श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान (लंकाकाण्ड)
श्लोक
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम ।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम ॥ १ ॥
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम ।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम ॥ २ ॥
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम ।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ ३ ॥
दो॰ लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड ।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड ॥
सो॰ सिंधु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ ।
अब बिलंबु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥
सुनहु भानुकुल केतु जामवंत कर जोरि कह ।
नाथ नाम तव सेतु नर चढ़ि भव सागर तरिहिं ॥
यह लघु जलधि तरत कति बारा ।
अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी ।
सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥
तब रिपु नारी रुदन जल धारा ।
भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा ॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी ।
हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥
जामवंत बोले दोउ भाई ।
नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं ।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं ॥
बोलि लिए कपि निकर बहोरी ।
सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥
राम चरन पंकज उर धरहू ।
कौतुक एक भालु कपि करहू ॥
धावहु मर्कट बिकट बरूथा ।
आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा ।
जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥
दो॰ अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ १ ॥
सैल बिसाल आनि कपि देहीं ।
कंदुक इव नल नील ते लेहीं ॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना ।
बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥
परम रम्य उत्तम यह धरनी ।
महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना ।
मोरे हृदयँ परम कलपना ॥
सुनि कपीस बहु दूत पठाए ।
मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा ।
सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा ।
सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी ।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥
दो॰ संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।
ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ २ ॥
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं ।
ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि ।
सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि ।
भगति मोरि तेहि संकर देइहि ॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही ।
सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥
राम बचन सब के जिय भाए ।
मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती ।
संतत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥
बाँधा सेतु नील नल नागर ।
राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई ।
भए उपल बोहित सम तेई ॥
महिमा यह न जलधि कइ बरनी ।
पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी ॥
दो०=श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ ३ ॥
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा ।
देखि कृपानिधि के मन भावा ॥
चली सेन कछु बरनि न जाई ।
गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई ।
चितव कृपाल सिंधु बहुताई ॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा ।
प्रगट भए सब जलचर बृंदा ॥
मकर नक्र नाना झष ब्याला ।
सत जोजन तन परम बिसाला ॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं ।
एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं ॥
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे ।
मन हरषित सब भए सुखारे ॥
तिन्ह की ओट न देखिअ बारी ।
मगन भए हरि रूप निहारी ॥
चला कटकु प्रभु आयसु पाई ।
को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥
दो॰ सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं ।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं ॥ ४ ॥
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई ।
बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा ।
कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा ।
सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए ।
सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥
सब तरु फरे राम हित लागी ।
रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥
खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं ।
लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं ।
घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥
दसनन्हि काटि नासिका काना ।
कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता ।
तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना ।
दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥
दो॰ बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस ।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ॥ ५ ॥
निज बिकलता बिचारि बहोरी ।
बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी ॥
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो ।
कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥
कर गहि पतिहि भवन निज आनी ।
बोली परम मनोहर बानी ॥
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा ।
सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥
नाथ बयरु कीजे ताही सों ।
बुधि बल सकिअ जीति जाही सों ॥
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा ।
खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे ।
महाबीर दितिसुत संघारे ॥
जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा ।
सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा ।
काल करम जिव जाकें हाथा ॥
दो॰ रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ ६ ॥
नाथ दीनदयाल रघुराई ।
बाघउ सनमुख गएँ न खाई ॥
चाहिअ करन सो सब करि बीते ।
तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥
संत कहहिं असि नीति दसानन ।
चौथेंपन जाइहि नृप कानन ॥
तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता ।
जो कर्ता पालक संहर्ता ॥
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी ।
भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी ।
भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥
सोइ कोसलधीस रघुराया ।
आयउ करन तोहि पर दाया ॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन ।
सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥
दो॰ अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात ।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ ७ ॥
तब रावन मयसुता उठाई ।
कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥
सुनु तै प्रिया बृथा भय माना ।
जग जोधा को मोहि समाना ॥
बरुन कुबेर पवन जम काला ।
भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥
देव दनुज नर सब बस मोरें ।
कवन हेतु उपजा भय तोरें ॥
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई ।
सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥
मंदोदरीं हदयँ अस जाना ।
काल बस्य उपजा अभिमाना ॥
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा ।
करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा ।
बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥
कहहु कवन भय करिअ बिचारा ।
नर कपि भालु अहार हमारा ॥
दो॰ सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि ।
निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि ॥ ८ ॥
कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती ।
नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा ।
तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू ।
जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥
सुनत नीक आगें दुख पावा ।
सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥
जेहिं बारीस बँधायउ हेला ।
उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई ।
बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥
तात बचन मम सुनु अति आदर ।
जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं ।
ऐसे नर निकाय जग अहहीं ॥
बचन परम हित सुनत कठोरे ।
सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती ।
सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥
दो॰ नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि ।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥ ९ ॥
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा ।
उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥
सुत सन कह दसकंठ रिसाई ।
असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥
अबहीं ते उर संसय होई ।
बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा ।
चला भवन कहि बचन कठोरा ॥
हित मत तोहि न लागत कैसें ।
काल बिबस कहुँ भेषज जैसें ॥
संध्या समय जानि दससीसा ।
भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥
लंका सिखर उपर आगारा ।
अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥
बैठ जाइ तेही मंदिर रावन ।
लागे किंनर गुन गन गावन ॥
बाजहिं ताल पखाउज बीना ।
नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥
दो॰ सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास ।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ १० ॥
इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा ।
उतरे सेन सहित अति भीरा ॥
सिखर एक उतंग अति देखी ।
परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥
तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए ।
लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥
ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला ।
तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥
प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा ।
बाम दहिन दिसि चाप निषंगा ॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना ।
कह लंकेस मंत्र लगि काना ॥
बड़भागी अंगद हनुमाना ।
चरन कमल चापत बिधि नाना ॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन ।
कटि निषंग कर बान सरासन ॥
दो॰ एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन ।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥ ११(क) ॥
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक ।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक ॥ ११(ख) ॥
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी ।
परम प्रताप तेज बल रासी ॥
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी ।
ससि केसरी गगन बन चारी ॥
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा ।
निसि सुंदरी केर सिंगारा ॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई ।
कहहु काह निज निज मति भाई ॥
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई ।
ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई ।
उर महँ परी स्यामता सोई ॥
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा ।
सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं ।
तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं ॥
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा ।
अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥
बिष संजुत कर निकर पसारी ।
जारत बिरहवंत नर नारी ॥
दो॰ कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास ।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ १२(क) ॥
नवान्हपारायण ॥
सातवाँ विश्राम पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान ।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ १२(ख) ॥
देखु बिभीषन दच्छिन आसा ।
घन घंमड दामिनि बिलासा ॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा ।
होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥
कहत बिभीषन सुनहु कृपाला ।
होइ न तड़ित न बारिद माला ॥
लंका सिखर उपर आगारा ।
तहँ दसकंघर देख अखारा ॥
छत्र मेघडंबर सिर धारी ।
सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥
मंदोदरी श्रवन ताटंका ।
सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका ॥
बाजहिं ताल मृदंग अनूपा ।
सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना ।
चाप चढ़ाइ बान संधाना ॥
दो॰ छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान ।
सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ १३(क) ॥
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग ।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग ॥ १३(ख) ॥
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा ।
अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥
सोचहिं सब निज हृदय मझारी ।
असगुन भयउ भयंकर भारी ॥
दसमुख देखि सभा भय पाई ।
बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही ।
मुकुट परे कस असगुन ताही ॥
सयन करहु निज निज गृह जाई ।
गवने भवन सकल सिर नाई ॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ ।
जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥
सजल नयन कह जुग कर जोरी ।
सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥
कंत राम बिरोध परिहरहू ।
जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥
दो॰ बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु ।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु ॥ १४ ॥
पद पाताल सीस अज धामा ।
अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला ।
नयन दिवाकर कच घन माला ॥
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा ।
निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी ।
मारुत स्वास निगम निज बानी ॥
अधर लोभ जम दसन कराला ।
माया हास बाहु दिगपाला ॥
आनन अनल अंबुपति जीहा ।
उतपति पालन प्रलय समीहा ॥
रोम राजि अष्टादस भारा ।
अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥
उदर उदधि अधगो जातना ।
जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥
दो॰ अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान ।
मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥ १५ क ॥
अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥ १५ ख ॥
बिहँसा नारि बचन सुनि काना ।
अहो मोह महिमा बलवाना ॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं ।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया ।
भय अबिबेक असौच अदाया ॥
रिपु कर रुप सकल तैं गावा ।
अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥
सो सब प्रिया सहज बस मोरें ।
समुझि परा प्रसाद अब तोरें ॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई ।
एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥
तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि ।
समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ ।
पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ ॥
दो॰ एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध ।
सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध ॥ १६(क) ॥
सो॰ फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद ।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥ १६(ख) ॥
इहाँ प्रात जागे रघुराई ।
पूछा मत सब सचिव बोलाई ॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई ।
जामवंत कह पद सिरु नाई ॥
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी ।
बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा ।
दूत पठाइअ बालिकुमारा ॥
नीक मंत्र सब के मन माना ।
अंगद सन कह कृपानिधाना ॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा ।
लंका जाहु तात मम कामा ॥
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ ।
परम चतुर मैं जानत अहऊँ ॥
काजु हमार तासु हित होई ।
रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥
सो॰ प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु ॥ १७(क) ॥
स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ ॥ १७(ख) ॥
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई ।
अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई ॥
