Tuesday, April 10, 2007

जीवन ... एक चिन्तन

कुछ भी हो दोस्त
पहाड़ों कि संकुचितता और गन्दगी
मुझे नही भायी हैं

यकीन करो मेरे दोस्त,
बिल्कुल सच कह रह हूँ
मैदानों कि विशालता तुमने भी देखी हैं
सबके मन भाती हैं
तन-मन हरषाती है
हर एक सुख-शान्ति की लीक बनी पाता है

जीवन जीने को जिया जाता है
किन्तु पहाड़ों पर जीवन
एक - एक बोतल भर सिर्फ जिया जाता है

और धुआं - सा उडाया जाता है
हड्डियाँ गलती हैं
जिन्दा आदमी की ।
औरतों से काम कराया जाता है
लक्ष्मी - सरस्वती
अपनी - अपनी पीठ पर
अपना - अपना
दुर्भाग्य !
ढोती हैं ?
पढ़ - लिखकर समझकर भी
लकीर की फकीर बनी रोती हैं !!
दूर घने जंगल से आवाज़ आती हैं --
कवि जी सुनिये, रोती नही हैं
वे कर्मों के छन्द गुनगुनाकर, सत्साहस बोती हैं ।

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