Tuesday, April 10, 2007

यह गम्भीर प्रश्न है

आख़िर कब तक रहूँगा मैं चुप
मेरी लाश मेरे सामने सड़ने वाली है
मेरा पडोसी मर रहा है
डाक्टर का पेट बड़ा हो गया

कोई नेता, वकील, मंत्री, इंजीनियर
रात-दिन काला पैसा जमा कर रहा है
विदेशी मुद्रा

देशी आइना
बिम्ब अच्छा है
अखबारों में छप रहा है
और मेरी खामोशी
पी रही है ख़ून, बिल्कुल खून
अपना ही खून.....
देश भर में अराजकता है
सुना है गुरुजनों का आदर हो रहा है !
सम्मान सहित उन्हें जेलों में भरा जा रहा है ?
क्योंकि वे भूखे हैं
प्यासे हैं
नंगे हैं
रोते-चिल्लाते हैं
और जीने का हक हड़ताल कर माँगते हैं
करे, भी तो क्या ?
बेचारे आदर्शों को ओढ़कर पूरे इक्कीस वर्ष में
कंकाल हो गए हैं ।
इससे भी पहले बेचारे दुःखी थे
पीड़ित तमाम शोषण-प्रतिशोषण से

आज 'बुभुक्षित किम् न करोति पापम्'
का पर्दा हट गया है
आत्मायें चीख उठती है
दिशाओं में अनहोनी होनी है
यानी कल सूरज भी क़ैद किया जाएगा !
ऐसी हिम्मत कर बैठे हैं
तारे टिमटिमाते अँधेरी रात के .....

अक्ल पर पत्थर पडे हैं
कुर्सी का मोह
विवेक खो बैठा है
किस्से क्या कहूँ ?
जिसे पेट भर भोजन मिल जाएगा
पहनने को कपड़ा
रहने को मकान
जीने को स्वाभिमान !!

क्यों करेगा हड़ताल ?
लगाएगा नारे .....
अरे, गुरू ब्रह्मा है, गुरू विष्णु है ............ किन्तु आज
लोहे के सीखचों में बंद करने वाले
जानवर रह गए हैं ?
अरे ! मूर्खों !!
सोचो, यह गम्भीर प्रश्न है !!

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