सारस पारावत, भवननि पर सोभा अति पावत ||
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं, बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ||
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक, कहहु राम रघुपति जनपालक ||
राज दुआर सकल बिधि चारू, बीथीं चौहट रूचिर बजारू ||
छं -
बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए, जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ||
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते, सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ||

दो -
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर, बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ||
२८ ||
दूरि फराक रुचिर सो घाटा, जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ||
पनिघट परम मनोहर नाना, तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ||
राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ||
तीर तीर देवन्ह के मंदिर, चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ||
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी, बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ||
तीर तीर तुलसिका सुहाई, बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ||
पुर सोभा कछु बरनि न जाई, बाहेर नगर परम रुचिराई ||
देखत पुरी अखिल अघ भागा, बन उपबन बापिका तड़ागा ||
छं -
बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं, सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ||
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं, आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ||

दो -
रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ, अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ||
२९ ||
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं, बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ||
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि, सोभा सील रूप गुन धामहि ||
जलज बिलोचन स्यामल गातहि, पलक नयन इव सेवक त्रातहि ||
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि, संत कंज बन रबि रनधीरहि ||
काल कराल ब्याल खगराजहि, नमत राम अकाम ममता जहि ||
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि, मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ||
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि, दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ||
जनकसुता समेत रघुबीरहि, कस न भजहु भंजन भव भीरहि ||
बहु बासना मसक हिम रासिहि, सदा एकरस अज अबिनासिहि ||
मुनि रंजन भंजन महि भारहि, तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ||

दो -
एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान, सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ||
३० ||
जब ते राम प्रताप खगेसा, उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ||
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका, बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ||
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी, प्रथम अबिद्या निसा नसानी ||
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने, काम क्रोध कैरव सकुचाने ||
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ, ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ||
मत्सर मान मोह मद चोरा, इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ||
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना, ए पंकज बिकसे बिधि नाना ||
सुख संतोष बिराग बिबेका, बिगत सोक ए कोक अनेका ||

दो -
यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास, पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ||
३१ ||
भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा, संग परम प्रिय पवनकुमारा ||
सुंदर उपबन देखन गए, सब तरु कुसुमित पल्लव नए ||
जानि समय सनकादिक आए, तेज पुंज गुन सील सुहाए ||
ब्रह्मानंद सदा लयलीना, देखत बालक बहुकालीना ||
रूप धरें जनु चारिउ बेदा, समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ||
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं, रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं ||
तहाँ रहे सनकादि भवानी, जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी ||
राम कथा मुनिबर बहु बरनी, ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी ||

दो -
देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह, स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ||
३२ ||
कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई, सहित पवनसुत सुख अधिकाई ||
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी, भए मगन मन सके न रोकी ||
स्यामल गात सरोरुह लोचन, सुंदरता मंदिर भव मोचन ||
एकटक रहे निमेष न लावहिं, प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ||
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा, स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा ||
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे, परम मनोहर बचन उचारे ||
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा, तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा ||
बड़े भाग पाइब सतसंगा, बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा ||

दो -
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ, कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ||
३३ ||
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी, पुलकित तन अस्तुति अनुसारी ||
जय भगवंत अनंत अनामय, अनघ अनेक एक करुनामय ||
जय निर्गुन जय जय गुन सागर, सुख मंदिर सुंदर अति नागर ||
जय इंदिरा रमन जय भूधर, अनुपम अज अनादि सोभाकर ||
ग्यान निधान अमान मानप्रद, पावन सुजस पुरान बेद बद ||
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन, नाम अनेक अनाम निरंजन ||
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय, बससि सदा हम कहुँ परिपालय ||
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय, ह्रदि बसि राम काम मद गंजय ||

दो -
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम, प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ||
३४ ||
देहु भगति रघुपति अति पावनि, त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि ||
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु, होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु ||
भव बारिधि कुंभज रघुनायक, सेवत सुलभ सकल सुख दायक ||
मन संभव दारुन दुख दारय, दीनबंधु समता बिस्तारय ||
आस त्रास इरिषादि निवारक, बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक ||
भूप मौलि मन मंडन धरनी, देहि भगति संसृति सरि तरनी ||
मुनि मन मानस हंस निरंतर, चरन कमल बंदित अज संकर ||
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक, काल करम सुभाउ गुन भच्छक ||
तारन तरन हरन सब दूषन, तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ||

दो -
बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ, ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ||
३५ ||
सनकादिक बिधि लोक सिधाए, भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए ||
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं, चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं ||
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी, जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी ||
अंतरजामी प्रभु सभ जाना, बूझत कहहु काह हनुमाना ||
जोरि पानि कह तब हनुमंता, सुनहु दीनदयाल भगवंता ||
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं, प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं ||
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ, भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ ||
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना, सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ||

दो -
नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह, केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ||
३६ ||
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई, मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ||
संतन्ह कै महिमा रघुराई, बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ||
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई, तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ||
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन, कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन ||
संत असंत भेद बिलगाई, प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ||
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता, अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ||
संत असंतन्हि कै असि करनी, जिमि कुठार चंदन आचरनी ||
काटइ परसु मलय सुनु भाई, निज गुन देइ सुगंध बसाई ||

दो -
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड, अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड ||
३७ ||
बिषय अलंपट सील गुनाकर, पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ||
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी, लोभामरष हरष भय त्यागी ||
कोमलचित दीनन्ह पर दाया, मन बच क्रम मम भगति अमाया ||
सबहि मानप्रद आपु अमानी, भरत प्रान सम मम ते प्रानी ||
बिगत काम मम नाम परायन, सांति बिरति बिनती मुदितायन ||
सीतलता सरलता मयत्री, द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ||
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर, जानेहु तात संत संतत फुर ||
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं, परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं ||

दो -
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज, ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज ||
३८ ||
सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ, भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ ||
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई, जिमि कलपहि घालइ हरहाई ||
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी, जरहिं सदा पर संपति देखी ||
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई, हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ||
काम क्रोध मद लोभ परायन, निर्दय कपटी कुटिल मलायन ||
बयरु अकारन सब काहू सों, जो कर हित अनहित ताहू सों ||
झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चबेना ||
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा, खाइ महा अति हृदय कठोरा ||

दो -
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद, ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ||
३९ ||
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन, सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ||
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई, स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ||
जब काहू कै देखहिं बिपती, सुखी भए मानहुँ जग नृपती ||
स्वारथ रत परिवार बिरोधी, लंपट काम लोभ अति क्रोधी ||
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं, आपु गए अरु घालहिं आनहिं ||
करहिं मोह बस द्रोह परावा, संत संग हरि कथा न भावा ||
अवगुन सिंधु मंदमति कामी, बेद बिदूषक परधन स्वामी ||
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा, दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा ||

दो -
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं, द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ||
४० ||
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||
निर्नय सकल पुरान बेद कर, कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ||
नर सरीर धरि जे पर पीरा, करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ||
करहिं मोह बस नर अघ नाना, स्वारथ रत परलोक नसाना ||
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता, सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता ||
अस बिचारि जे परम सयाने, भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ||
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक, भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ||
संत असंतन्ह के गुन भाषे, ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ||

दो -
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक, गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ||
४१ ||
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई, हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ||
करहिं बिनय अति बारहिं बारा, हनूमान हियँ हरष अपारा ||
पुनि रघुपति निज मंदिर गए, एहि बिधि चरित करत नित नए ||
बार बार नारद मुनि आवहिं, चरित पुनीत राम के गावहिं ||
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं, ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ||
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं, पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ||
सनकादिक नारदहि सराहहिं, जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ||
सुनि गुन गान समाधि बिसारी ||
सादर सुनहिं परम अधिकारी ||

