Tuesday, November 6, 2007

कवि, तुम ऐसे ही बढ़ो !

मुझे बेहद प्यार है अपने देश से,
देश की जनता से,
उसके रहनुमाओं और ... और सबसे
जितना तुम्हे...
क्योंकि हमारा देश आदर्श रहा है
चरित्रबल, आत्मबल की आधारशिला
दृढ रही है !
आध्यात्मिकता का पावन स्त्रोत जो रहा है !
किन्तु आज.....?
अब नही.....
जिधर देखता हूँ
उधर अभाव, दुःख, घृणा, कागजी फसल,
आंकड़े-प्रगति.....
चेहरे पोपले
और मनुष्यता ठीक पतझड़ में हरी
लता सी जर्जर टिकी है.....
किन्हीं ठूंठ रूखे बूढे रुख के सहारे.....
आज़ादी मिली है
पर कैद है वह तिजोरियों में
चाटुकारिता, भाई-भतीजेवाद और.....
बस मत पूछो?
पाता हूँ, भ्रष्टाचार घोर...घोर...घोर
हर कहीं, हर क्षण, हर दिशा की ओर
हर प्रहर.........सोचता हूँ
और होता हूँ बोर...बोर...बोर!!
जब सभी नैतिक, आदर्श, एवं कर्मठ,
त्यागी, संयमी
साधू, शील-सौरभ-सने चेहरे हैं?
तो फिर क्यों?
भ्रष्टाचार?
क्यों भूख?
क्यों प्यास?
क्यों अराजकता?
क्यों असन्तोष?
क्यों दुःख-द्वंद?
और यह भारी समस्या...???
जब, सभी दूध-धुले चेहरे हैं
तो आख़िर कौन हैं?
जो यह सब करता है!!
तो वासन्ती-पवन ने
फूलती हुई सरसों के खेतों से
सामने की पहाड़ी की ओर से झाँककर
इशारा किया है...
देखो...
वाहवाही का खोल
आत्म-प्रशंसा की भूख
घाटी का कुहरा
अपनी कोख में छिपाये नदी
पर हावी है !!
घाटी में बहने वाली नदी
चुपचाप .......... चट्टानों से, जूझ-जूझकर
बह रही है
और कह रही है.....

कवि, तुम ऐसे ही बढ़ो!!

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