Tuesday, November 6, 2007

चुप रहो

मौसम एक दम बदल गया
कल थी गर्मी
आज जाड़ा हो गया !
यह पहाड़ का मौसम है
जिसका कोई भरोसा नही ...
आदमी का क्या कहूँ ?
अच्छे, भले-बुरे सभी हैं
मौका जब मिलता है

मौसम की तरह ही बदल जाते हैं
देखता हूँ
दायरा .....
दूर तक पहाडों से घिरा
ऊँचे-ऊँचे गगन चुम्बी शिखरों से घिरा
कहीं - कहीं बीच में, किनारे
कोई मैदान का टुकड़ा
बेचारा, छुटपुट आबादी वाला गाँव

नगर, जनपद.....सबके सब टंगे हैं !
कोई नीचे, कोई ऊपर.....
और कितने तो बीच में त्रिशंकु-से लटके
दिखते हैं.....जीवन है सभी कहीं
पीडा भरी नारियाँ
गहरी घाटियाँ !
जिनकी दुनिया में कहीं पहाडों का अन्त नही .....
जंगलों से जिन्हें छुटकारा नही
घास, लकड़ी और जीवन का बोझ .....

बस, इतना ही उनका जीवन .....
सपने, झरने, स्त्रोत या पत्थर के टुकड़े
गंदे, फटे-पुराने कपडों में लिपटा यौवन .....
मटमैले बाल
श्रम में डूबे तन-मन
और घुमड़ते घन ..... यही जीवन वृत्त
निजी भाषा
रोज की बातें
छान से जंगल
जंगल से कुठार और डेरा तक .....
सुबह-शाम पनघट पर...
नारी-जीवन यहाँ एक जीवन्त महाकाव्य !
बहुत कम जिसे पढ़ते हैं,
बहुत कम जिसे लिखते हैं।
और पुरुष.....
गप्पी..... श्रम से कतराता है !
कभी गंगा-जल लेकर कलकत्ता तक जाता है
बेचकर धन कमाता है
और कहीं होटल में नौकरी कर
छोटी-मोटी दुकान धर
बाबू भैया बना बस.....
शक्ति-श्रम नारी तक सीमित
वह खोखला है
कुछ पढे-लिखे लोग

कवि, चित्रकार, पत्रकार या और बुद्धिजीवी लोग
जो अपने गाँव छोड़ चुके हैं
जहाँ जाना उनके लिए पाप है
वे चकाचौंध में मंडराते हैं .....
खोखली अस्तित्वहीन मर्यादा की
सर्जना में रत हैं।
लेकिन उनकी माँ, बहन, बहू और बेटी
बूढी दादी और बूढी ताई

उन बीहड़ जंगलों में भटक रही हैं
पहाड़ से अपने भाग्य की
होनी, अनहोनी मूक वार्ता कर रही है
मिटटी के ढेले
पत्थर के टीले

तोड़ रही है
लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, भगवती को
मैंने कितनी ही बार खेतों में ढेले फोड़ते देखा हैं
बड़े-बड़े लकड़ी के बोझ
और पटालो का बोझ
उनकी सुकोमल पीठ पर
लदे देखा है;
श्रम का जीवन, नारी
आदिकाव्य की कथावस्तु
अनन्त रहेगी.....?
ऐसा सोचता हूँ !
भाग्य की विडम्बना
पहाडी लड़की
वह तो गाँव में रहती है।
मैं कवि हूँ, कविता भर लिख पाता हूँ
उनका बोझ अगर कुछ बटा लूँ
तो ठीक भी है !
बस, मन ही मन घुट गया हूँ
आंसू चुपचाप पी गया हूँ
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' का पाठकर सो गया हूँ
आज सपनो में यही सब कुछ देखूंगा .....
देसी-पहाड़ी की कलुषित भावनाओं की न
सूरतों में लुटूंगा.....
किससे क्या कहूँ ?
'वसुधैव कुटुम्बकम' ..... क्या झूठ हैं?
मैं 'तुम' नही हूँ
तुम 'मैं' नही हूँ
परिस्थितियों का अनुचित लाभ मत उठाओ.....
आज की रात सो लेने दो
कल की रात तो चिन्तन में बीतेगी
पढे-लिखों की इमानदारी जीतेगी
या हारेगी.....?
मेरी माँ जो कहती हैं -
तुम चुप रहो !!

1 comment:

  1. मनीश जी,
    आपने बहुत अच्छे विषयों पर कविताएँ लिखी हैं। अच्छा लगा।

    कभी-कभी हिन्दी विकिपिडिया पर भी पधारें और अपनी रुची और विशेषज्ञता के अनुरूप हिन्दी में कुछ लेखों का योगदान करें।

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