दो -
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान, जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ||
४२ ||
एक बार रघुनाथ बोलाए, गुर द्विज पुरबासी सब आए ||
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन, बोले बचन भगत भव भंजन ||
सनहु सकल पुरजन मम बानी, कहउँ न कछु ममता उर आनी ||
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई, सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ||
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन मानै जोई ||
जौं अनीति कछु भाषौं भाई, तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ||
बड़ें भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा ||
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ||

दो -
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ, कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ||
४३ ||
एहि तन कर फल बिषय न भाई, स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ||
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं, पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ||
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई, गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ||
आकर चारि लच्छ चौरासी, जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ||
फिरत सदा माया कर प्रेरा, काल कर्म सुभाव गुन घेरा ||
कबहुँक करि करुना नर देही, देत ईस बिनु हेतु सनेही ||
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो, सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा, दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ||

दो -
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ, सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||
४४ ||
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू, सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ||
सुलभ सुखद मारग यह भाई, भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ||
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका, साधन कठिन न मन कहुँ टेका ||
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ, भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ||
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी, बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ||
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता, सतसंगति संसृति कर अंता ||
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा, मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ||
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा, जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ||

दो -
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि, संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ||
४५ ||
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा ||
सरल सुभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ संतोष सदाई ||
मोर दास कहाइ नर आसा, करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ||
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई, एहि आचरन बस्य मैं भाई ||
बैर न बिग्रह आस न त्रासा, सुखमय ताहि सदा सब आसा ||
अनारंभ अनिकेत अमानी, अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ||
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा, तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ||
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई, दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ||

दो -
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह, ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ||
४६ ||
सुनत सुधासम बचन राम के, गहे सबनि पद कृपाधाम के ||
जननि जनक गुर बंधु हमारे, कृपा निधान प्रान ते प्यारे ||
तनु धनु धाम राम हितकारी, सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ||
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ, मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ||
हेतु रहित जग जुग उपकारी, तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ||
स्वारथ मीत सकल जग माहीं, सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ||
सबके बचन प्रेम रस साने, सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ||
निज निज गृह गए आयसु पाई, बरनत प्रभु बतकही सुहाई ||

दो -
\-उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप, ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ||
४७ ||
एक बार बसिष्ट मुनि आए, जहाँ राम सुखधाम सुहाए ||
अति आदर रघुनायक कीन्हा, पद पखारि पादोदक लीन्हा ||
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी, कृपासिंधु बिनती कछु मोरी ||
देखि देखि आचरन तुम्हारा, होत मोह मम हृदयँ अपारा ||
महिमा अमित बेद नहिं जाना, मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ||
उपरोहित्य कर्म अति मंदा, बेद पुरान सुमृति कर निंदा ||
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही, कहा लाभ आगें सुत तोही ||
परमातमा ब्रह्म नर रूपा, होइहि रघुकुल भूषन भूपा ||

दो -
\-तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान, जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ||
४८ ||
जप तप नियम जोग निज धर्मा, श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा ||
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन, जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ||
आगम निगम पुरान अनेका, पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ||
तब पद पंकज प्रीति निरंतर, सब साधन कर यह फल सुंदर ||
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ, घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ||
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई, अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ||
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित, सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित ||
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई, जाकें पद सरोज रति होई ||

दो -
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु, जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ||
४९ ||
अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए, कृपासिंधु के मन अति भाए ||
हनूमान भरतादिक भ्राता, संग लिए सेवक सुखदाता ||
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए, गज रथ तुरग मगावत भए ||
देखि कृपा करि सकल सराहे, दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ||
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई, गए जहाँ सीतल अवँराई ||
भरत दीन्ह निज बसन डसाई, बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ||
मारुतसुत तब मारूत करई, पुलक बपुष लोचन जल भरई ||
हनूमान सम नहिं बड़भागी, नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ||
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई, बार बार प्रभु निज मुख गाई ||

दो -
तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन, गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ||
५० ||
मामवलोकय पंकज लोचन, कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ||
नील तामरस स्याम काम अरि, हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ||
जातुधान बरूथ बल भंजन, मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन ||
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक, असरन सरन दीन जन गाहक ||
भुज बल बिपुल भार महि खंडित, खर दूषन बिराध बध पंडित ||
रावनारि सुखरूप भूपबर, जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ||
सुजस पुरान बिदित निगमागम, गावत सुर मुनि संत समागम ||
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन, सब बिधि कुसल कोसला मंडन ||
कलि मल मथन नाम ममताहन, तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ||

दो -
प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम, सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ||
५१ ||
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा, मैं सब कही मोरि मति जथा ||
राम चरित सत कोटि अपारा, श्रुति सारदा न बरनै पारा ||
राम अनंत अनंत गुनानी, जन्म कर्म अनंत नामानी ||
जल सीकर महि रज गनि जाहीं, रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ||
बिमल कथा हरि पद दायनी, भगति होइ सुनि अनपायनी ||
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई, जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ||
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी, अब का कहौं सो कहहु भवानी ||
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी, बोली अति बिनीत मृदु बानी ||
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी, सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ||

दो -
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह, जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ||
५२(क) ||
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर, श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ||
५२(ख) ||
राम चरित जे सुनत अघाहीं, रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ||
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ, हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ||
भव सागर चह पार जो पावा, राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ||
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा, श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ||
श्रवनवंत अस को जग माहीं, जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ||
ते जड़ जीव निजात्मक घाती, जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ||
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा, सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ||
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई, कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ||

दो -
बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह, बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ||
५३ ||
नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ||
धर्मसील कोटिक महँ कोई, बिषय बिमुख बिराग रत होई ||
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई, सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ||
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ, जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ||
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी, दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ||
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी, जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ||
सब ते सो दुर्लभ सुरराया, राम भगति रत गत मद माया ||
सो हरिभगति काग किमि पाई, बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ||

दो -
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर, नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ||
५४ ||
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा, कहहु कृपाल काग कहँ पावा ||
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी, कहहु मोहि अति कौतुक भारी ||
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी, हरि सेवक अति निकट निवासी ||
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई, सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ||
कहहु कवन बिधि भा संबादा, दोउ हरिभगत काग उरगादा ||
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई, बोले सिव सादर सुख पाई ||
धन्य सती पावन मति तोरी, रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ||
सुनहु परम पुनीत इतिहासा, जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ||
उपजइ राम चरन बिस्वासा, भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ||

दो -
ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ, सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ||
५५ ||
मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि, सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ||
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा, सती नाम तब रहा तुम्हारा ||
दच्छ जग्य तब भा अपमाना, तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ||
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा, जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ||
तब अति सोच भयउ मन मोरें, दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ||
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा, कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ||
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी, नील सैल एक सुन्दर भूरी ||
तासु कनकमय सिखर सुहाए, चारि चारु मोरे मन भाए ||
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला, बट पीपर पाकरी रसाला ||
सैलोपरि सर सुंदर सोहा, मनि सोपान देखि मन मोहा ||

दो -
\-सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग, कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ||
५६ ||
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई, तासु नास कल्पांत न होई ||
माया कृत गुन दोष अनेका, मोह मनोज आदि अबिबेका ||
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं, तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ||
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा, सो सुनु उमा सहित अनुरागा ||
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई, जाप जग्य पाकरि तर करई ||
आँब छाहँ कर मानस पूजा, तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ||
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा, आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ||
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना, प्रेम सहित कर सादर गाना ||
सुनहिं सकल मति बिमल मराला, बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ||
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा, उर उपजा आनंद बिसेषा ||

दो -
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास, सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ||
५७ ||
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा, मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ||
अब सो कथा सुनहु जेही हेतू, गयउ काग पहिं खग कुल केतू ||
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा, समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ||
इंद्रजीत कर आपु बँधायो, तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ||
बंधन काटि गयो उरगादा, उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ||
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती, करत बिचार उरग आराती ||
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा, माया मोह पार परमीसा ||
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं, देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ||

