Thursday, January 31, 2008

किष्किन्धाकाण्ड

श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीरामचरितमानस चतुर्थ सोपान ( किष्किन्धाकाण्ड)

श्लोक कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ, मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः || १ ||
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा, संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम || २ ||


सो -
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ||
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय, तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ||
आगें चले बहुरि रघुराया, रिष्यमूक परवत निअराया ||
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा, आवत देखि अतुल बल सींवा ||
अति सभीत कह सुनु हनुमाना, पुरुष जुगल बल रूप निधाना ||
धरि बटु रूप देखु तैं जाई, कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ||
पठए बालि होहिं मन मैला, भागौं तुरत तजौं यह सैला ||
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ, माथ नाइ पूछत अस भयऊ ||
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा, छत्री रूप फिरहु बन बीरा ||
कठिन भूमि कोमल पद गामी, कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ||
मृदुल मनोहर सुंदर गाता, सहत दुसह बन आतप बाता ||
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ, नर नारायन की तुम्ह दोऊ ||

दो -
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार, की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ||
१ ||
कोसलेस दसरथ के जाए , हम पितु बचन मानि बन आए ||
नाम राम लछिमन दौउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई ||
इहाँ हरि निसिचर बैदेही, बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ||
आपन चरित कहा हम गाई, कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ||
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना, सो सुख उमा नहिं बरना ||
पुलकित तन मुख आव न बचना, देखत रुचिर बेष कै रचना ||
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही, हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ||
मोर न्याउ मैं पूछा साईं, तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ||
तव माया बस फिरउँ भुलाना, ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ||

दो -
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान, पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ||
२ ||
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें, सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा, सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||
ता पर मैं रघुबीर दोहाई, जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ||
सेवक सुत पति मातु भरोसें, रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||
अस कहि परेउ चरन अकुलाई, निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ||
तब रघुपति उठाइ उर लावा, निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ||
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना, तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ||
समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ||

दो -
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत, मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ||
३ ||
देखि पवन सुत पति अनुकूला, हृदयँ हरष बीती सब सूला ||
नाथ सैल पर कपिपति रहई, सो सुग्रीव दास तव अहई ||
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे, दीन जानि तेहि अभय करीजे ||
सो सीता कर खोज कराइहि, जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ||
एहि बिधि सकल कथा समुझाई, लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ||
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा, अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ||
सादर मिलेउ नाइ पद माथा, भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ||
कपि कर मन बिचार एहि रीती, करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ||

दो -
तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ||
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़ाइ ||
४ ||
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा, लछमिन राम चरित सब भाषा ||
कह सुग्रीव नयन भरि बारी, मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ||
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा, बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ||
गगन पंथ देखी मैं जाता, परबस परी बहुत बिलपाता ||
राम राम हा राम पुकारी, हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ||
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा, पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, तजहु सोच मन आनहु धीरा ||
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई, जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ||

दो -
सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव, कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ||
५ ||
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई, प्रीति रही कछु बरनि न जाई ||
मय सुत मायावी तेहि नाऊँ, आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ||
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा, बाली रिपु बल सहै न पारा ||
धावा बालि देखि सो भागा, मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ||
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई, तब बालीं मोहि कहा बुझाई ||
परिखेसु मोहि एक पखवारा, नहिं आवौं तब जानेसु मारा ||
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी, निसरी रुधिर धार तहँ भारी ||
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई, सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ||
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं, दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ||
बालि ताहि मारि गृह आवा, देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ||
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी, हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ||
ताकें भय रघुबीर कृपाला, सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ||
इहाँ साप बस आवत नाहीं, तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ||
सुनि सेवक दुख दीनदयाला, फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ||

दो -
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान, ब्रम्ह रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ||
६ ||
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ||
निज दुख गिरि सम रज करि जाना, मित्रक दुख रज मेरु समाना ||
जिन्ह कें असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई ||
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ||
देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई ||
बिपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ||
आगें कह मृदु बचन बनाई, पाछें अनहित मन कुटिलाई ||
जा कर चित अहि गति सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ||
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी, कपटी मित्र सूल सम चारी ||
सखा सोच त्यागहु बल मोरें, सब बिधि घटब काज मैं तोरें ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, बालि महाबल अति रनधीरा ||
दुंदुभी अस्थि ताल देखराए, बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ||
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती, बालि बधब इन्ह भइ परतीती ||
बार बार नावइ पद सीसा, प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ||
उपजा ग्यान बचन तब बोला, नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ||
सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ||
ए सब रामभगति के बाधक, कहहिं संत तब पद अवराधक ||
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं, माया कृत परमारथ नाहीं ||
बालि परम हित जासु प्रसादा, मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ||
सपनें जेहि सन होइ लराई, जागें समुझत मन सकुचाई ||
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती, सब तजि भजनु करौं दिन राती ||
सुनि बिराग संजुत कपि बानी, बोले बिहँसि रामु धनुपानी ||
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई, सखा बचन मम मृषा न होई ||
नट मरकट इव सबहि नचावत, रामु खगेस बेद अस गावत ||
लै सुग्रीव संग रघुनाथा, चले चाप सायक गहि हाथा ||
तब रघुपति सुग्रीव पठावा, गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ||
सुनत बालि क्रोधातुर धावा, गहि कर चरन नारि समुझावा ||
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा, ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ||
कोसलेस सुत लछिमन रामा, कालहु जीति सकहिं संग्रामा ||

