Tuesday, April 10, 2007

एक मार्मिक दुर्घटना !

उत्तरकाशी की एक सुबह
उत्तरकाशी की एक शाम
जीवन भर की बन गयी हूक
हा, एक अचानक हुई चूक
गंगा तीरे सनसनी हवा
ठंडक बढती, कंपकपी लिए

वे सिकुड़ गए खा-पी करके
चुपचाप अंगीठी जला, लेट
क्या पता ?
किस तरह गाज पड़ी
हाँ, आग लगी,
हा, आग लगी
थी अर्धरात्रि ........

जल गया मकां,
जल गयी देह
उन बेचारे दो लोगों की
ऊपरी कक्ष, ऊपरी कक्ष

नीचे की मंज़िल में सोया
परिवार एक, परिवार एक
कुछ चटक सुनी, कुछ भड़क सुनी
आँखें खोली, देखी लपटें
भागे अकुलाकर बच्चे ले
पति-पत्नी दोनो विवश हाय !
जल गए आदमी, राख-राख !!
दौड़ी जनता, अटपटी नींद
खुल गई आंख,
उठ गए हाथ
सब व्यर्थ प्रयास गए सबके
कंकाल मात्र दो बच्चे शेष
जल गया मकां, जल गई देह ......

माँ-बाप बिचारे छोड़ गए
बीटा अपना; बीटा अपना !!
था इम्तिहान, इसलिये सिर्फ
पढना-लिखना, लिखना-पढना
छठ्वीं कक्षा, थी उम्र नवी
सुकुमार-देह भवितव्य भली

अधखिली-कली !
हा मुरझ गयी ! हा झुलस गयी
हा, राख हुई ! यह बात हुई ।
वह युवा-सपन भी नष्ट हुआ
सीधा मनुष्य, सच्चा मनुष्य
सिंदूर पूंछा, अरमान लुटा
एक बहन ना जाने कहॉ पड़ी?
बिन्दी चट्की, धड़कन दिल की
करवट बदली दुःस्वप्न लिए

सब कुछ अजान था शमसान
बस राख, ध्वंस, कंकाल मात्र ?

सन्देश, दर्द, हर धड़कन में -
जनमानस था अतिशय दुखाद्र
आंसू बरसे, आंसू बरसे
पर, बुझ ना सकी वह तीस हाय;
गंगा तीरे ! गंगा तीरे !!
मैं देख रहा था -
राख ... राख
रोटी-चिल्लाती ममतायेँ
बस मन मसोस रह गए सभी

विधि का विधान, क्या करे कौन ?
बस, मौन ! मौन !!

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