प्रभु प्रताप उर सहज असंका ।
रन बाँकुरा बालिसुत बंका ॥
पुर पैठत रावन कर बेटा ।
खेलत रहा सो होइ गै भैंटा ॥
बातहिं बात करष बढ़ि आई ।
जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई ॥
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई ।
गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई ॥
निसिचर निकर देखि भट भारी ।
जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी ॥
एक एक सन मरमु न कहहीं ।
समुझि तासु बध चुप करि रहहीं ॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी ।
आवा कपि लंका जेहीं जारी ॥
अब धौं कहा करिहि करतारा ।
अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई ।
जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई ॥
दो॰ गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज ।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज ॥ १८ ॥
तुरत निसाचर एक पठावा ।
समाचार रावनहि जनावा ॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा ।
आनहु बोलि कहाँ कर कीसा ॥
आयसु पाइ दूत बहु धाए ।
कपिकुंजरहि बोलि लै आए ॥
अंगद दीख दसानन बैंसें ।
सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें ॥
भुजा बिटप सिर सृंग समाना ।
रोमावली लता जनु नाना ॥
मुख नासिका नयन अरु काना ।
गिरि कंदरा खोह अनुमाना ॥
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा ।
बालितनय अतिबल बाँकुरा ॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी ।
रावन उर भा क्रौध बिसेषी ॥
दो॰ जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ ॥ १९ ॥
कह दसकंठ कवन तैं बंदर ।
मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई ।
तव हित कारन आयउँ भाई ॥
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती ।
सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती ॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा ।
जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥
नृप अभिमान मोह बस किंबा ।
हरि आनिहु सीता जगदंबा ॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा ।
सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी ।
परिजन सहित संग निज नारी ॥
सादर जनकसुता करि आगें ।
एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें ॥
दो॰ प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि ।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ २० ॥
रे कपिपोत बोलु संभारी ।
मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥
कहु निज नाम जनक कर भाई ।
केहि नातें मानिऐ मिताई ॥
अंगद नाम बालि कर बेटा ।
तासों कबहुँ भई ही भेटा ॥
अंगद बचन सुनत सकुचाना ।
रहा बालि बानर मैं जाना ॥
अंगद तहीं बालि कर बालक ।
उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु ।
निज मुख तापस दूत कहायहु ॥
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई ।
बिहँसि बचन तब अंगद कहई ॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई ।
बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥
राम बिरोध कुसल जसि होई ।
सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें ।
श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें ॥
दो॰ हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस ।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस ॥
२१ ।
सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई ।
चाहत जासु चरन सेवकाई ॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा ।
अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ॥
सुनि कठोर बानी कपि केरी ।
कहत दसानन नयन तरेरी ॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ ।
नीति धर्म मैं जानत अहऊँ ॥
कह कपि धर्मसीलता तोरी ।
हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ॥
देखी नयन दूत रखवारी ।
बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी ॥
कान नाक बिनु भगिनि निहारी ।
छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी ॥
धर्मसीलता तव जग जागी ।
पावा दरसु हमहुँ बड़भागी ॥
दो॰ जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु ।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ २२(क) ॥
पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास ।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास ॥ २२(ख) ॥
तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद ।
मो सन भिरिहि कवन जोधा बद ॥
तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना ।
अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥
तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ ।
अनुज हमार भीरु अति सोऊ ॥
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा ।
सो कि होइ अब समरारूढ़ा ॥
सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला ।
है कपि एक महा बलसीला ॥
आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा ।
सुनत बचन कह बालिकुमारा ॥
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा ।
साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा ॥
रावन नगर अल्प कपि दहई ।
सुनि अस बचन सत्य को कहई ॥
जो अति सुभट सराहेहु रावन ।
सो सुग्रीव केर लघु धावन ॥
चलइ बहुत सो बीर न होई ।
पठवा खबरि लेन हम सोई ॥
दो॰ सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ ॥ २३(क) ॥
सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह ।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह ॥ २३(ख) ॥
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि ।
जौं मृगपति बध मेड़ुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि ॥ २३(ग) ॥
जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष ।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष ॥ २३(घ) ॥
बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस ।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस ॥ २३(ङ) ॥
हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक ।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक ॥ २३(छ) ॥
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा ।
जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा ॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई ।
पति हित करइ धर्म निपुनाई ॥
अंगद स्वामिभक्त तव जाती ।
प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना ।
तव कटु रटनि करउँ नहिं काना ॥
कह कपि तव गुन गाहकताई ।
सत्य पवनसुत मोहि सुनाई ॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा ।
तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा ॥
सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई ।
दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई ॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा ।
तुम्हरें लाज न रोष न माखा ॥
जौं असि मति पितु खाए कीसा ।
कहि अस बचन हँसा दससीसा ॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही ।
अबहीं समुझि परा कछु मोही ॥
बालि बिमल जस भाजन जानी ।
हतउँ न तोहि अधम अभिमानी ॥
कहु रावन रावन जग केते ।
मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते ॥
बलिहि जितन एक गयउ पताला ।
राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला ॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई ।
दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई ॥
एक बहोरि सहसभुज देखा ।
धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥
कौतुक लागि भवन लै आवा ।
सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा ॥
दो॰ एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख ।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख ॥ २४ ॥
सुनु सठ सोइ रावन बलसीला ।
हरगिरि जान जासु भुज लीला ॥
जान उमापति जासु सुराई ।
पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई ॥
सिर सरोज निज करन्हि उतारी ।
पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला ।
सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला ॥
जानहिं दिग्गज उर कठिनाई ।
जब जब भिरउँ जाइ बरिआई ॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे ।
उर लागत मूलक इव टूटे ॥
जासु चलत डोलति इमि धरनी ।
चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी ॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी ।
सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी ॥
दो॰ तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान ।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान ॥ २५ ॥
सुनि अंगद सकोप कह बानी ।
बोलु सँभारि अधम अभिमानी ॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा ।
दहन अनल सम जासु कुठारा ॥
जासु परसु सागर खर धारा ।
बूड़े नृप अगनित बहु बारा ॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा ।
सो नर क्यों दससीस अभागा ॥
राम मनुज कस रे सठ बंगा ।
धन्वी कामु नदी पुनि गंगा ॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा ।
अन्न दान अरु रस पीयूषा ॥
बैनतेय खग अहि सहसानन ।
चिंतामनि पुनि उपल दसानन ॥
सुनु मतिमंद लोक बैकुंठा ।
लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा ॥
दो॰ सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि ॥
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि ॥ २६ ॥
सुनु रावन परिहरि चतुराई ।
भजसि न कृपासिंधु रघुराई ॥
जौ खल भएसि राम कर द्रोही ।
ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥
मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला ।
राम बयर अस होइहि हाला ॥
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें ।
परिहहिं धरनि राम सर लागें ॥
ते तव सिर कंदुक सम नाना ।
खेलहहिं भालु कीस चौगाना ॥
जबहिं समर कोपहि रघुनायक ।
छुटिहहिं अति कराल बहु सायक ॥
तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा ।
अस बिचारि भजु राम उदारा ॥
सुनत बचन रावन परजरा ।
जरत महानल जनु घृत परा ॥
दो॰ कुंभकरन अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि ।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि ॥ २७ ॥
सठ साखामृग जोरि सहाई ।
बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई ॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा ।
सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥
मम भुज सागर बल जल पूरा ।
जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा ॥
बीस पयोधि अगाध अपारा ।
को अस बीर जो पाइहि पारा ॥
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा ।
भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा ।
पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥
तौ बसीठ पठवत केहि काजा ।
रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू ।
पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥
दो॰ सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस ।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ २८ ॥
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला ।
बिधि के लिखे अंक निज भाला ॥
नर कें कर आपन बध बाँची ।
हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें ।
लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें ॥
आन बीर बल सठ मम आगें ।
पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥
कह अंगद सलज्ज जग माहीं ।
रावन तोहि समान कोउ नाहीं ॥
लाजवंत तव सहज सुभाऊ ।
निज मुख निज गुन कहसि न काऊ ॥
सिर अरु सैल कथा चित रही ।
ताते बार बीस तैं कही ॥
सो भुजबल राखेउ उर घाली ।
जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा ।
काटें सीस कि होइअ सूरा ॥
इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा ।
काटइ निज कर सकल सरीरा ॥
दो॰ जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद ।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद ॥ २९ ॥
अब जनि बतबढ़ाव खल करही ।
सुनु मम बचन मान परिहरही ॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ ।
अस बिचारि रघुबीष पठायउँ ॥
बार बार अस कहइ कृपाला ।
नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे ।
सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा ।
लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी ।
सूनें हरि आनिहि परनारी ॥
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता ।
मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥
जौं न राम अपमानहि डरउँ ।
तोहि देखत अस कौतुक करऊँ ॥
दो॰ तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ ३० ॥
जौ अस करौं तदपि न बड़ाई ।
मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई ॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा ।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा ॥
सदा रोगबस संतत क्रोधी ।
बिष्नु बिमूख श्रुति संत बिरोधी ॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी ।
जीवन सव सम चौदह प्रानी ॥
अस बिचारि खल बधउँ न तोही ।
अब जनि रिस उपजावसि मोही ॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा ।
अधर दसन दसि मीजत हाथा ॥
रे कपि अधम मरन अब चहसी ।
छोटे बदन बात बड़ि कहसी ॥
कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें ।
बल प्रताप बुधि तेज न ताकें ॥
दो॰ अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास ।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ ३१(क) ॥
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक ।
खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥ ३१(ख) ॥
जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा ।
क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा ॥
हरि हर निंदा सुनइ जो काना ।
होइ पाप गोघात समाना ॥
कटकटान कपिकुंजर भारी ।
दुहु भुजदंड तमकि महि मारी ॥
डोलत धरनि सभासद खसे ।
चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥
गिरत सँभारि उठा दसकंधर ।
भूतल परे मुकुट अति सुंदर ॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे ।
कछु अंगद प्रभु पास पबारे ॥
आवत मुकुट देखि कपि भागे ।
दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥
की रावन करि कोप चलाए ।
कुलिस चारि आवत अति धाए ॥
कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू ।
लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥
ए किरीट दसकंधर केरे ।
आवत बालितनय के प्रेरे ॥
दो॰ तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास ।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥ ३२(क) ॥
उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ ॥ ३२(ख) ॥
एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु ।
खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥
मर्कटहीन करहु महि जाई ।
जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा ।
गाल बजावत तोहि न लाजा ॥
मरु गर काटि निलज कुलघाती ।
बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥
रे त्रिय चोर कुमारग गामी ।
खल मल रासि मंदमति कामी ॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा ।
भएसि कालबस खल मनुजादा ॥
याको फलु पावहिगो आगें ।
बानर भालु चपेटन्हि लागें ॥
रामु मनुज बोलत असि बानी ।
गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं ।
सिरन्हि समेत समर महि माहीं ॥
सो॰ सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर ।
बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥ ३३(क) ॥
तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर ।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥ ३३(ख) ॥
मै तव दसन तोरिबे लायक ।
आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं ।
लंका गहि समुद्र महँ बोरौं ॥
गूलरि फल समान तव लंका ।
बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका ॥
मैं बानर फल खात न बारा ।
आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥
जुगति सुनत रावन मुसुकाई ।
मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा ।
मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा ॥
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा ।
जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा ।
सभा माझ पन करि पद रोपा ॥
जौं मम चरन सकसि सठ टारी ।
फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा ।
पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥
इंद्रजीत आदिक बलवाना ।
हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई ।
पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई ॥
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती ।
टरइ न कीस चरन एहि भाँती ॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी ।
मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥
दो॰ कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥ ३४(क) ॥
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग ॥ ३४(ख) ॥
कपि बल देखि सकल हियँ हारे ।
उठा आपु कपि कें परचारे ॥
गहत चरन कह बालिकुमारा ।
मम पद गहें न तोर उबारा ॥
गहसि न राम चरन सठ जाई ।
सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥
भयउ तेजहत श्री सब गई ।
मध्य दिवस जिमि ससि सोहई ॥
सिंघासन बैठेउ सिर नाई ।
मानहुँ संपति सकल गँवाई ॥
जगदातमा प्रानपति रामा ।
तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा ।
होइ बिस्व पुनि पावइ नासा ॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई ।
तासु दूत पन कहु किमि टरई ॥
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना ।
मान न ताहि कालु निअराना ॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो ।
यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई ।
तोहि अबहिं का करौं बड़ाई ॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा ।
सो सुनि रावन भयउ दुखारा ॥
जातुधान अंगद पन देखी ।
भय ब्याकुल सब भए बिसेषी ॥
दो॰ रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज ।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज ॥ ३५(क) ॥
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ ।
मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ (ख) ॥
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही ।
सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥
रामानुज लघु रेख खचाई ।
सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा ।
जाके दूत केर यह कामा ॥
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका ।
आयउ कपि केहरी असंका ॥
रखवारे हति बिपिन उजारा ।
देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा ।
कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥
अब पति मृषा गाल जनि मारहु ।
मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु ।
अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥
बान प्रताप जान मारीचा ।
तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला ।
रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला ॥
भंजि धनुष जानकी बिआही ।
तब संग्राम जितेहु किन ताही ॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा ।
राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी ।
तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥
दो॰ बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध ।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध ॥ ३६ ॥
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला ।
उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू ।
दूत पठायउ तव हित हेतू ॥
सभा माझ जेहिं तव बल मथा ।
करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके ।
रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू ।
मुधा मान ममता मद बहहू ॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा ।
काल बिबस मन उपज न बोधा ॥
काल दंड गहि काहु न मारा ।
हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥
निकट काल जेहि आवत साईं ।
तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं ॥
दो॰ दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु ।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ ३७ ॥
नारि बचन सुनि बिसिख समाना ।
सभाँ गयउ उठि होत बिहाना ॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली ।
अति अभिमान त्रास सब भूली ॥
इहाँ राम अंगदहि बोलावा ।
आइ चरन पंकज सिरु नावा ॥
अति आदर सपीप बैठारी ।
बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥
बालितनय कौतुक अति मोही ।
तात सत्य कहु पूछउँ तोही ॥
।
रावनु जातुधान कुल टीका ।
भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए ।
कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी ।
मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥
साम दान अरु दंड बिभेदा ।
नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥
नीति धर्म के चरन सुहाए ।
अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥
दो॰ धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस ।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥
३८(((क) ॥
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार ।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ ३८(ख) ॥
रिपु के समाचार जब पाए ।
राम सचिव सब निकट बोलाए ॥
लंका बाँके चारि दुआरा ।
केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन ।
सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा ।
चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥
जथाजोग सेनापति कीन्हे ।
जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए ।
सुनि कपि सिंघनाद करि धाए ॥
हरषित राम चरन सिर नावहिं ।
गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं ॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा ।
जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥
जानत परम दुर्ग अति लंका ।
प्रभु प्रताप कपि चले असंका ॥
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी ।
मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥
दो॰ जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव ।
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव ॥ ३९ ॥
लंकाँ भयउ कोलाहल भारी ।
सुना दसानन अति अहँकारी ॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई ।
बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥
आए कीस काल के प्रेरे ।
छुधावंत सब निसिचर मेरे ॥
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा ।
गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू ।
धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥
उमा रावनहि अस अभिमाना ।
जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥
चले निसाचर आयसु मागी ।
गहि कर भिंडिपाल बर साँगी ॥
तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा ।
सुल कृपान परिघ गिरिखंडा ॥
जिमि अरुनोपल निकर निहारी ।
धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा ।
तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥
दो॰ नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर ।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर ॥ ४० ॥
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे ।
मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे ॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ ।
सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ ॥
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा ।
सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा ।
अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा ।
पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं ।
दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं ॥
उत रावन इत राम दोहाई ।
जयति जयति जय परी लराई ॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं ।
कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं ॥
दो॰ धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं ।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं ॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए ।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए ॥
दो॰ एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥ ४१ ॥
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा ।
मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर ।
जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥
चले निसाचर निकर पराई ।
प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥
हाहाकार भयउ पुर भारी ।
रोवहिं बालक आतुर नारी ॥
सब मिलि देहिं रावनहि गारी ।
राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना ।
फेरि सुभट लंकेस रिसाना ॥
जो रन बिमुख सुना मैं काना ।
सो मैं हतब कराल कृपाना ॥
सर्बसु खाइ भोग करि नाना ।
समर भूमि भए बल्लभ प्राना ॥
उग्र बचन सुनि सकल डेराने ।
चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥
सन्मुख मरन बीर कै सोभा ।
तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥
दो॰ बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि ।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥ ४२ ॥
भय आतुर कपि भागन लागे ।
जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥
कोउ कह कहँ अंगद हनुमंता ।
कहँ नल नील दुबिद बलवंता ॥
निज दल बिकल सुना हनुमाना ।
पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥
मेघनाद तहँ करइ लराई ।
टूट न द्वार परम कठिनाई ॥
पवनतनय मन भा अति क्रोधा ।
गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा ।
गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥
भंजेउ रथ सारथी निपाता ।
ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना ।
स्यंदन घालि तुरत गृह आना ॥
दो॰ अंगद सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल ।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल ॥ ४३ ॥
जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर ।
राम प्रताप सुमिरि उर अंतर ॥
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई ।
करहि कोसलाधीस दोहाई ॥
कलस सहित गहि भवनु ढहावा ।
देखि निसाचरपति भय पावा ॥
नारि बृंद कर पीटहिं छाती ।
अब दुइ कपि आए उतपाती ॥
कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं ।
रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं ॥
पुनि कर गहि कंचन के खंभा ।
कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा ॥
गर्जि परे रिपु कटक मझारी ।
लागे मर्दै भुज बल भारी ॥
काहुहि लात चपेटन्हि केहू ।
भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥
दो॰ एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड ।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड ॥ ४४ ॥
महा महा मुखिआ जे पावहिं ।
ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं ॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा ।
देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी ।
पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर ।
बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥
देहिं परम गति सो जियँ जानी ।
अस कृपाल को कहहु भवानी ॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी ।
नर मतिमंद ते परम अभागी ॥
अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा ।
कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥
लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें ।
मथहि सिंधु दुइ मंदर जैसें ॥
दो॰ भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत ।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत ॥ ४५ ॥
प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए ।
देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥
राम कृपा करि जुगल निहारे ।
भए बिगतश्रम परम सुखारे ॥
गए जानि अंगद हनुमाना ।
फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥
जातुधान प्रदोष बल पाई ।
धाए करि दससीस दोहाई ॥
निसिचर अनी देखि कपि फिरे ।
जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी ।
लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥
महाबीर निसिचर सब कारे ।
नाना बरन बलीमुख भारे ॥
सबल जुगल दल समबल जोधा ।
कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥
प्राबिट सरद पयोद घनेरे ।
लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥
अनिप अकंपन अरु अतिकाया ।
बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥
भयउ निमिष महँ अति अँधियारा ।
बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥
दो॰ देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार ।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार ॥ ४६ ॥
सकल मरमु रघुनायक जाना ।
लिए बोलि अंगद हनुमाना ॥
समाचार सब कहि समुझाए ।
सुनत कोपि कपिकुंजर धाए ॥
पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़ावा ।
पावक सायक सपदि चलावा ॥
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं ।
ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं ॥
भालु बलीमुख पाइ प्रकासा ।
धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥
हनूमान अंगद रन गाजे ।
हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥
भागत पट पटकहिं धरि धरनी ।
करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥
गहि पद डारहिं सागर माहीं ।
मकर उरग झष धरि धरि खाहीं ॥
दो॰ कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥ ४७ ॥
निसा जानि कपि चारिउ अनी ।
आए जहाँ कोसला धनी ॥
राम कृपा करि चितवा सबही ।
भए बिगतश्रम बानर तबही ॥
उहाँ दसानन सचिव हँकारे ।
सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥
आधा कटकु कपिन्ह संघारा ।
कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥
माल्यवंत अति जरठ निसाचर ।
रावन मातु पिता मंत्री बर ॥
बोला बचन नीति अति पावन ।
सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी ।
असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥
बेद पुरान जासु जसु गायो ।
राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥
दो॰ हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान ।
जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान ॥ ४८(क) ॥
मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध ।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥ ४८(ख) ॥
परिहरि बयरु देहु बैदेही ।
भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥
ताके बचन बान सम लागे ।
करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही ।
अब जनि नयन देखावसि मोही ॥
तेहि अपने मन अस अनुमाना ।
बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा ।
तब सकोप बोलेउ घननादा ॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा ।
करिहउँ बहुत कहौं का थोरा ॥
सुनि सुत बचन भरोसा आवा ।
प्रीति समेत अंक बैठावा ॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा ।
लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा ।
नगर कोलाहलु भयउ घनेरा ॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए ।
गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥
छं॰ ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले ।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए ।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए ॥
दो॰ मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ ४९ ॥
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता ।
धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा ।
अंगद हनूमंत बल सींवा ॥
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही ।
आजु सबहि हठि मारउँ ओही ॥
अस कहि कठिन बान संधाने ।
अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥
सर समुह सो छाड़ै लागा ।
जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर ।
सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा ।
बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥
सो कपि भालु न रन महँ देखा ।
कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥
दो॰ दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर ।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ ५० ॥
देखि पवनसुत कटक बिहाला ।
क्रोधवंत जनु धायउ काला ॥
महासैल एक तुरत उपारा ।
अति रिस मेघनाद पर डारा ॥
आवत देखि गयउ नभ सोई ।
रथ सारथी तुरग सब खोई ॥
बार बार पचार हनुमाना ।
निकट न आव मरमु सो जाना ॥
रघुपति निकट गयउ घननादा ।
नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे ।
कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना ।
करै लाग माया बिधि नाना ॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला ।
डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥
दो॰ जासु प्रबल माया बल सिव बिरंचि बड़ छोट ।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट ॥ ५१ ॥
नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा ।
महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची ।
मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा ।
बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा ॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा ।
सूझ न आपन हाथ पसारा ॥
कपि अकुलाने माया देखें ।
सब कर मरन बना एहि लेखें ॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने ।
भए सभीत सकल कपि जाने ॥
एक बान काटी सब माया ।
जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके ।
भए प्रबल रन रहहिं न रोके ॥
दो॰ आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ ५२ ॥
छतज नयन उर बाहु बिसाला ।
हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए ।
नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥
भूधर नख बिटपायुध धारी ।
धाए कपि जय राम पुकारी ॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी ।
इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं ।
कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं ॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू ।
सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥
असि रव पूरि रही नव खंडा ।
धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा ॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा ।
कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा ॥
दो॰ रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ ५३ ॥
घायल बीर बिराजहिं कैसे ।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा ।
भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥
एकहि एक सकइ नहिं जीती ।
निसिचर छल बल करइ अनीती ॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता ।
भंजेउ रथ सारथी तुरंता ॥
नाना बिधि प्रहार कर सेषा ।
राच्छस भयउ प्रान अवसेषा ॥
रावन सुत निज मन अनुमाना ।
संकठ भयउ हरिहि मम प्राना ॥
बीरघातिनी छाड़िसि साँगी ।
तेज पुंज लछिमन उर लागी ॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें ।
तब चलि गयउ निकट भय त्यागें ॥
दो॰ मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ ५४ ॥
सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू ।
जारइ भुवन चारिदस आसू ॥
सक संग्राम जीति को ताही ।
सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥
यह कौतूहल जानइ सोई ।
जा पर कृपा राम कै होई ॥
संध्या भइ फिरि द्वौ बाहनी ।
लगे सँभारन निज निज अनी ॥
ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर ।
लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना ।
अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥
जामवंत कह बैद सुषेना ।
लंकाँ रहइ को पठई लेना ॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता ।
आनेउ भवन समेत तुरंता ॥
दो॰ राम पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन ।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ ५५ ॥
राम चरन सरसिज उर राखी ।
चला प्रभंजन सुत बल भाषी ॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा ।
रावन कालनेमि गृह आवा ॥
दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना ।
पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा ।
तासु पंथ को रोकन पारा ॥
भजि रघुपति करु हित आपना ।
छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥
नील कंज तनु सुंदर स्यामा ।
हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥
मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू ।
महा मोह निसि सूतत जागू ॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई ।
सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥
दो॰ सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार ।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ ५६ ॥
अस कहि चला रचिसि मग माया ।
सर मंदिर बर बाग बनाया ॥
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम ।
मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा ।
मायापति दूतहि चह मोहा ॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा ।
लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥
होत महा रन रावन रामहिं ।
जितहहिं राम न संसय या महिं ॥
इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई ।
ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल ।
कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥
सर मज्जन करि आतुर आवहु ।
दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥
दो॰ सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान ।
मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान ॥ ५७ ॥
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा ।
मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा ।
मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥
अस कहि गई अपछरा जबहीं ।
निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं ॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू ।
पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू ॥
सिर लंगूर लपेटि पछारा ।
निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना ।
सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥
देखा सैल न औषध चीन्हा ।
सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ ।
अवधपुरी उपर कपि गयऊ ॥
दो॰ देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि ।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ ५८ ॥
परेउ मुरुछि महि लागत सायक ।
सुमिरत राम राम रघुनायक ॥
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए ।
कपि समीप अति आतुर आए ॥
बिकल बिलोकि कीस उर लावा ।
जागत नहिं बहु भाँति जगावा ॥
मुख मलीन मन भए दुखारी ।
कहत बचन भरि लोचन बारी ॥
जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा ।
तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ॥
जौं मोरें मन बच अरु काया ।
प्रीति राम पद कमल अमाया ॥
तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला ।
जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा ।
कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥
सो॰ लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल ।
प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक ॥ ५९ ॥
तात कुसल कहु सुखनिधान की ।
सहित अनुज अरु मातु जानकी ॥
कपि सब चरित समास बखाने ।
भए दुखी मन महुँ पछिताने ॥
अहह दैव मैं कत जग जायउँ ।
प्रभु के एकहु काज न आयउँ ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा ।
पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥
तात गहरु होइहि तोहि जाता ।
काजु नसाइहि होत प्रभाता ॥
चढ़ु मम सायक सैल समेता ।
पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता ॥
सुनि कपि मन उपजा अभिमाना ।
मोरें भार चलिहि किमि बाना ॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी ।
बंदि चरन कह कपि कर जोरी ॥
दो॰ तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहउँ नाथ तुरंत ।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत ॥ ६०(क) ॥
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार ।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥ ६०(ख) ॥
उहाँ राम लछिमनहिं निहारी ।
बोले बचन मनुज अनुसारी ॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ ।
राम उठाइ अनुज उर लायउ ॥
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ ।
बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता ।
सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई ।
उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू ।
पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥
सुत बित नारि भवन परिवारा ।
होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता ।
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥
जथा पंख बिनु खग अति दीना ।
मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही ।
जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥
जैहउँ अवध कवन मुहु लाई ।
नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं ।
नारि हानि बिसेष छति नाहीं ॥
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा ।
सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥
निज जननी के एक कुमारा ।
तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ॥
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी ।
सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई ।
उठि किन मोहि सिखावहु भाई ॥
बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन ।
स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥
उमा एक अखंड रघुराई ।
नर गति भगत कृपाल देखाई ॥
सो॰ प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर ।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥ ६१ ॥
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना ।
अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई ।
उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता ।
हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा ।
जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा ॥
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ ।
अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा ।
बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥
जागा निसिचर देखिअ कैसा ।
मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई ।
काहे तव मुख रहे सुखाई ॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी ।
जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे ।
महामहा जोधा संघारे ॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी ।
भट अतिकाय अकंपन भारी ॥
अपर महोदर आदिक बीरा ।
परे समर महि सब रनधीरा ॥
दो॰ सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान ।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ ६२ ॥
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा ।
अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना ।
भजहु राम होइहि कल्याना ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक ।
जाके हनूमान से पायक ॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई ।
प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक ।
सिव बिरंचि सुर जाके सेवक ॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा ।
कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई ।
लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन ।
देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥
दो॰ राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक ।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ ६३ ॥
महिष खाइ करि मदिरा पाना ।
गर्जा बज्राघात समाना ॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा ।
चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ ।
परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो ।
रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥
तात लात रावन मोहि मारा ।
कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ ।
देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन ।
सो कि मान अब परम सिखावन ॥
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन ।
भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर ।
भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥
दो॰ बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर ।
६४ ॥
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन ।
आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥
नाथ भूधराकार सरीरा ।
कुंभकरन आवत रनधीरा ॥
एतना कपिन्ह सुना जब काना ।
किलकिलाइ धाए बलवाना ॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर ।
कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा ।
करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥
मुर यो न मन तनु टर यो न टार यो ।
जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो ।
पर यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता ।
घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ॥
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि ।
जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥
चली बलीमुख सेन पराई ।
अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥
दो॰ अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव ।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ ६५ ॥
उमा करत रघुपति नरलीला ।
खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥
भृकुटि भंग जो कालहि खाई ।
ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ॥
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं ।
गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं ॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा ।
सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती ।
निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती ॥
काटेसि दसन नासिका काना ।
गरजि अकास चलउ तेहिं जाना ॥
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा ।
अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥
पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना ।
जयति जयति जय कृपानिधाना ॥
नाक कान काटे जियँ जानी ।
फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी ॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा ।
देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥
दो॰ जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह ।
एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह ॥ ६६ ॥
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा ।
सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई ।
जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई ॥
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा ।
कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा ।
निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥
रन मद मत्त निसाचर दर्पा ।
बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे ।
सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥
कुंभकरन कपि फौज बिडारी ।
सुनि धाई रजनीचर धारी ॥
देखि राम बिकल कटकाई ।
रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥
दो॰ सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन ।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ ६७ ॥
कर सारंग साजि कटि भाथा ।
अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥
प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा ।
रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा ॥
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा ।
कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा ।
लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा ।
बहुतक बीर होहिं सत खंडा ॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं ।
उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं ॥
लागत बान जलद जिमि गाजहीं ।
बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं ॥
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं ।
धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं ॥
दो॰ छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच ।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ ६८ ॥
कुंभकरन मन दीख बिचारी ।
हति धन माझ निसाचर धारी ॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा ।
कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥
कोपि महीधर लेइ उपारी ।
डारइ जहँ मर्कट भट भारी ॥
आवत देखि सैल प्रभू भारे ।
सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥
।
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक ।
छाँड़े अति कराल बहु सायक ॥
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं ।
जिमि दामिनि घन माझ समाहीं ॥
सोनित स्त्रवत सोह तन कारे ।
जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए ।
बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥
दो॰ महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस ।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस ॥ ६९ ॥
भागे भालु बलीमुख जूथा ।
बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥
चले भागि कपि भालु भवानी ।
बिकल पुकारत आरत बानी ॥
यह निसिचर दुकाल सम अहई ।
कपिकुल देस परन अब चहई ॥
कृपा बारिधर राम खरारी ।
पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥
सकरुन बचन सुनत भगवाना ।
चले सुधारि सरासन बाना ॥
राम सेन निज पाछैं घाली ।
चले सकोप महा बलसाली ॥
खैंचि धनुष सर सत संधाने ।
छूटे तीर सरीर समाने ॥
लागत सर धावा रिस भरा ।
कुधर डगमगत डोलति धरा ॥
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी ।
रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी ।
प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी ॥
काटें भुजा सोह खल कैसा ।
पच्छहीन मंदर गिरि जैसा ॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका ।
ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥
दो॰ करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि ।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ ७० ॥
सभय देव करुनानिधि जान्यो ।
श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो ॥
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ ।
तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा ।
काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा ।
धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥
सो सिर परेउ दसानन आगें ।
बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें ॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा ।
तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर ।
हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥
तासु तेज प्रभु बदन समाना ।
सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं ।
अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं ॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए ।
तेही समय देवरिषि आए ॥
गगनोपरि हरि गुन गन गाए ।
रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए ।
राम समर महि सोभत भए ॥
छं॰ संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी ।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने ।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥
दो॰ निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम ।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ ७१ ॥
दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी ।
समर भई सुभटन्ह श्रम घनी ॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा ।
जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा ॥
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती ।
निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥
बहु बिलाप दसकंधर करई ।
बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥
रोवहिं नारि हृदय हति पानी ।
तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ ।
कहि बहु कथा पिता समुझायउ ॥
देखेहु कालि मोरि मनुसाई ।
अबहिं बहुत का करौं बड़ाई ॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ ।
सो बल तात न तोहि देखायउँ ॥
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना ।
चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥
इत कपि भालु काल सम बीरा ।
उत रजनीचर अति रनधीरा ॥
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू ।
बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥
दो॰ मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास ॥
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास ॥ ७२ ॥
सक्ति सूल तरवारि कृपाना ।
अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥
डारह परसु परिघ पाषाना ।
लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥
दस दिसि रहे बान नभ छाई ।
मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना ।
जो मारइ तेहि कोउ न जाना ॥
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं ।
देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं ॥
अवघट घाट बाट गिरि कंदर ।
माया बल कीन्हेसि सर पंजर ॥
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर ।
सुरपति बंदि परे जनु मंदर ॥
मारुतसुत अंगद नल नीला ।
कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन ।
सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥
पुनि रघुपति सैं जूझे लागा ।
सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥
ब्याल पास बस भए खरारी ।
स्वबस अनंत एक अबिकारी ॥
नट इव कपट चरित कर नाना ।
सदा स्वतंत्र एक भगवाना ॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो ।
नागपास देवन्ह भय पायो ॥
दो॰ गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास ।
सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास ॥ ७३ ॥
चरित राम के सगुन भवानी ।
तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी ।
रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा ।
पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा ॥
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा ।
सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा ॥
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही ।
लागेसि अधम पचारै मोही ॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो ।
जामवंत कर गहि सोइ धायो ॥
मारिसि मेघनाद कै छाती ।
परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ ।
महि पछारि निज बल देखरायो ॥
बर प्रसाद सो मरइ न मारा ।
तब गहि पद लंका पर डारा ॥
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो ।
राम समीप सपदि सो आयो ॥
दो॰ खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ ।
७४(क) ॥
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ ॥ ७४(ख) ॥
मेघनाद के मुरछा जागी ।
पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥
तुरत गयउ गिरिबर कंदरा ।
करौं अजय मख अस मन धरा ॥
इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा ।
सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥
मेघनाद मख करइ अपावन ।
खल मायावी देव सतावन ॥
जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि ।
नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना ।
बोले अंगदादि कपि नाना ॥
लछिमन संग जाहु सब भाई ।
करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही ।
देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई ।
जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥
जामवंत सुग्रीव बिभीषन ।
सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन ।
कटि निषंग कसि साजि सरासन ॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा ।
बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥
जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं ।
तौ रघुपति सेवक न कहावौं ॥
जौं सत संकर करहिं सहाई ।
तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई ॥
दो॰ रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत ।
अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत ॥ ७५ ॥
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा ।
आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा ।
जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ॥
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई ।
लातन्हि हति हति चले पराई ॥
लै त्रिसुल धावा कपि भागे ।
आए जहँ रामानुज आगे ॥
आवा परम क्रोध कर मारा ।
गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥
कोपि मरुतसुत अंगद धाए ।
हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा ।
सर हति कृत अनंत जुग खंडा ॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा ।
हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ॥
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा ।
तब धावा करि घोर चिकारा ॥
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला ।
लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥
देखेसि आवत पबि सम बाना ।
तुरत भयउ खल अंतरधाना ॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई ।
कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा ।
परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा ।
एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा ।
सर संधान कीन्ह करि दापा ॥
छाड़ा बान माझ उर लागा ।
मरती बार कपटु सब त्यागा ॥
दो॰ रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान ॥ ७६ ॥
बिनु प्रयास हनुमान उठायो ।
लंका द्वार राखि पुनि आयो ॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा ।
चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा ॥
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं ।
श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं ॥
जय अनंत जय जगदाधारा ।
तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए ।
लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं ।
मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं ॥
मंदोदरी रुदन कर भारी ।
उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा ।
सकल कहहिं दसकंधर पोचा ॥
दो॰ तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि ।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥ ७७ ॥
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन ।
आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा ।
लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला ।
रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥
सो अबहीं बरु जाउ पराई ।
संजुग बिमुख भएँ न भलाई ॥
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा ।
देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा ॥
अस कहि मरुत बेग रथ साजा ।
बाजे सकल जुझाऊ बाजा ॥
चले बीर सब अतुलित बली ।
जनु कज्जल कै आँधी चली ॥
असगुन अमित होहिं तेहि काला ।
गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला ॥
छं॰ अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते ।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने ।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥
दो॰ ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ ७८ ॥
चलेउ निसाचर कटकु अपारा ।
चतुरंगिनी अनी बहु धारा ॥
बिबिध भाँति बाहन रथ जाना ।
बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥
चले मत्त गज जूथ घनेरे ।
प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥
बरन बरद बिरदैत निकाया ।
समर सूर जानहिं बहु माया ॥
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी ।
बीर बसंत सेन जनु साजी ॥
चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं ।
छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ॥
उठी रेनु रबि गयउ छपाई ।
मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं ।
प्रलय समय के घन जनु गाजहिं ॥
भेरि नफीरि बाज सहनाई ।
मारू राग सुभट सुखदाई ॥
केहरि नाद बीर सब करहीं ।
निज निज बल पौरुष उच्चरहीं ॥
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा ।
मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई ।
अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई ॥
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई ।
धाए करि रघुबीर दोहाई ॥
छं॰ धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते ।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते ॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं ।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं ॥
दो॰ दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि ।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥ ७९ ॥
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा ।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा ॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा ।
बंदि चरन कह सहित सनेहा ॥
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना ।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना ।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ॥
सौरज धीरज तेहि रथ चाका ।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥
बल बिबेक दम परहित घोरे ।
छमा कृपा समता रजु जोरे ॥
ईस भजनु सारथी सुजाना ।
बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा ।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥
अमल अचल मन त्रोन समाना ।
सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा ।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें ।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ॥
दो॰ महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर ।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥ ८०(क) ॥
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज ।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज ॥ ८०(ख) ॥
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान ।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥ ८०(ग) ॥
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना ।
देखत रन नभ चढ़े बिमाना ॥
हमहू उमा रहे तेहि संगा ।
देखत राम चरित रन रंगा ॥
सुभट समर रस दुहु दिसि माते ।
कपि जयसील राम बल ताते ॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं ।
एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं ॥
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं ।
सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं ॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं ।
गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं ॥
निसिचर भट महि गाड़हि भालू ।
ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥
बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे ।
देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥
छं॰ क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं ।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं ॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं ।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं ॥
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं ।
प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं ॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही ।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥
दो॰ निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप ।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥ ८१ ॥
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर ।
सन्मुख चले हूह दै बंदर ॥
गहि कर पादप उपल पहारा ।
डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥
लागहिं सैल बज्र तन तासू ।
खंड खंड होइ फूटहिं आसू ॥
चला न अचल रहा रथ रोपी ।
रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा ।
मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा ॥
चले पराइ भालु कपि नाना ।
त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना ॥
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई ।
यह खल खाइ काल की नाई ॥
तेहि देखे कपि सकल पराने ।
दसहुँ चाप सायक संधाने ॥
छं॰ संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं ।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं ॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे ।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे ॥
दो॰ निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥ ८२ ॥
रे खल का मारसि कपि भालू ।
मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती ।
आजु निपाति जुड़ावउँ छाती ॥
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा ।
लछिमन किए सकल सत खंडा ॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे ।
तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा ।
स्यंदनु भंजि सारथी मारा ॥
सत सत सर मारे दस भाला ।
गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥
पुनि सत सर मारा उर माहीं ।
परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं ॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी ।
छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥
छं॰ सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही ।
पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥
ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी ।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥
दो॰ देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर ।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥ ८३ ॥
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा ।
उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा ।
परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥
मुरुछा गै बहोरि सो जागा ।
कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही ।
जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो ।
देखि दसानन बिसमय पायो ॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता ।
तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता ॥
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला ।
गई गगन सो सकति कराला ॥
पुनि कोदंड बान गहि धाए ।
रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥
छं॰ आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो ।
गिर यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो ।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥
दो॰ उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य ।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥ ८४ ॥
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई ।
सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥
नाथ करइ रावन एक जागा ।
सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा ॥
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर ।
करहिं बिधंस आव दसकंधर ॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए ।
हनुमदादि अंगद सब धाए ॥
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका ।
पैठे रावन भवन असंका ॥
जग्य करत जबहीं सो देखा ।
सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥
रन ते निलज भाजि गृह आवा ।
इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥
अस कहि अंगद मारा लाता ।
चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥
छं॰ नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं ।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं ॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई ।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई ॥
दो॰ जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास ।
चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ ८५ ॥
चलत होहिं अति असुभ भयंकर ।
बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर ॥
भयउ कालबस काहु न माना ।
कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥
चली तमीचर अनी अपारा ।
बहु गज रथ पदाति असवारा ॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें ।
सलभ समूह अनल कहँ जैंसें ॥
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही ।
दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥
अब जनि राम खेलावहु एही ।
अतिसय दुखित होति बैदेही ॥
देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना ।
उठि रघुबीर सुधारे बाना ।
जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे ।
सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा ।
अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥
कटितट परिकर कस्यो निषंगा ।
कर कोदंड कठिन सारंगा ॥
छं॰ सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो ।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे ।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे ॥
दो॰ सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार ।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥ ८६ ॥
एहीं बीच निसाचर अनी ।
कसमसात आई अति घनी ।
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा ।
प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥
बहु कृपान तरवारि चमंकहिं ।
जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं ॥
गज रथ तुरग चिकार कठोरा ।
गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥
कपि लंगूर बिपुल नभ छाए ।
मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए ॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा ।
बान बुंद भै बृष्टि अपारा ॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा ।
बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई ।
घायल भै निसिचर समुदाई ॥
लागत बान बीर चिक्करहीं ।
घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं ॥
स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी ।
सोनित सरि कादर भयकारी ॥
छं॰ कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी ।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥
जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने ।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने ॥
दो॰ बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन ।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥ ८७ ॥
मज्जहि भूत पिसाच बेताला ।
प्रमथ महा झोटिंग कराला ॥
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं ।
एक ते छीनि एक लै खाहीं ॥
एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई ।
सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥
कहँरत भट घायल तट गिरे ।
जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥
खैंचहिं गीध आँत तट भए ।
जनु बंसी खेलत चित दए ॥
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं ।
जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं ॥
जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं ।
भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं ॥
भट कपाल करताल बजावहिं ।
चामुंडा नाना बिधि गावहिं ॥
जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं ।
खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं ॥
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं ।
सीस परे महि जय जय बोल्लहिं ॥
छं॰ बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं ।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए ।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए ॥
दो॰ रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार ।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥ ८८ ॥
देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा ।
उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा ।
हरष सहित मातलि लै आवा ॥
तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा ।
हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा ॥
चंचल तुरग मनोहर चारी ।
अजर अमर मन सम गतिकारी ॥
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी ।
धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी ।
तब रावन माया बिस्तारी ॥
सो माया रघुबीरहि बाँची ।
लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी ।
अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥
छं॰ बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे ।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी ।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥
दो॰ बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर ।
द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर ॥ ८९ ॥
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा ।
बिप्र चरन पंकज सिरु नावा ॥
तब लंकेस क्रोध उर छावा ।
गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥
जीतेहु जे भट संजुग माहीं ।
सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं ॥
रावन नाम जगत जस जाना ।
लोकप जाकें बंदीखाना ॥
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा ।
बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥
निसिचर निकर सुभट संघारेहु ।
कुंभकरन घननादहि मारेहु ॥
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही ।
जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं ॥
आजु करउँ खलु काल हवाले ।
परेहु कठिन रावन के पाले ॥
सुनि दुर्बचन कालबस जाना ।
बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई ।
जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥
छं॰ जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा ।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं ।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं ॥
दो॰ राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान ।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ ९० ॥
कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर ।
कुलिस समान लाग छाँड़ै सर ॥
नानाकार सिलीमुख धाए ।
दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥
पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा ।
छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥
छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई ।
बान संग प्रभु फेरि चलाई ॥
कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै ।
बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥
निफल होहिं रावन सर कैसें ।
खल के सकल मनोरथ जैसें ॥
तब सत बान सारथी मारेसि ।
परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥
राम कृपा करि सूत उठावा ।
तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥
छं॰ भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे ।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥
मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे ।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥
दो॰ तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल ।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ ९१ ॥
चले बान सपच्छ जनु उरगा ।
प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥
रथ बिभंजि हति केतु पताका ।
गर्जा अति अंतर बल थाका ॥
तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना ।
अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना ॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके ।
जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥
तब रावन दस सूल चलावा ।
बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक ।
खैंचि सरासन छाँड़े सायक ॥
रावन सिर सरोज बनचारी ।
चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥
दस दस बान भाल दस मारे ।
निसरि गए चले रुधिर पनारे ॥
स्त्रवत रुधिर धायउ बलवाना ।
प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना ॥
तीस तीर रघुबीर पबारे ।
भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥
काटतहीं पुनि भए नबीने ।
राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए ।
कटत झटिति पुनि नूतन भए ॥
पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा ।
अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू ।
मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥
छं॰ जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं ।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरन न पावहीं ॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं ।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं ॥
दो॰ जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार ।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ ९२ ॥
दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी ।
बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी ॥
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी ।
धायउ दसहु सरासन तानी ॥
समर भूमि दसकंधर कोप्यो ।
बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥
दंड एक रथ देखि न परेऊ ।
जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥
हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा ।
तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा ॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे ।
ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे ॥
काटे सिर नभ मारग धावहिं ।
जय जय धुनि करि भय उपजावहिं ॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा ।
कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥
छं॰ कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले ।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं ।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं ॥
दो॰ पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड ।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड ॥ ९३ ॥
आवत देखि सक्ति अति घोरा ।
प्रनतारति भंजन पन मोरा ॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला ।
सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई ।
प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई ॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो ।
गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे ।
तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए ।
एक एक के कोटिन्ह पाए ॥
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो ।
अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥
राम बिमुख सठ चहसि संपदा ।
अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥
छं॰ उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर यो ।
दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर यो ॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै ।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥
दो॰ उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ ॥ ९४ ॥
देखा श्रमित बिभीषनु भारी ।
धायउ हनूमान गिरि धारी ॥
रथ तुरंग सारथी निपाता ।
हृदय माझ तेहि मारेसि लाता ॥
ठाढ़ रहा अति कंपित गाता ।
गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता ॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी ।
चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी ॥
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना ।
पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना ॥
लरत अकास जुगल सम जोधा ।
एकहि एकु हनत करि क्रोधा ॥
सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं ।
कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीं ॥
बुधि बल निसिचर परइ न पार यो ।
तब मारुत सुत प्रभु संभार यो ॥
छं॰ संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो ।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो ॥
हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले ।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले ॥
दो॰ तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड ।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड ॥ ९५ ॥
अंतरधान भयउ छन एका ।
पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥
रघुपति कटक भालु कपि जेते ।
जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥
देखे कपिन्ह अमित दससीसा ।
जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ॥
भागे बानर धरहिं न धीरा ।
त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा ॥
दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन ।
गर्जहिं घोर कठोर भयावन ॥
डरे सकल सुर चले पराई ।
जय कै आस तजहु अब भाई ॥
सब सुर जिते एक दसकंधर ।
अब बहु भए तकहु गिरि कंदर ॥
रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी ।
जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी ॥
छं॰ जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे ।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे ॥
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे ।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे ॥
दो॰ सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस ।
सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस ॥ ९६ ॥
प्रभु छन महुँ माया सब काटी ।
जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी ॥
रावनु एकु देखि सुर हरषे ।
फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे ॥
भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे ।