दो -
\-भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम, खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ||
५८ ||
नाना भाँति मनहि समुझावा, प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ||
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई, भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ||
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं, कहेसि जो संसय निज मन माहीं ||
सुनि नारदहि लागि अति दाया, सुनु खग प्रबल राम कै माया ||
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई, बरिआई बिमोह मन करई ||
जेहिं बहु बार नचावा मोही, सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ||
महामोह उपजा उर तोरें, मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ||
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा, सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ||

दो -
अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान, हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ||
५९ ||
तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ, निज संदेह सुनावत भयऊ ||
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा, समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ||
मन महुँ करइ बिचार बिधाता, माया बस कबि कोबिद ग्याता ||
हरि माया कर अमिति प्रभावा, बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ||
अग जगमय जग मम उपराजा, नहिं आचरज मोह खगराजा ||
तब बोले बिधि गिरा सुहाई, जान महेस राम प्रभुताई ||
बैनतेय संकर पहिं जाहू, तात अनत पूछहु जनि काहू ||
तहँ होइहि तव संसय हानी, चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ||

दो -
परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास, जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ||
६० ||
तेहिं मम पद सादर सिरु नावा, पुनि आपन संदेह सुनावा ||
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी, परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ||
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही, कवन भाँति समुझावौं तोही ||
तबहि होइ सब संसय भंगा, जब बहु काल करिअ सतसंगा ||
सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई, नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ||
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना, प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ||
नित हरि कथा होत जहँ भाई, पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ||
जाइहि सुनत सकल संदेहा, राम चरन होइहि अति नेहा ||

दो -
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग, मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ||
६१ ||
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ||
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला, तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ||
राम भगति पथ परम प्रबीना, ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ||
राम कथा सो कहइ निरंतर, सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ||
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी, होइहि मोह जनित दुख दूरी ||
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई, चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ||
ताते उमा न मैं समुझावा, रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ||
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना, सो खौवै चह कृपानिधाना ||
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा, समुझइ खग खगही कै भाषा ||
प्रभु माया बलवंत भवानी, जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ||

दो -
ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान, ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ||
६२(क) ||
मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन, अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ||
६२(ख) ||
गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा, मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ||
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ, माया मोह सोच सब गयऊ ||
करि तड़ाग मज्जन जलपाना, बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ||
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए, सुनै राम के चरित सुहाए ||
कथा अरंभ करै सोइ चाहा, तेही समय गयउ खगनाहा ||
आवत देखि सकल खगराजा, हरषेउ बायस सहित समाजा ||
अति आदर खगपति कर कीन्हा, स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ||
करि पूजा समेत अनुरागा, मधुर बचन तब बोलेउ कागा ||

दो -
नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज, आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ||
६३(क) ||
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस, जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ||
६३(ख) ||
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ, सो सब भयउ दरस तव पायउँ ||
देखि परम पावन तव आश्रम, गयउ मोह संसय नाना भ्रम ||
अब श्रीराम कथा अति पावनि, सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ||
सादर तात सुनावहु मोही, बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ||
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता, सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ||
भयउ तासु मन परम उछाहा, लाग कहै रघुपति गुन गाहा ||
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी, रामचरित सर कहेसि बखानी ||
पुनि नारद कर मोह अपारा, कहेसि बहुरि रावन अवतारा ||
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई, तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ||

दो -
बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह, रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ||
६४ ||
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा, पुनि नृप बचन राज रस भंगा ||
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा, कहेसि राम लछिमन संबादा ||
बिपिन गवन केवट अनुरागा, सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ||
बालमीक प्रभु मिलन बखाना, चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ||
सचिवागवन नगर नृप मरना, भरतागवन प्रेम बहु बरना ||
करि नृप क्रिया संग पुरबासी, भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ||
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए, लै पादुका अवधपुर आए ||
भरत रहनि सुरपति सुत करनी, प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ||

दो -
कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ||
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ||
६५ ||
कहि दंडक बन पावनताई, गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ||
पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा, भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ||
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा, सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ||
खर दूषन बध बहुरि बखाना, जिमि सब मरमु दसानन जाना ||
दसकंधर मारीच बतकहीं, जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ||
पुनि माया सीता कर हरना, श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ||
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही, बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ||
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा, जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ||

दो -
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग, पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ||
६६((क) ||
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास, बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ||
६६(ख) ||
जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए, सीता खोज सकल दिसि धाए ||
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती, कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ||
सुनि सब कथा समीरकुमारा, नाघत भयउ पयोधि अपारा ||
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा, पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ||
बन उजारि रावनहि प्रबोधी, पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ||
आए कपि सब जहँ रघुराई, बैदेही कि कुसल सुनाई ||
सेन समेति जथा रघुबीरा, उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ||
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई, सागर निग्रह कथा सुनाई ||

दो -
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार, गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ||
६७(क) ||
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार, कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ||
६७(ख) ||
निसिचर निकर मरन बिधि नाना, रघुपति रावन समर बखाना ||
रावन बध मंदोदरि सोका, राज बिभीषण देव असोका ||
सीता रघुपति मिलन बहोरी, सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ||
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता, अवध चले प्रभु कृपा निकेता ||
जेहि बिधि राम नगर निज आए, बायस बिसद चरित सब गाए ||
कहेसि बहोरि राम अभिषैका, पुर बरनत नृपनीति अनेका ||
कथा समस्त भुसुंड बखानी, जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ||
सुनि सब राम कथा खगनाहा, कहत बचन मन परम उछाहा ||
सो -
गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित, भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ||
६८(क) ||
मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि, चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन, ६८(ख) ||
देखि चरित अति नर अनुसारी, भयउ हृदयँ मम संसय भारी ||
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना, कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ||
जो अति आतप ब्याकुल होई, तरु छाया सुख जानइ सोई ||
जौं नहिं होत मोह अति मोही, मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ||
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई, अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ||
निगमागम पुरान मत एहा, कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ||
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही, चितवहिं राम कृपा करि जेही ||
राम कृपाँ तव दरसन भयऊ, तव प्रसाद सब संसय गयऊ ||

दो -
सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग, पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ||
६९(क) ||
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास, पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ||
६९(ख) ||
बोलेउ काकभसुंड बहोरी, नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ||
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे, कृपापात्र रघुनायक केरे ||
तुम्हहि न संसय मोह न माया, मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ||
पठइ मोह मिस खगपति तोही, रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ||
तुम्ह निज मोह कही खग साईं, सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ||
नारद भव बिरंचि सनकादी, जे मुनिनायक आतमबादी ||
मोह न अंध कीन्ह केहि केही, को जग काम नचाव न जेही ||
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा, केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ||

दो -
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार, केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ||
७०(क) ||
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि, मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ||
७०(ख) ||
गुन कृत सन्यपात नहिं केही, कोउ न मान मद तजेउ निबेही ||
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा, ममता केहि कर जस न नसावा ||
मच्छर काहि कलंक न लावा, काहि न सोक समीर डोलावा ||
चिंता साँपिनि को नहिं खाया, को जग जाहि न ब्यापी माया ||
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा ||
सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ||
यह सब माया कर परिवारा, प्रबल अमिति को बरनै पारा ||
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं, अपर जीव केहि लेखे माहीं ||

दो -
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ||
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ||
७१(क) ||
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि, छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ||
७१(ख) ||
जो माया सब जगहि नचावा, जासु चरित लखि काहुँ न पावा ||
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा, नाच नटी इव सहित समाजा ||
सोइ सच्चिदानंद घन रामा, अज बिग्यान रूपो बल धामा ||
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता, अखिल अमोघसक्ति भगवंता ||
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता, सबदरसी अनवद्य अजीता ||
निर्मम निराकार निरमोहा, नित्य निरंजन सुख संदोहा ||
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी, ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ||
इहाँ मोह कर कारन नाहीं, रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ||

