Tuesday, April 10, 2007

जन के मन दुःखी हैं !

पूरे इक्कीस वर्ष,
बीत गए
आदमी स्वतंत्र पर कहॉ हुआ ?
मानसिक दासता बनी रही
समझौता

यहाँ - वहां कहॉ हुआ ?
भूख - प्यास - बेकारी
अपने ही घर नक्सलवादी
आदमी कमजोर दावे
उगल रह धुआं, ध्वंस, पदवी
हो रहे चुनाव प्रजातंत्री
जनता विक्षिप्त,

मूर्ख मंत्री
दिशाहीन सर्जन - विज्ञापन
गला फांस लटकी
सच - सुविधा
कविता
अनुभूति चांद - चाँदी
लडकियां कुमारी, माँ सपने
दर्शन, पद सिर्फ एक कुर्सी
भाषण - देशाटन युग - प्रगति - प्राण ?
कहॉ त्राण ?
गावों कि जनता सिलबिल हैं
शहरी मुर्गे बडे लड़ाकू
ओर छोर कहीँ नही दिखता
छवियाँ खिसियानी,
बस झूठी
हर जगह परम्परा लिपटती

अन्धज्ञान बोता पिछ्डापन है
कबन्धों के दिल रहे धड़कते
दल बदल रहे,
दिल लुढ़कते
गरीब, आज भी गरीब, रोता
जीवन में विष ही विष पीता
सूचना-विभाग, स्वास्थ्य-मंत्री
क्या होता ?
बस प्रचार होता
पूरा सब खेल खोल गन्दा
रीतियाँ पश्चिमी सड़ी सी
कसमसा रही है
पूर्व चेतना
जागरण,
किस करवट बदले ?
दहसत है भारी
युग - धंधा
चलता है सब गोरखधंधा
छ्पवाओ कविता, कवि अपना
पद्दोन्नति,
करो चाटुकारी
फाइलों को
करो ख़ूब मोटा
आदमी मरता है,
मरने दो
अपने घर पौ-छक्के बारह !
दार्शनिक भौतिक - विज्ञानी ?
खुल रही दिशाएं चिटकती
जन के मन दुःखी है, तरसते

अभाव - अन्ध, अज्ञानी डेरा
कुण्ठा निराशा मन मारे
आदमी खच्चर सा लदा हुआ

ढो रहा ढ़ेर समस्याएँ ?
लूट रहे अपने,
सब अपने
कौन यहाँ ? दूसरा ? बताओ -
आज की सुबह ठगी हुई है
कल के बर्बाद स्वप्न होंगे

गौरव है बचा शेष
बीत गए कल का

परसो हम क्या उत्तर देंगे ?
पूछ रहा युग कवि
दो उत्तर
क्या सूरज ही क़ैद किया जाये ?
या बूढी लिप्सा मरोड़ दे
किशोर - जागरण ठ्गें ये 'लेबल'
वर्तमान भ्रष्ट बहुत ज्यादा
सनसनी हवा फिर चली है
जहर भरी गंध को बिखेरती
लपालपी खुशहाली-चन्दन
कुछ माथे चमक रहे हैं

आख़िर, ये कब तक सब प्यारे
झूठा आदर्श ओढ़ जीना
सही बात,
कह ना सके आदमी
नौकर - नौकरशाहीपन?
रोग लिए
भोग - योग देखो
कैसा स्तब्ध है हिमालय !
डाले कंडोम जेब में लड़के
लडकियां झागवाली गोलियां
बात नही अनजानी, जानी
कुछ चेहरे करते मनमानी

सबके पीछे अबोध - आवारा
समझदार आदमी बहुत कम
वे भी बस ओढ़ हाय, गुदडी
हिमालय पर गाँव में पडे हैं

या भूखे-प्यासे मरे हैं
देश प्यार करने के काबिल

सिसकी भर हाय, रह गया हैं !
चेतो, ओ बंधु !
आज चेतो
जागरण तुम्हारे कंधो पर
दहको,
हे कर्मवीर ! दहको
युग को है मिली क्रान्ति - चिंगारी .............
भरो,
शांति-सुख, शील-संयम-निधि
जागरण तुम्हारे दुआरे
आंखों के तारे
जग न्यारे
कौन है?

पराया
सब अपने
आदमियत न इस तरह सड़ाओ
देख रहा विश्व
चेत जाओ

जनयुग आह्वान दे रहा हूँ
शंकर आह्वान दे रहा हूँ
विश्वनाथ की नगरी प्यारी
गंगा वरदान दे रहा हूँ
जानो - पहचानो
जन मन हे !

युग - शिल्पी - मान दे रहा हूँ
आओ, आगे आओ, बढ के -
चेतना अभियान दे रहा हूँ !!


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