Sunday, January 20, 2008

हिन्दी

राष्ट्र प्रेम निज स्वाभिमान अन्तस के उदगारों की।
बात बढ़ानी होगी अब हिन्दी के अधिकारों की।

अक्षर-अक्षर अपरिमेय स्वर संस्कृत परिभाषा पर,
गर्व नहीं है जिसको अपनी मातृ -भूमि भाषा पर,
प्रश्न यही पश्चिम का ये स्वर कब तक और छलेगा!
कब तक निज भाषा का दिनकर पीछे और चलेगा!

कब तक वाणी मौन रहे भूषण के दरबारों की।
बात बढ़ानी होगी अब हिन्दी के अधिकारों की।

अलंकार, रस, छंद अलंकृत माथे की बिन्दी ये,
वाणी से अमृत बरसाए शुद्ध 'सरस' हिन्दी ये,
पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण की ये है अभिलाषा,
विश्व मंच पर भी बन जाये जन-जन की ये भाषा,

जय हिन्दी! जय देवनागरी! हो जय जय कारों की।
बात बढ़ानी होगी अब हिन्दी के अधिकारों की।

यही सूर, तुलसी, कबीर, कवि दिनकर की वाणी ये,
भारतेन्दु, रसखान, निराला की कवि कल्याणी ये,
इसका प्यार जिसे मिलता वह शक्ति आलौकिक पाता,
जो अपनाता इसको उसका मन सुरभित हो जाता,

हिन्दी की हो शुद्ध हितैषी संसद सरकारों की।
बात बढ़ानी होगी अब हिन्दी के अधिकारों की॥

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