दो -
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप, किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ||
७२(क) ||
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ, सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ||
७२(ख) ||
असि रघुपति लीला उरगारी, दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ||
जे मति मलिन बिषयबस कामी, प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ||
नयन दोष जा कहँ जब होई, पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ||
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा, सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ||
नौकारूढ़ चलत जग देखा, अचल मोह बस आपुहि लेखा ||
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं, कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ||
हरि बिषइक अस मोह बिहंगा, सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ||
मायाबस मतिमंद अभागी, हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ||
ते सठ हठ बस संसय करहीं, निज अग्यान राम पर धरहीं ||

दो -
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप, ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ||
७३(क) ||
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ, सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ||
७३(ख) ||
सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई, कहउँ जथामति कथा सुहाई ||
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही, सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ||
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता, हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ||
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ, परम रहस्य मनोहर गावउँ ||
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ, जन अभिमान न राखहिं काऊ ||
संसृत मूल सूलप्रद नाना, सकल सोक दायक अभिमाना ||
ताते करहिं कृपानिधि दूरी, सेवक पर ममता अति भूरी ||
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई, मातु चिराव कठिन की नाईं ||

दो -
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर, ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ||
७४(क) ||
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि, तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ||
७४(ख) ||
राम कृपा आपनि जड़ताई, कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ||
जब जब राम मनुज तनु धरहीं, भक्त हेतु लील बहु करहीं ||
तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ, बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ||
जन्म महोत्सव देखउँ जाई, बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ||
इष्टदेव मम बालक रामा, सोभा बपुष कोटि सत कामा ||
निज प्रभु बदन निहारि निहारी, लोचन सुफल करउँ उरगारी ||
लघु बायस बपु धरि हरि संगा, देखउँ बालचरित बहुरंगा ||

दो -
लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ, जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ||
७५(क) ||
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर, सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ||
७५(ख) ||
कहइ भसुंड सुनहु खगनायक, रामचरित सेवक सुखदायक ||
नृपमंदिर सुंदर सब भाँती, खचित कनक मनि नाना जाती ||
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई, जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ||
बालबिनोद करत रघुराई, बिचरत अजिर जननि सुखदाई ||
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा, अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ||
नव राजीव अरुन मृदु चरना, पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ||
ललित अंक कुलिसादिक चारी, नूपुर चारू मधुर रवकारी ||
चारु पुरट मनि रचित बनाई, कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ||

दो -
रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर, उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ||
७६ ||
अरुन पानि नख करज मनोहर, बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ||
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा, चारु चिबुक आनन छबि सींवा ||
कलबल बचन अधर अरुनारे, दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ||
ललित कपोल मनोहर नासा, सकल सुखद ससि कर सम हासा ||
नील कंज लोचन भव मोचन, भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ||
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए, कुंचित कच मेचक छबि छाए ||
पीत झीनि झगुली तन सोही, किलकनि चितवनि भावति मोही ||
रूप रासि नृप अजिर बिहारी, नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ||
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा, बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ||
किलकत मोहि धरन जब धावहिं, चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ||

दो -
आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं, जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ||
७७(क) ||
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह, कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ||
७७(ख) ||
एतना मन आनत खगराया, रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ||
सो माया न दुखद मोहि काहीं, आन जीव इव संसृत नाहीं ||
नाथ इहाँ कछु कारन आना, सुनहु सो सावधान हरिजाना ||
ग्यान अखंड एक सीताबर, माया बस्य जीव सचराचर ||
जौं सब कें रह ग्यान एकरस, ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ||
माया बस्य जीव अभिमानी, ईस बस्य माया गुनखानी ||
परबस जीव स्वबस भगवंता, जीव अनेक एक श्रीकंता ||
मुधा भेद जद्यपि कृत माया, बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ||

दो -
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान, ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ||
७८(क) ||
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ||
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ||
७८(ख) ||
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा, मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ||
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या, प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ||
ताते नास न होइ दास कर, भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ||
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा, बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ||
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ, जाना अनुज न मातु पिताहूँ ||
जानु पानि धाए मोहि धरना, स्यामल गात अरुन कर चरना ||
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी, राम गहन कहँ भुजा पसारी ||
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा, तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ||

दो -
ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात, जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ||
७९(क) ||
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि, गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ||
७९(ख) ||
मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ, पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ||
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं, बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ||
उदर माझ सुनु अंडज राया, देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ||
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका, रचना अधिक एक ते एका ||
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा, अगनित उडगन रबि रजनीसा ||
अगनित लोकपाल जम काला, अगनित भूधर भूमि बिसाला ||
सागर सरि सर बिपिन अपारा, नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ||
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर, चारि प्रकार जीव सचराचर ||

दो -
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ, सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ||
८०(क) ||
एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक, एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ||
८०(ख) ||
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ||
८०(ख) ||
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता, भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ||
नर गंधर्ब भूत बेताला, किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ||
देव दनुज गन नाना जाती, सकल जीव तहँ आनहि भाँती ||
महि सरि सागर सर गिरि नाना, सब प्रपंच तहँ आनइ आना ||
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा, देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ||
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी, सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ||
दसरथ कौसल्या सुनु ताता, बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ||
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा, देखउँ बालबिनोद अपारा ||

दो -
भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान, अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ||
८१(क) ||
सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर, भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर ||
८१(ख) भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका, बीते मनहुँ कल्प सत एका ||
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ, तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ ||
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ, निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ ||
देखउँ जन्म महोत्सव जाई, जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ||
राम उदर देखेउँ जग नाना, देखत बनइ न जाइ बखाना ||
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना, माया पति कृपाल भगवाना ||
करउँ बिचार बहोरि बहोरी, मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ||
उभय घरी महँ मैं सब देखा, भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ||

दो -
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर, बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर ||
८२(क) ||
सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम, कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम ||
८२(ख) ||
देखि चरित यह सो प्रभुताई, समुझत देह दसा बिसराई ||
धरनि परेउँ मुख आव न बाता, त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ||
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी, निज माया प्रभुता तब रोकी ||
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ, दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ||
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा, सेवक सुखद कृपा संदोहा ||
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी, मन महँ होइ हरष अति भारी ||
भगत बछलता प्रभु कै देखी, उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ||
सजल नयन पुलकित कर जोरी, कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ||

दो -
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास, बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास ||
८३(क) ||
काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि, अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ||
८३(ख) ||
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना, मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ||
आजु देउँ सब संसय नाहीं, मागु जो तोहि भाव मन माहीं ||
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ, मन अनुमान करन तब लागेऊँ ||
प्रभु कह देन सकल सुख सही, भगति आपनी देन न कही ||
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे, लवन बिना बहु बिंजन जैसे ||
भजन हीन सुख कवने काजा, अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ||
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू, मो पर करहु कृपा अरु नेहू ||
मन भावत बर मागउँ स्वामी, तुम्ह उदार उर अंतरजामी ||

दो -
अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव, जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव ||
८४(क) ||
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम, सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ||
८४(ख) ||
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक, बोले बचन परम सुखदायक ||
सुनु बायस तैं सहज सयाना, काहे न मागसि अस बरदाना ||
सब सुख खानि भगति तैं मागी, नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ||
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं, जे जप जोग अनल तन दहहीं ||
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई, मागेहु भगति मोहि अति भाई ||
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें, सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें ||
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा, जोग चरित्र रहस्य बिभागा ||
जानब तैं सबही कर भेदा, मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ||
दों -
माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि, जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ||
८५(क) ||
मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग, कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ||
८५(ख) ||
अब सुनु परम बिमल मम बानी, सत्य सुगम निगमादि बखानी ||
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही, सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ||
मम माया संभव संसारा, जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ||
सब मम प्रिय सब मम उपजाए, सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ||
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी, तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ||
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी, ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ||
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा, जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ||
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं, मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं ||
भगति हीन बिरंचि किन होई, सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ||
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी, मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ||

दो -
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग, श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ||
८६ ||
एक पिता के बिपुल कुमारा, होहिं पृथक गुन सील अचारा ||
कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता, कोउ धनवंत सूर कोउ दाता ||
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई, सब पर पितहि प्रीति सम होई ||
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा, सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ||
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना, जद्यपि सो सब भाँति अयाना ||
एहि बिधि जीव चराचर जेते, त्रिजग देव नर असुर समेते ||
अखिल बिस्व यह मोर उपाया, सब पर मोहि बराबरि दाया ||
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया, भजै मोहि मन बच अरू काया ||

