चाहे झंझावात चरम हो,
हमको तो चलते जाना है।
अनुशासन के तटबंधो में-
चंचल नदी बहा करती है,
पत्थर से टकराती, कलकल-
करती, कभी ढहा करती है,
वैसे ही जीवन-धारा में,
हमको तो बहते जाना है।
आसमान के घर में देखो
सूरज, चंद, सितारे रहते,
अपनी क्षमताओं के दर्पण-
में उनके प्रतिबिम्ब चमकते,
हमको अपने घर-आँगन में
ये दीपक धरते जाना है।
नई तरंगों में खिल जाना
नन्हें पौधों की परिणति है,
फलना जिसका जीवन-दर्शन
परहित जिसकी नीति-नियति है
वैसे ही जीवन बगिया में
खिल-खिलकर फलते जाना है।
- वीरेन्द्र त्रिवेदी
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