फिरे एक एकन्ह तब टेरे ॥
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए ।
तरल तमकि संजुग महि आए ॥
अस्तुति करत देवतन्हि देखें ।
भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें ॥
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल ।
अस कहि कोपि गगन पर धायल ॥
हाहाकार करत सुर भागे ।
खलहु जाहु कहँ मोरें आगे ॥
देखि बिकल सुर अंगद धायो ।
कूदि चरन गहि भूमि गिरायो ॥
छं॰ गहि भूमि पार यो लात मार यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो ।
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई ।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई ॥
दो॰ तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप ।
काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप ।
९७ ॥
सिर भुज बाढ़ि देखि रिपु केरी ।
भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी ॥
मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा ।
धाए कोपि भालु भट कीसा ॥
बालितनय मारुति नल नीला ।
बानरराज दुबिद बलसीला ॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा ।
सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥
एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी ।
भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ॥
तब नल नील सिरन्हि चढ़ि गयऊ ।
नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ ॥
रुधिर देखि बिषाद उर भारी ।
तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं ।
जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं ॥
कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी ।
महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे ।
सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥
हनुमदादि मुरुछित करि बंदर ।
पाइ प्रदोष हरष दसकंधर ॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा ।
जामवंत धायउ रनधीरा ॥
संग भालु भूधर तरु धारी ।
मारन लगे पचारि पचारी ॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना ।
गहि पद महि पटकइ भट नाना ॥
देखि भालुपति निज दल घाता ।
कोपि माझ उर मारेसि लाता ॥
छं॰ उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा ।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ ।
निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो ॥
दो॰ मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास ।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ ९८ ॥
मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम तेही निसि सीता पहिं जाई ।
त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी ।
सीता उर भइ त्रास घनेरी ॥
मुख मलीन उपजी मन चिंता ।
त्रिजटा सन बोली तब सीता ॥
होइहि कहा कहसि किन माता ।
केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता ॥
रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई ।
बिधि बिपरीत चरित सब करई ॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही ।
जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही ॥
जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा ।
अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा ॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए ।
लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ॥
रघुपति बिरह सबिष सर भारी ।
तकि तकि मार बार बहु मारी ॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना ।
सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥
बहु बिधि कर बिलाप जानकी ।
करि करि सुरति कृपानिधान की ॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी ।
उर सर लागत मरइ सुरारी ॥
प्रभु ताते उर हतइ न तेही ।
एहि के हृदयँ बसति बैदेही ॥
छं॰ एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है ।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा ।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा ॥
दो॰ काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान ।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान ॥ ९९ ॥
अस कहि बहुत भाँति समुझाई ।
पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई ॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही ।
उपजी बिरह बिथा अति तेही ॥
निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती ।
जुग सम भई सिराति न राती ॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी ।
राम बिरहँ जानकी दुखारी ॥
जब अति भयउ बिरह उर दाहू ।
फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा ।
अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा ॥
इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा ।
निज सारथि सन खीझन लागा ॥
सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही ।
धिग धिग अधम मंदमति तोही ॥
तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा ।
भौरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा ॥
सुनि आगवनु दसानन केरा ।
कपि दल खरभर भयउ घनेरा ॥
जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी ।
धाए कटकटाइ भट भारी ॥
छं॰ धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा ।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा ॥
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो ।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो ॥
दो॰ देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार ।
अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार ॥ १०० ॥
छं॰ जब कीन्ह तेहिं पाषंड ।
भए प्रगट जंतु प्रचंड ॥
बेताल भूत पिसाच ।
कर धरें धनु नाराच ॥ १ ॥
जोगिनि गहें करबाल ।
एक हाथ मनुज कपाल ॥
करि सद्य सोनित पान ।
नाचहिं करहिं बहु गान ॥ २ ॥
धरु मारु बोलहिं घोर ।
रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ॥
मुख बाइ धावहिं खान ।
तब लगे कीस परान ॥ ३ ॥
जहँ जाहिं मर्कट भागि ।
तहँ बरत देखहिं आगि ॥
भए बिकल बानर भालु ।
पुनि लाग बरषै बालु ॥ ४ ॥
जहँ तहँ थकित करि कीस ।
गर्जेउ बहुरि दससीस ॥
लछिमन कपीस समेत ।
भए सकल बीर अचेत ॥ ५ ॥
हा राम हा रघुनाथ ।
कहि सुभट मीजहिं हाथ ॥
एहि बिधि सकल बल तोरि ।
तेहिं कीन्ह कपट बहोरि ॥ ६ ॥
प्रगटेसि बिपुल हनुमान ।
धाए गहे पाषान ॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ ।
चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ॥ ७ ॥
मारहु धरहु जनि जाइ ।
कटकटहिं पूँछ उठाइ ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज ।
तेहिं मध्य कोसलराज ॥ ८ ॥
छं॰ तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही ।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही ॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी ।
रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी ॥ १ ॥
माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे ।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे ॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं ।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं ॥ २ ॥
दो॰ ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास ।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास ॥ १०१(क) ॥
काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस ।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस ॥ १०१(ख) ॥
काटत बढ़हिं सीस समुदाई ।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा ।
राम बिभीषन तन तब देखा ॥
उमा काल मर जाकीं ईछा ।
सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक ।
प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें ।
नाथ जिअत रावनु बल ताकें ॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला ।
हरषि गहे कर बान कराला ॥
असुभ होन लागे तब नाना ।
रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥
बोलहि खग जग आरति हेतू ।
प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू ॥
दस दिसि दाह होन अति लागा ।
भयउ परब बिनु रबि उपरागा ॥
मंदोदरि उर कंपति भारी ।
प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥
छं॰ प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही ।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए ।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए ॥
दो॰ खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस ।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ १०२ ॥
सायक एक नाभि सर सोषा ।
अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥
लै सिर बाहु चले नाराचा ।
सिर भुज हीन रुंड महि नाचा ॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा ।
तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा ॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी ।
कहाँ रामु रन हतौं पचारी ॥
डोली भूमि गिरत दसकंधर ।
छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर ॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई ।
चापि भालु मर्कट समुदाई ॥
मंदोदरि आगें भुज सीसा ।
धरि सर चले जहाँ जगदीसा ॥
प्रबिसे सब निषंग महु जाई ।
देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई ॥
तासु तेज समान प्रभु आनन ।
हरषे देखि संभु चतुरानन ॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा ।
जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा ॥
बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा ।
जय कृपाल जय जयति मुकुंदा ॥
छं॰ जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो ।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो ॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही ।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही ॥
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं ।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं ॥
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने ।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने ॥
दो॰ कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद ।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद ॥ १०३ ॥
पति सिर देखत मंदोदरी ।
मुरुछित बिकल धरनि खसि परी ॥
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं ।
तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥
पति गति देखि ते करहिं पुकारा ।
छूटे कच नहिं बपुष सँभारा ॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना ।
रोवत करहिं प्रताप बखाना ॥
तव बल नाथ डोल नित धरनी ।
तेज हीन पावक ससि तरनी ॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा ।
सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥
बरुन कुबेर सुरेस समीरा ।
रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा ॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं ।
आजु परेहु अनाथ की नाईं ॥
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई ।
सुत परिजन बल बरनि न जाई ॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा ।
रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ॥
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा ।
सभय दिसिप नित नावहिं माथा ॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं ।
राम बिमुख यह अनुचित नाहीं ॥
काल बिबस पति कहा न माना ।
अग जग नाथु मनुज करि जाना ॥
छं॰ जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं ।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं ॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं ।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं ॥
दो॰ अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन ।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ॥ १०४ ॥
मंदोदरी बचन सुनि काना ।
सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना ॥
अज महेस नारद सनकादी ।
जे मुनिबर परमारथबादी ॥
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी ।
प्रेम मगन सब भए सुखारी ॥
रुदन करत देखीं सब नारी ।
गयउ बिभीषनु मन दुख भारी ॥
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा ।
तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा ॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो ।
बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो ॥
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका ।
करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी ।
बिधिवत देस काल जियँ जानी ॥
दो॰ मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि ।
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि ॥ १०५ ॥
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो ।
कृपासिंधु तब अनुज बोलायो ॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला ।
जामवंत मारुति नयसीला ॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा ।
सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ ।
आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ ॥
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना ।
कीन्ही जाइ तिलक की रचना ॥
सादर सिंहासन बैठारी ।
तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥
जोरि पानि सबहीं सिर नाए ।
सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए ॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे ।
कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे ॥
छं॰ किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो ।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो ॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं ।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं ॥
दो॰ प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज ।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज ॥ १०६ ॥
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना ।
लंका जाहु कहेउ भगवाना ॥
समाचार जानकिहि सुनावहु ।
तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु ॥
तब हनुमंत नगर महुँ आए ।
सुनि निसिचरी निसाचर धाए ॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही ।
जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही ॥
दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा ।
रघुपति दूत जानकीं चीन्हा ॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता ।
कुसल अनुज कपि सेन समेता ॥
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा ।
मातु समर जीत्यो दससीसा ॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो ।
सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥
छं॰ अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा ।
का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा ॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं ।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं ॥
दो॰ सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत ।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत ॥ १०७ ॥
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता ।
देखौं नयन स्याम मृदु गाता ॥
तब हनुमान राम पहिं जाई ।
जनकसुता कै कुसल सुनाई ॥
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन ।
बोलि लिए जुबराज बिभीषन ॥
मारुतसुत के संग सिधावहु ।
सादर जनकसुतहि लै आवहु ॥
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता ।
सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता ॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो ।
तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो ॥
बहु प्रकार भूषन पहिराए ।
सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए ॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही ।
सुमिरि राम सुखधाम सनेही ॥
बेतपानि रच्छक चहुँ पासा ।
चले सकल मन परम हुलासा ॥
देखन भालु कीस सब आए ।
रच्छक कोपि निवारन धाए ॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु ।
सीतहि सखा पयादें आनहु ॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं ।
बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई ॥
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे ।
नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी ।
प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी ॥
दो॰ तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद ।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद ॥ १०८ ॥