दो -
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ, सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ||
८७(क) ||
सो -
सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय, अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ||
८७(ख) ||
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही, सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही ||
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ, तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ ||
सो सुख जानइ मन अरु काना, नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ||
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना, कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ||
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई, लगे करन सिसु कौतुक तेई ||
सजल नयन कछु मुख करि रूखा, चितइ मातु लागी अति भूखा ||
देखि मातु आतुर उठि धाई, कहि मृदु बचन लिए उर लाई ||
गोद राखि कराव पय पाना, रघुपति चरित ललित कर गाना ||
सो -
जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद, अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन ||
८८(क) ||
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ, ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ||
८८(ख) ||
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला, देखेउँ बालबिनोद रसाला ||
राम प्रसाद भगति बर पायउँ, प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ ||
तब ते मोहि न ब्यापी माया, जब ते रघुनायक अपनाया ||
यह सब गुप्त चरित मैं गावा, हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ||
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ||
राम कृपा बिनु सुनु खगराई, जानि न जाइ राम प्रभुताई ||
जानें बिनु न होइ परतीती, बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ||
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई, जिमि खगपति जल कै चिकनाई ||
सो -
बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु, गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ||
८९(क) ||
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु, चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ||
८९(ख) ||
बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ||
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा, थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ||
बिनु बिग्यान कि समता आवइ, कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ ||
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई, बिनु महि गंध कि पावइ कोई ||
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा, जल बिनु रस कि होइ संसारा ||
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई, जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ||
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा, परस कि होइ बिहीन समीरा ||
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा, बिनु हरि भजन न भव भय नासा ||

दो -
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु, राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ||
९०(क) ||
सो -
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल, भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ||
९०(ख) ||
निज मति सरिस नाथ मैं गाई, प्रभु प्रताप महिमा खगराई ||
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी, यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ||
महिमा नाम रूप गुन गाथा, सकल अमित अनंत रघुनाथा ||
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं, निगम सेष सिव पार न पावहिं ||
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता, नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ||
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा, तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा ||
रामु काम सत कोटि सुभग तन, दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ||
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा, नभ सत कोटि अमित अवकासा ||

दो -
मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास, ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ||
९१(क) ||
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत, धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ||
९१(ख) ||
\prabhu अगाध सत कोटि पताला, समन कोटि सत सरिस कराला ||
तीरथ अमित कोटि सम पावन, नाम अखिल अघ पूग नसावन ||
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा, सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ||
कामधेनु सत कोटि समाना, सकल काम दायक भगवाना ||
सारद कोटि अमित चतुराई, बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ||
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता, रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ||
धनद कोटि सत सम धनवाना, माया कोटि प्रपंच निधाना ||
भार धरन सत कोटि अहीसा, निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ||
छं -
निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै, जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ||
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं, प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ||

दो -
रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ, संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ||
९२(क) ||
सो -
भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन, तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ||
९२(ख) ||
सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए, हरषित खगपति पंख फुलाए ||
नयन नीर मन अति हरषाना, श्रीरघुपति प्रताप उर आना ||
पाछिल मोह समुझि पछिताना, ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ||
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा, जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ||
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई, जौं बिरंचि संकर सम होई ||
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता, दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ||
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक, मोहि जिआयउ जन सुखदायक ||
तव प्रसाद मम मोह नसाना, राम रहस्य अनूपम जाना ||

दो -
ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि, बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ||
९३(क) ||
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि, कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ||
९३(ख) ||
तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा, सुमति सुसील सरल आचारा ||
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा, रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ||
कारन कवन देह यह पाई, तात सकल मोहि कहहु बुझाई ||
राम चरित सर सुंदर स्वामी, पायहु कहाँ कहहु नभगामी ||
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं, महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ||
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई, सोउ मोरें मन संसय अहई ||
अग जग जीव नाग नर देवा, नाथ सकल जगु काल कलेवा ||
अंड कटाह अमित लय कारी, कालु सदा दुरतिक्रम भारी ||
सो -
तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन, मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ||
९४(क) ||

दो -
प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग, कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ||
९४(ख) ||
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा, बोलेउ उमा परम अनुरागा ||
धन्य धन्य तव मति उरगारी, प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ||
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई, बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ||
सब निज कथा कहउँ मैं गाई, तात सुनहु सादर मन लाई ||
जप तप मख सम दम ब्रत दाना, बिरति बिबेक जोग बिग्याना ||
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा, तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ||
एहि तन राम भगति मैं पाई, ताते मोहि ममता अधिकाई ||
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई, तेहि पर ममता कर सब कोई ||
सो -
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं, अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ||
९५(क) ||
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर, कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ||
९५(ख) ||
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा, मन क्रम बचन राम पद नेहा ||
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा, जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ||
राम बिमुख लहि बिधि सम देही, कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ||
राम भगति एहिं तन उर जामी, ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ||
तजउँ न तन निज इच्छा मरना, तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ||
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा, राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ||
नाना जनम कर्म पुनि नाना, किए जोग जप तप मख दाना ||
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं, मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ||
देखेउँ करि सब करम गोसाई, सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ||
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी, सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ||

दो -
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस, सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ||
९६(क) ||
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ||
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ||
९६(ख) ||
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई, जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ||
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी, आन देव निंदक अभिमानी ||
धन मद मत्त परम बाचाला, उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ||
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी, तदपि न कछु महिमा तब जानी ||
अब जाना मैं अवध प्रभावा, निगमागम पुरान अस गावा ||
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई, राम परायन सो परि होई ||
अवध प्रभाव जान तब प्रानी, जब उर बसहिं रामु धनुपानी ||
सो कलिकाल कठिन उरगारी, पाप परायन सब नर नारी ||

दो -
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ, दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ||
९७(क) ||
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म, सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ||
९७(ख) ||
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी, श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ||
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन, कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ||
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा, पंडित सोइ जो गाल बजावा ||
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई, ता कहुँ संत कहइ सब कोई ||
सोइ सयान जो परधन हारी, जो कर दंभ सो बड़ आचारी ||
जौ कह झूँठ मसखरी जाना, कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ||
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी, कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ||
जाकें नख अरु जटा बिसाला, सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ||

दो -
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं, तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ||
९८(क) ||
सो -
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ, मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ||
९८(ख) ||
नारि बिबस नर सकल गोसाई, नाचहिं नट मर्कट की नाई ||
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना, मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ||
सब नर काम लोभ रत क्रोधी, देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ||
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी, भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ||
सौभागिनीं बिभूषन हीना, बिधवन्ह के सिंगार नबीना ||
गुर सिष बधिर अंध का लेखा, एक न सुनइ एक नहिं देखा ||
हरइ सिष्य धन सोक न हरई, सो गुर घोर नरक महुँ परई ||
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं, उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ||

दो -
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात, कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ||
९९(क) ||
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि, जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ||
९९(ख) ||
पर त्रिय लंपट कपट सयाने, मोह द्रोह ममता लपटाने ||
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर, देखा में चरित्र कलिजुग कर ||
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं, जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ||
कल्प कल्प भरि एक एक नरका, परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ||
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा ||
नारि मुई गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ||
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं, उभय लोक निज हाथ नसावहिं ||
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार सठ बृषली स्वामी ||
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना, बैठि बरासन कहहिं पुराना ||
सब नर कल्पित करहिं अचारा, जाइ न बरनि अनीति अपारा ||

