राहे छोटी
वो पतली - सी पगडन्डियाँ
और बचपन की
मेरी वो हमजोलियाँ
सबको रंग में
भिगोती थी पिचकारियाँ
भूलूं कैसे ?
मैं छोटी सी वो टोलियां
और मासूम
चेहरों की वो बालियां
रोज़ बनती
बिगड़ती थी जो यारियां
भूलूं कैसे ?
मैं मिटटी की वो गाडियां ।
जलती - बुझती
दिवाली की वो बत्तियाँ
और दीपो से
सजती थी जो वेदियां
फूल पूजा के
रखे हुई थालियाँ
भूलूं कैसे ?
मैं प्यारी सी वो राखियाँ ?
वो हमजोलियाँ
प्यारी अठखेलियाँ
और बचपन
की मेरी वो नादानियाँ
साथ हरदम किसी का
वो अंगड़ाइयाँ
भूलूं कैसे ?
मैं उसकी वो परछाइयाँ ?
उसके कानो को
छूती वो दो बालियाँ
और आंखों में
छायी हुई शोखियां
हंसके मुझको
मनाने की वो युक्तियाँ
मैं हूँ भुला नही
उसकी ये खूबियां ।
मन में उठती तड़प
जब हों तनहाइयां
याद आती
है बजती
वो शहनाइयाँ
वो हँसना, वो रोना
वो दुःख बाँटना
मैं हूँ भुला नही
उसकी परछाइयाँ ।
मेरा बचपन
मुझे फिर बुलाने लगा
जैसे आवाज़
देती थी खिड़की से माँ
मैं मुसाफिर
हर एक रोज़ बनता गया
छोड़ आया बहुत दूर
वो वादियाँ ।
रोज़ उड़ती
पतंगों की वो डोरियां
छूट कैसे गयी
बढ़ गयी दूरियां
मेरा बचपन
मुझे छोड़ ऐसे गया
जैसे बाबुल के
घर से गयी डोलियाँ ।
bahut hi umda likha gaya h....
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