प्रभु के बचन सीस धरि सीता ।
बोली मन क्रम बचन पुनीता ॥
लछिमन होहु धरम के नेगी ।
पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी ।
बिरह बिबेक धरम निति सानी ॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ ।
प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥
देखि राम रुख लछिमन धाए ।
पावक प्रगटि काठ बहु लाए ॥
पावक प्रबल देखि बैदेही ।
हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही ॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं ।
तजि रघुबीर आन गति नाहीं ॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना ।
मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना ॥
छं॰ श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली ।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली ॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे ।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ॥ १ ॥
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो ।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो ॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली ।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली ॥ २ ॥
दो॰ बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान ।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान ॥ १०९(क) ॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार ।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार ॥ १०९(ख) ॥
तब रघुपति अनुसासन पाई ।
मातलि चलेउ चरन सिरु नाई ॥
आए देव सदा स्वारथी ।
बचन कहहिं जनु परमारथी ॥
दीन बंधु दयाल रघुराया ।
देव कीन्हि देवन्ह पर दाया ॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी ।
निज अघ गयउ कुमारगगामी ॥
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी ।
सदा एकरस सहज उदासी ॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय ।
अजित अमोघसक्ति करुनामय ॥
मीन कमठ सूकर नरहरी ।
बामन परसुराम बपु धरी ॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो ।
नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ॥
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही ।
काम लोभ मद रत अति कोही ॥
अधम सिरोमनि तव पद पावा ।
यह हमरे मन बिसमय आवा ॥
हम देवता परम अधिकारी ।
स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी ॥
भव प्रबाहँ संतत हम परे ।
अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे ॥
दो॰ करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि ।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि ॥ ११० ॥
छं॰ जय राम सदा सुखधाम हरे ।
रघुनायक सायक चाप धरे ॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो ।
गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥
तन काम अनेक अनूप छबी ।
गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी ॥
जसु पावन रावन नाग महा ।
खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥
जन रंजन भंजन सोक भयं ।
गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं ॥
अवतार उदार अपार गुनं ।
महि भार बिभंजन ग्यानघनं ॥
अज ब्यापकमेकमनादि सदा ।
करुनाकर राम नमामि मुदा ॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा ।
कृत भूप बिभीषन दीन रहा ॥
गुन ग्यान निधान अमान अजं ।
नित राम नमामि बिभुं बिरजं ॥
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं ।
खल बृंद निकंद महा कुसलं ॥
बिनु कारन दीन दयाल हितं ।
छबि धाम नमामि रमा सहितं ॥
भव तारन कारन काज परं ।
मन संभव दारुन दोष हरं ॥
सर चाप मनोहर त्रोन धरं ।
जरजारुन लोचन भूपबरं ॥
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं ।
मद मार मुधा ममता समनं ॥
अनवद्य अखंड न गोचर गो ।
सबरूप सदा सब होइ न गो ॥
इति बेद बदंति न दंतकथा ।
रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ॥
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए ।
निरखंति तवानन सादर ए ॥
धिग जीवन देव सरीर हरे ।
तव भक्ति बिना भव भूलि परे ॥
अब दीन दयाल दया करिऐ ।
मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ ।
दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ ॥
खल खंडन मंडन रम्य छमा ।
पद पंकज सेवित संभु उमा ॥
नृप नायक दे बरदानमिदं ।
चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं ॥
दो॰ बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात ।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥ १११ ॥
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए ।
तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा ।
आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ ।
जीत्यों अजय निसाचर राऊ ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी ।
नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी ॥
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना ।
चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो ।
दसरथ भेद भगति मन लायो ॥
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं ।
तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं ॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा ।
दसरथ हरषि गए सुरधामा ॥
दो॰ अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस ।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥ ११२ ॥
छं॰ जय राम सोभा धाम ।
दायक प्रनत बिश्राम ॥
धृत त्रोन बर सर चाप ।
भुजदंड प्रबल प्रताप ॥ १ ॥
जय दूषनारि खरारि ।
मर्दन निसाचर धारि ॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ ।
भए देव सकल सनाथ ॥ २ ॥
जय हरन धरनी भार ।
महिमा उदार अपार ॥
जय रावनारि कृपाल ।
किए जातुधान बिहाल ॥ ३ ॥
लंकेस अति बल गर्ब ।
किए बस्य सुर गंधर्ब ॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग ।
हठि पंथ सब कें लाग ॥ ४ ॥
परद्रोह रत अति दुष्ट ।
पायो सो फलु पापिष्ट ॥
अब सुनहु दीन दयाल ।
राजीव नयन बिसाल ॥ ५ ॥
मोहि रहा अति अभिमान ।
नहिं कोउ मोहि समान ॥
अब देखि प्रभु पद कंज ।
गत मान प्रद दुख पुंज ॥ ६ ॥
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव ।
अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥
मोहि भाव कोसल भूप ।
श्रीराम सगुन सरूप ॥ ७ ॥
बैदेहि अनुज समेत ।
मम हृदयँ करहु निकेत ॥
मोहि जानिए निज दास ।
दे भक्ति रमानिवास ॥ ८ ॥
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं ।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं ॥
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं ।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं ॥
दो॰ अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल ।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥ ११३ ॥
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे ।
परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना ।
सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी ।
अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई ।
केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई ॥
सुधा बरषि कपि भालु जिआए ।
हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर ।
जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥
रामाकार भए तिन्ह के मन ।
मुक्त भए छूटे भव बंधन ॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा ।
जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥
राम सरिस को दीन हितकारी ।
कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥
खल मल धाम काम रत रावन ।
गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥
दो॰ सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान ।
देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान ॥ ११४(क) ॥
परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि ।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥ ११४(ख) ॥
छं॰ मामभिरक्षय रघुकुल नायक ।
धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥
मोह महा घन पटल प्रभंजन ।
संसय बिपिन अनल सुर रंजन ॥ १ ॥
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर ।
भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥
काम क्रोध मद गज पंचानन ।
बसहु निरंतर जन मन कानन ॥ २ ॥
बिषय मनोरथ पुंज कंज बन ।
प्रबल तुषार उदार पार मन ॥
भव बारिधि मंदर परमं दर ।
बारय तारय संसृति दुस्तर ॥ ३ ॥
स्याम गात राजीव बिलोचन ।
दीन बंधु प्रनतारति मोचन ॥
अनुज जानकी सहित निरंतर ।
बसहु राम नृप मम उर अंतर ॥ ४ ॥
मुनि रंजन महि मंडल मंडन ।
तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन ॥ ५ ॥
दो॰ नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार ।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ॥ ११५ ॥
करि बिनती जब संभु सिधाए ।
तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी ।
बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥
सकुल सदल प्रभु रावन मार यो ।
पावन जस त्रिभुवन बिस्तार यो ॥
दीन मलीन हीन मति जाती ।
मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे ।
मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥
देखि कोस मंदिर संपदा ।
देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ ।
पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला ।
सजल भए द्वौ नयन बिसाला ॥
दो॰ तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात ।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ ११६(क) ॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि ।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि ॥ ११६(ख) ॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ ११६(ग) ॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं ।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं ॥ ११६(घ) ॥
सुनत बिभीषन बचन राम के ।
हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥
बानर भालु सकल हरषाने ।
गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो ।
मनि गन बसन बिमान भरायो ॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा ।
हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा ॥
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन ।
गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही ।
बरषि दिए मनि अंबर सबही ॥
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं ।
मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं ॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता ।
परम कौतुकी कृपा निकेता ॥
दो॰ मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद ।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥ ११७(क) ॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम ।
राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ ११७(ख) ॥
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए ।
पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥
नाना जिनस देखि सब कीसा ।
पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया ।
बोले मृदुल बचन रघुराया ॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार यो ।
तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार यो ॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू ।
सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर ।
जोरि पानि बोले सब सादर ॥
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा ।
हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥
दीन जानि कपि किए सनाथा ।
तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं ।
मसक कहूँ खगपति हित करहीं ॥
देखि राम रुख बानर रीछा ।
प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥
दो॰ प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि ।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥ ११८(क) ॥
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान ।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥ ११८(ख) ॥
दो॰ कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि ।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥ ११८(ग) ॥
~ अतिसय प्रीति देख रघुराई ।
लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो ।
उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥
चलत बिमान कोलाहल होई ।
जय रघुबीर कहइ सबु कोई ॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर ।
श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥
राजत रामु सहित भामिनी ।
मेरु सृंग जनु घन दामिनी ॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर ।
कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी ।
सागर सर सरि निर्मल बारी ॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा ।
मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥
कह रघुबीर देखु रन सीता ।
लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥
हनूमान अंगद के मारे ।
रन महि परे निसाचर भारे ॥
कुंभकरन रावन द्वौ भाई ।
इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥
दो॰ इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम ।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम ॥ ११९(क) ॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम ।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥ ११९(ख) ॥
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा ।
दंडक बन जहँ परम सुहावा ॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना ।
गए रामु सब कें अस्थाना ॥
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा ।
चित्रकूट आए जगदीसा ॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा ।
चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥
बहुरि राम जानकिहि देखाई ।
जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता ।
राम कहा प्रनाम करु सीता ॥
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा ।
निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी ।
हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि ।
त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥
।
दो॰ सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम ।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥ १२०(क) ॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह ।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥ १२०(ख) ॥
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई ।
धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु ।
समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥
तुरत पवनसुत गवनत भयउ ।
तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही ।
अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी ।
चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी ॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए ।
नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो ।
उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी ।
बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा ।
सुंदरि तव अहिवात अभंगा ॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल ।
आयउ निकट परम सुख संकुल ॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही ।
परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई ।
हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥
छं॰ लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती ।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती ।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे ।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥ १ ॥
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो ।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा ।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥ २ ॥
दो॰ समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान ।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ १२१(क) ॥
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार ।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥ १२१(ख) ॥
मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः ।
(लंकाकाण्ड समाप्त)
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