दो -
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग, करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ||
१००(क) ||
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक, तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ||
१००(ख) ||
छं -
बहु दाम सँवारहिं धाम जती, बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ||
तपसी धनवंत दरिद्र गृही, कलि कौतुक तात न जात कही ||
कुलवंति निकारहिं नारि सती, गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ||
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं, अबलानन दीख नहीं जब लौं ||
ससुरारि पिआरि लगी जब तें, रिपरूप कुटुंब भए तब तें ||
नृप पाप परायन धर्म नहीं, करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ||
धनवंत कुलीन मलीन अपी, द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ||
नहिं मान पुरान न बेदहि जो, हरि सेवक संत सही कलि सो, कबि बृंद उदार दुनी न सुनी, गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ||
कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ||

दो -
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड, मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ||
१०१(क) ||
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान, देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ||
१०१(ख) ||
छं -
अबला कच भूषन भूरि छुधा, धनहीन दुखी ममता बहुधा ||
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता, मति थोरि कठोरि न कोमलता ||
१ ||
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं, अभिमान बिरोध अकारनहीं ||
लघु जीवन संबतु पंच दसा, कलपांत न नास गुमानु असा ||
२ ||
कलिकाल बिहाल किए मनुजा, नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा, नहिं तोष बिचार न सीतलता, सब जाति कुजाति भए मगता ||
३ ||
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता, भरि पूरि रही समता बिगता ||
सब लोग बियोग बिसोक हुए, बरनाश्रम धर्म अचार गए ||
४ ||
दम दान दया नहिं जानपनी, जड़ता परबंचनताति घनी ||
तनु पोषक नारि नरा सगरे, परनिंदक जे जग मो बगरे ||
५ ||

दो -
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार, गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ||
१०२(क) ||
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग, जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ||
१०२(ख) ||
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी, करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ||
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं, प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ||
द्वापर करि रघुपति पद पूजा, नर भव तरहिं उपाय न दूजा ||
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा, गावत नर पावहिं भव थाहा ||
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना, एक अधार राम गुन गाना ||
सब भरोस तजि जो भज रामहि, प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ||
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं, नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ||
कलि कर एक पुनीत प्रतापा, मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ||

दो -
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास, गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ||
१०३(क) ||
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान, जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ||
१०३(ख) ||
नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदयँ राम माया के प्रेरे ||
सुद्ध सत्व समता बिग्याना, कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ||
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा, सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ||
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस ||
तामस बहुत रजोगुन थोरा, कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ||
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं, तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ||
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही, रघुपति चरन प्रीति अति जाही ||
नट कृत बिकट कपट खगराया, नट सेवकहि न ब्यापइ माया ||

दो -
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं, भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ||
१०४(क) ||
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस, परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ||
१०४(ख) ||
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी, दीन मलीन दरिद्र दुखारी ||
गएँ काल कछु संपति पाई, तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ||
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा, करइ सदा तेहि काजु न दूजा ||
परम साधु परमारथ बिंदक, संभु उपासक नहिं हरि निंदक ||
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता, द्विज दयाल अति नीति निकेता ||
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं, बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ||
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा, सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ||
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई, हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ||

दो -
मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह, हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ||
१०५(क) ||
सो -
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम, मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ||
१०५(ख) ||
एक बार गुर लीन्ह बोलाई, मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ||
सिव सेवा कर फल सुत सोई, अबिरल भगति राम पद होई ||
रामहि भजहिं तात सिव धाता, नर पावँर कै केतिक बाता ||
जासु चरन अज सिव अनुरागी, तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ||
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ, सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ||
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ, भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ||
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती, गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ||
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा, पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ||
जेहि ते नीच बड़ाई पावा, सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ||
धूम अनल संभव सुनु भाई, तेहि बुझाव घन पदवी पाई ||
रज मग परी निरादर रहई, सब कर पद प्रहार नित सहई ||
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई, पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ||
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा, बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ||
कबि कोबिद गावहिं असि नीती, खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ||
उदासीन नित रहिअ गोसाईं, खल परिहरिअ स्वान की नाईं ||
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई, गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ||

दो -
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम, गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ||
१०६(क) ||
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस, अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ||
१०६(ख) ||
मंदिर माझ भई नभ बानी, रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ||
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा, अति कृपाल चित सम्यक बोधा ||
तदपि साप सठ दैहउँ तोही, नीति बिरोध सोहाइ न मोही ||
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा, भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ||
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं, रौरव नरक कोटि जुग परहीं ||
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा, अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ||
बैठ रहेसि अजगर इव पापी, सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ||
महा बिटप कोटर महुँ जाई ||
रहु अधमाधम अधगति पाई ||

दो -
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ||
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ||
१०७(क) ||
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि, बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ||
१०७(ख) ||
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं, निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ||
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं, गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ||
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहं ||
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ||
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा, लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ||
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ||
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ||
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ||
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ||
चिदानंदसंदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||
न यावद उमानाथ पादारविन्दं, भजंतीह लोके परे वा नराणां ||
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ||
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ||
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ||
श्लोक\-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये, ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ||
९ ||

दो -
\-सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु, पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ||
१०८(क) ||
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु, निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ||
१०८(ख) ||
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान, तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ||
१०८(ग) ||
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल, साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ||
१०८(घ) ||
एहि कर होइ परम कल्याना, सोइ करहु अब कृपानिधाना ||
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी, एवमस्तु इति भइ नभबानी ||
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा, मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ||
तदपि तुम्हार साधुता देखी, करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ||
छमासील जे पर उपकारी, ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ||
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि, जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ||
जनमत मरत दुसह दुख होई, अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ||
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना, सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ||
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ, पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ||
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें, राम भगति उपजिहि उर तोरें ||
सुनु मम बचन सत्य अब भाई, हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ||
अब जनि करहि बिप्र अपमाना, जानेहु संत अनंत समाना ||
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला, कालदंड हरि चक्र कराला ||
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई, बिप्रद्रोह पावक सो जरई ||
अस बिबेक राखेहु मन माहीं, तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ||
औरउ एक आसिषा मोरी, अप्रतिहत गति होइहि तोरी ||

दो -
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि, मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ||
१०९(क) ||
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल, पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ||
१०९(ख) ||
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान, जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ||
१०९(ग) ||
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस, एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ||
१०९(घ) ||
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ, तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ||
एक सूल मोहि बिसर न काऊ, गुर कर कोमल सील सुभाऊ ||
चरम देह द्विज कै मैं पाई, सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ||
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला, करउँ सकल रघुनायक लीला ||
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा, समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ||
मन ते सकल बासना भागी, केवल राम चरन लय लागी ||
कहु खगेस अस कवन अभागी, खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ||
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई, हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ||
भए कालबस जब पितु माता, मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ||
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ, आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ||
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा, कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ||
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा, अब्याहत गति संभु प्रसादा ||
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी, एक लालसा उर अति बाढ़ी ||
राम चरन बारिज जब देखौं, तब निज जन्म सफल करि लेखौं ||
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई, ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ||
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई, सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ||

दो -
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग, रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ||
११०(क) ||
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन, देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ||
११०(ख) ||
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज, मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ||
११०(ग) ||
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान, सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ||
११०(घ) ||
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा, कहे कछुक सादर खगनाथा ||
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि, मोहि परम अधिकारी जानी ||
लागे करन ब्रह्म उपदेसा, अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ||
अकल अनीह अनाम अरुपा, अनुभव गम्य अखंड अनूपा ||
मन गोतीत अमल अबिनासी, निर्बिकार निरवधि सुख रासी ||
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा, बारि बीचि इव गावहि बेदा ||
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा, निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ||
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा, सगुन उपासन कहहु मुनीसा ||
राम भगति जल मम मन मीना, किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ||
सोइ उपदेस कहहु करि दाया, निज नयनन्हि देखौं रघुराया ||
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा, तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ||
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा, खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ||
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी, सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ||
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा, मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ||
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ, उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ||
अति संघरषन जौं कर कोई, अनल प्रगट चंदन ते होई ||

दो -
\-बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान, मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ||
१११(क) ||
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान, मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ||
१११(ख) ||
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें, तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ||
परद्रोही की होहिं निसंका, कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ||
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें, कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ||
काहू सुमति कि खल सँग जामी, सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ||
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक, सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ||
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें, अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ||
पावन जस कि पुन्य बिनु होई, बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ||
लाभु कि किछु हरि भगति समाना, जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ||
हानि कि जग एहि सम किछु भाई, भजिअ न रामहि नर तनु पाई ||
अघ कि पिसुनता सम कछु आना, धर्म कि दया सरिस हरिजाना ||
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ, मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ||
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा, तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ||
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि, उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ||
सत्य बचन बिस्वास न करही, बायस इव सबही ते डरही ||
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला, सपदि होहि पच्छी चंडाला ||
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई, नहिं कछु भय न दीनता आई ||

दो -
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ, सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ||
११२(क) ||
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ||
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ||
११२(ख) ||
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन, उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ||
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी, लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ||
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना, मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ||
रिषि मम महत सीलता देखी, राम चरन बिस्वास बिसेषी ||
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई, सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ||
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा, हरषित राममंत्र तब दीन्हा ||
बालकरूप राम कर ध्याना, कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ||
सुंदर सुखद मिहि अति भावा, सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ||
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा, रामचरितमानस तब भाषा ||
सादर मोहि यह कथा सुनाई, पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ||
रामचरित सर गुप्त सुहावा, संभु प्रसाद तात मैं पावा ||
तोहि निज भगत राम कर जानी, ताते मैं सब कहेउँ बखानी ||
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं, कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ||
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा, मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ||
निज कर कमल परसि मम सीसा, हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ||
राम भगति अबिरल उर तोरें, बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ||

दो -
\-सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान, कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ||
११३(क) ||
जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत, ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ||
११३(ख) ||
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ, कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ||
राम रहस्य ललित बिधि नाना, गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ||
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ, नित नव नेह राम पद होऊ ||
जो इच्छा करिहहु मन माहीं, हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ||
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा, ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ||
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी, यह मम भगत कर्म मन बानी ||
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ, प्रेम मगन सब संसय गयऊ ||
करि बिनती मुनि आयसु पाई, पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ||
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ, प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ||
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा, बीते कलप सात अरु बीसा ||
करउँ सदा रघुपति गुन गाना, सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ||
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा, धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ||
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ, सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ||
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा, निज आश्रम आवउँ खगभूपा ||
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई, काग देह जेहिं कारन पाई ||
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी, राम भगति महिमा अति भारी ||

दो -
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह, निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ||
११४(क) ||
मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप, मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ||
११४(ख) ||
जे असि भगति जानि परिहरहीं, केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ||
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी, खोजत आकु फिरहिं पय लागी ||
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई, जे सुख चाहहिं आन उपाई ||
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी, पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ||
सुनि भसुंडि के बचन भवानी, बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ||
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं, संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ||
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा, तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ||
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही, कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ||
कहहिं संत मुनि बेद पुराना, नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ||
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं, नहिं आदरेहु भगति की नाईं ||
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता, सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ||
सुनि उरगारि बचन सुख माना, सादर बोलेउ काग सुजाना ||
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा ||
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर, सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ||
ग्यान बिराग जोग बिग्याना, ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ||
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती, अबला अबल सहज जड़ जाती ||

दो -
\-पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ||
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ||
११५(क) ||
सो -
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि, बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ||
११५(ख) ||
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ, बेद पुरान संत मत भाषउँ ||
मोह न नारि नारि कें रूपा, पन्नगारि यह रीति अनूपा ||
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ, नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ||
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी, माया खलु नर्तकी बिचारी ||
भगतिहि सानुकूल रघुराया, ताते तेहि डरपति अति माया ||
राम भगति निरुपम निरुपाधी, बसइ जासु उर सदा अबाधी ||
तेहि बिलोकि माया सकुचाई, करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ||
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी, जाचहीं भगति सकल सुख खानी ||

दो -
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ, जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ||
११६(क) ||
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन, जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ||
११६(ख) ||
सुनहु तात यह अकथ कहानी, समुझत बनइ न जाइ बखानी ||
ईस्वर अंस जीव अबिनासी, चेतन अमल सहज सुख रासी ||
सो मायाबस भयउ गोसाईं, बँध्यो कीर मरकट की नाई ||
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई, जदपि मृषा छूटत कठिनई ||
तब ते जीव भयउ संसारी, छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ||
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई, छूट न अधिक अधिक अरुझाई ||
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी, ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ||
अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ||
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई, जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ||
जप तप ब्रत जम नियम अपारा, जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ||
तेइ तृन हरित चरै जब गाई, भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ||
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा, निर्मल मन अहीर निज दासा ||
परम धर्ममय पय दुहि भाई, अवटै अनल अकाम बिहाई ||
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै, धृति सम जावनु देइ जमावै ||
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी, दम अधार रजु सत्य सुबानी ||
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता, बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ||

दो -
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ, बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ||
११७(क) ||
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ, चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ||
११७(ख) ||
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि, तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ||
११७(ग) ||
सो -
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ||
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ||
११७(घ) ||
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ||
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रम नासा ||
प्रबल अबिद्या कर परिवारा, मोह आदि तम मिटइ अपारा ||
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा, उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ||
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई, तब यह जीव कृतारथ होई ||
छोरत ग्रंथि जानि खगराया, बिघ्न अनेक करइ तब माया ||
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई, बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ||
कल बल छल करि जाहिं समीपा, अंचल बात बुझावहिं दीपा ||
होइ बुद्धि जौं परम सयानी, तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ||
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी, तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ||
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना, तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ||
आवत देखहिं बिषय बयारी, ते हठि देही कपाट उघारी ||
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई, तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ||
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा, बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ||
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई, बिषय भोग पर प्रीति सदाई ||
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी, तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ||

दो -
तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस, हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ||
११८(क) ||
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक, होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ||
११८(ख) ||
ग्यान पंथ कृपान कै धारा, परत खगेस होइ नहिं बारा ||
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई, सो कैवल्य परम पद लहई ||
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद, संत पुरान निगम आगम बद ||
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई, अनइच्छित आवइ बरिआई ||
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई, कोटि भाँति कोउ करै उपाई ||
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई, रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ||
अस बिचारि हरि भगत सयाने, मुक्ति निरादर भगति लुभाने ||
भगति करत बिनु जतन प्रयासा, संसृति मूल अबिद्या नासा ||
भोजन करिअ तृपिति हित लागी, जिमि सो असन पचवै जठरागी ||
असि हरिभगति सुगम सुखदाई, को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ||

दो -
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ||
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ||
११९(क) ||
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य, अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ||
११९(ख) ||
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई, सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ||
राम भगति चिंतामनि सुंदर, बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ||
परम प्रकास रूप दिन राती, नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ||
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा, लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ||
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई, हारहिं सकल सलभ समुदाई ||
खल कामादि निकट नहिं जाहीं, बसइ भगति जाके उर माहीं ||
गरल सुधासम अरि हित होई, तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ||
ब्यापहिं मानस रोग न भारी, जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ||
राम भगति मनि उर बस जाकें, दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ||
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं, जे मनि लागि सुजतन कराहीं ||
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई, राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ||
सुगम उपाय पाइबे केरे, नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ||
पावन पर्बत बेद पुराना, राम कथा रुचिराकर नाना ||
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी, ग्यान बिराग नयन उरगारी ||
भाव सहित खोजइ जो प्रानी, पाव भगति मनि सब सुख खानी ||
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा, राम ते अधिक राम कर दासा ||
राम सिंधु घन सज्जन धीरा, चंदन तरु हरि संत समीरा ||
सब कर फल हरि भगति सुहाई, सो बिनु संत न काहूँ पाई ||
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा, राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ||

दो -
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं, कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ||
१२०(क) ||
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि, जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ||
१२०(ख) ||
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ, जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ||
नाथ मोहि निज सेवक जानी, सप्त प्रस्न कहहु बखानी ||
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा, सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ||
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी, सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ||
संत असंत मरम तुम्ह जानहु, तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ||
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला, कहहु कवन अघ परम कराला ||
मानस रोग कहहु समुझाई, तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ||
तात सुनहु सादर अति प्रीती, मैं संछेप कहउँ यह नीती ||
नर तन सम नहिं कवनिउ देही, जीव चराचर जाचत तेही ||
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी, ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ||
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर, होहिं बिषय रत मंद मंद तर ||
काँच किरिच बदलें ते लेही, कर ते डारि परस मनि देहीं ||
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं ||
पर उपकार बचन मन काया, संत सहज सुभाउ खगराया ||
संत सहहिं दुख परहित लागी, परदुख हेतु असंत अभागी ||
भूर्ज तरू सम संत कृपाला, परहित निति सह बिपति बिसाला ||
सन इव खल पर बंधन करई, खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ||
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी, अहि मूषक इव सुनु उरगारी ||
पर संपदा बिनासि नसाहीं, जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ||
दुष्ट उदय जग आरति हेतू, जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ||
संत उदय संतत सुखकारी, बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ||
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा, पर निंदा सम अघ न गरीसा ||
हर गुर निंदक दादुर होई, जन्म सहस्त्र पाव तन सोई ||
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि, जग जनमइ बायस सरीर धरि ||
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी, रौरव नरक परहिं ते प्रानी ||
होहिं उलूक संत निंदा रत, मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ||
सब के निंदा जे जड़ करहीं, ते चमगादुर होइ अवतरहीं ||
सुनहु तात अब मानस रोगा, जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ||
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ||
काम बात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त नित छाती जारा ||
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई, उपजइ सन्यपात दुखदाई ||
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना, ते सब सूल नाम को जाना ||
ममता दादु कंडु इरषाई, हरष बिषाद गरह बहुताई ||
पर सुख देखि जरनि सोइ छई, कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ||
अहंकार अति दुखद डमरुआ, दंभ कपट मद मान नेहरुआ ||
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी, त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ||
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका, कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ||

दो -
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि, पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ||
१२१(क) ||
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान, भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ||
१२१(ख) ||
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी, सोक हरष भय प्रीति बियोगी ||
मानक रोग कछुक मैं गाए, हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ||
जाने ते छीजहिं कछु पापी, नास न पावहिं जन परितापी ||
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे, मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ||
राम कृपाँ नासहि सब रोगा, जौं एहि भाँति बनै संयोगा ||
सदगुर बैद बचन बिस्वासा, संजम यह न बिषय कै आसा ||
रघुपति भगति सजीवन मूरी, अनूपान श्रद्धा मति पूरी ||
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं, नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ||
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई, जब उर बल बिराग अधिकाई ||
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई, बिषय आस दुर्बलता गई ||
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई, तब रह राम भगति उर छाई ||
सिव अज सुक सनकादिक नारद, जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ||
सब कर मत खगनायक एहा, करिअ राम पद पंकज नेहा ||
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं, रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ||
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा, बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ||
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला, जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ||
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना, बरु जामहिं सस सीस बिषाना ||
अंधकारु बरु रबिहि नसावै, राम बिमुख न जीव सुख पावै ||
हिम ते अनल प्रगट बरु होई, बिमुख राम सुख पाव न कोई ||
दो०=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल, बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ||
१२२(क) ||
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन, अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ||
१२२(ख) ||
श्लोक\- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे, हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ||
१२२(ग) ||
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा, ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ||
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी, राम भजिअ सब काज बिसारी ||
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही, मोहि से सठ पर ममता जाही ||
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा, नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ||
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि, सुक सनकादि संभु मन भावनि ||
सत संगति दुर्लभ संसारा, निमिष दंड भरि एकउ बारा ||
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी, मैं रघुबीर भजन अधिकारी ||
सकुनाधम सब भाँति अपावन, प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ||

दो -
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन, निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ||
१२३(क) ||
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ, चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ||
१२३ ||
सुमिरि राम के गुन गन नाना, पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ||
महिमा निगम नेति करि गाई, अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ||
सिव अज पूज्य चरन रघुराई, मो पर कृपा परम मृदुलाई ||
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ, केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ||
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी, कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ||
जोगी सूर सुतापस ग्यानी, धर्म निरत पंडित बिग्यानी ||
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामी ||
सरन गएँ मो से अघ रासी, होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ||

दो -
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल, सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ||
१२४(क) ||
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह, बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ||
१२४(ख) ||
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी, सुनि रघुबीर भगति रस सानी ||
राम चरन नूतन रति भई, माया जनित बिपति सब गई ||
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए, मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ||
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा, बंदउँ तव पद बारहिं बारा ||
पूरन काम राम अनुरागी, तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ||
संत बिटप सरिता गिरि धरनी, पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ||
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ||
निज परिताप द्रवइ नवनीता, पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ||
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ, तव प्रसाद संसय सब गयऊ ||
जानेहु सदा मोहि निज किंकर, पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ||

दो -
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर, गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ||
१२५(क) ||
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन, बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ||
१२५(ख) ||
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा, सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ||
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा, उपजइ प्रीति राम पद कंजा ||
मन क्रम बचन जनित अघ जाई, सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ||
तीर्थाटन साधन समुदाई, जोग बिराग ग्यान निपुनाई ||
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना, संजम दम जप तप मख नाना ||
भूत दया द्विज गुर सेवकाई, बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ||
जहँ लगि साधन बेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी ||
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई, राम कृपाँ काहूँ एक पाई ||

दो -
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास, जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ||
१२६ ||
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता, सोइ महि मंडित पंडित दाता ||
धर्म परायन सोइ कुल त्राता, राम चरन जा कर मन राता ||
नीति निपुन सोइ परम सयाना, श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ||
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा, जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ||
धन्य देस सो जहँ सुरसरी, धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ||
धन्य सो भूपु नीति जो करई, धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ||
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी, धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ||
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा, धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ||

दो -
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत, श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ||
१२७ ||
मति अनुरूप कथा मैं भाषी, जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ||
तव मन प्रीति देखि अधिकाई, तब मैं रघुपति कथा सुनाई ||
यह न कहिअ सठही हठसीलहि, जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ||
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि, जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ||
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ, सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ||
राम कथा के तेइ अधिकारी, जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ||
गुर पद प्रीति नीति रत जेई, द्विज सेवक अधिकारी तेई ||
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई, जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ||

दो -
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान, भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ||
१२८ ||
राम कथा गिरिजा मैं बरनी, कलि मल समनि मनोमल हरनी ||
संसृति रोग सजीवन मूरी, राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ||
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना, रघुपति भगति केर पंथाना ||
अति हरि कृपा जाहि पर होई, पाउँ देइ एहिं मारग सोई ||
मन कामना सिद्धि नर पावा, जे यह कथा कपट तजि गावा ||
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं, ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ||
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई, गिरिजा बोली गिरा सुहाई ||
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा, राम चरन उपजेउ नव नेहा ||

दो -
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस, उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ||
१२९ ||
यह सुभ संभु उमा संबादा, सुख संपादन समन बिषादा ||
भव भंजन गंजन संदेहा, जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ||
राम उपासक जे जग माहीं, एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ||
रघुपति कृपाँ जथामति गावा, मैं यह पावन चरित सुहावा ||
एहिं कलिकाल न साधन दूजा, जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ||
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि, संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ||
जासु पतित पावन बड़ बाना, गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ||
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई, राम भजें गति केहिं नहिं पाई ||
छं -
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना, गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ||
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे, कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ||
१ ||
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं, कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ||
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै, दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ||
२ ||
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो, सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ||
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ, पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ||
३ ||

दो -
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर, अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ||
१३०(क) ||
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम, तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||
१३०(ख) ||


श्लोक - यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम, मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम ||
१ ||


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम, श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ||
२ ||




मासपारायण, तीसवाँ विश्राम नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम


इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः उत्तरकाण्ड समाप्त)

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