दो -
कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ, जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ||
७ ||
अस कहि चला महा अभिमानी, तृन समान सुग्रीवहि जानी ||
भिरे उभौ बाली अति तर्जा , मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ||
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा, मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ||
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला, बंधु न होइ मोर यह काला ||
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ, तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ||
कर परसा सुग्रीव सरीरा, तनु भा कुलिस गई सब पीरा ||
मेली कंठ सुमन कै माला, पठवा पुनि बल देइ बिसाला ||
पुनि नाना बिधि भई लराई, बिटप ओट देखहिं रघुराई ||

दो -
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि, मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ||
८ ||
परा बिकल महि सर के लागें, पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें ||
स्याम गात सिर जटा बनाएँ, अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ ||
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा, सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ||
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा, बोला चितइ राम की ओरा ||
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई, मारेहु मोहि ब्याध की नाई ||
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा, अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ||
अनुज बधू भगिनी सुत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी ||
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई ||
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना, नारि सिखावन करसि न काना ||
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी, मारा चहसि अधम अभिमानी ||

दो -
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि, प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ||
९ ||
सुनत राम अति कोमल बानी, बालि सीस परसेउ निज पानी ||
अचल करौं तनु राखहु प्राना, बालि कहा सुनु कृपानिधाना ||
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं ||
जासु नाम बल संकर कासी, देत सबहि सम गति अविनासी ||
मम लोचन गोचर सोइ आवा, बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ||
छं -
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं, जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं ||
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही, अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ||
१ ||
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ, जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ||
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ, गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ||
२ ||

दो -
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग, सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ||
१० ||
राम बालि निज धाम पठावा, नगर लोग सब ब्याकुल धावा ||
नाना बिधि बिलाप कर तारा, छूटे केस न देह सँभारा ||
तारा बिकल देखि रघुराया , दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ||
छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अधम सरीरा ||
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा, जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ||
उपजा ग्यान चरन तब लागी, लीन्हेसि परम भगति बर मागी ||
उमा दारु जोषित की नाई, सबहि नचावत रामु गोसाई ||
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा, मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ||
राम कहा अनुजहि समुझाई, राज देहु सुग्रीवहि जाई ||
रघुपति चरन नाइ करि माथा, चले सकल प्रेरित रघुनाथा ||

दो -
लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज, राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ||
११ ||
उमा राम सम हित जग माहीं, गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ||
सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ||
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती, तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ||
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ, अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ||
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं, काहे न बिपति जाल नर परहीं ||
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई, बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ||
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा, पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ||
गत ग्रीषम बरषा रितु आई, रहिहउँ निकट सैल पर छाई ||
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू, संतत हृदय धरेहु मम काजू ||
जब सुग्रीव भवन फिरि आए, रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ||

दो -
प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ, राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ||
१२ ||
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा, गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ||
कंद मूल फल पत्र सुहाए, भए बहुत जब ते प्रभु आए ||
देखि मनोहर सैल अनूपा, रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ||
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा, करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ||
मंगलरुप भयउ बन तब ते , कीन्ह निवास रमापति जब ते ||
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई, सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ||
कहत अनुज सन कथा अनेका, भगति बिरति नृपनीति बिबेका ||
बरषा काल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए ||

दो -
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि, गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ||
१३ ||
घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा ||
दामिनि दमक रह न घन माहीं, खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ||
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ, जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ||
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें , खल के बचन संत सह जैसें ||
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई, जस थोरेहुँ धन खल इतराई ||
भूमि परत भा ढाबर पानी, जनु जीवहि माया लपटानी ||
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा, जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ||
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई, होई अचल जिमि जिव हरि पाई ||

दो -
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ, जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ||
१४ ||
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई, बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ||
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें बिबेका ||
अर्क जबास पात बिनु भयऊ, जस सुराज खल उद्यम गयऊ ||
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी, करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ||
ससि संपन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै संपति जैसी ||
निसि तम घन खद्योत बिराजा, जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ||
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं , जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ||
कृषी निरावहिं चतुर किसाना, जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ||
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं, कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ||
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा, जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ||
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा, प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ||
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना, जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ||

दो -
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं, जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ||
१५(क) ||
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग, बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ||
१५(ख) ||
बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई ||
फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ||
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा, जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ||
सरिता सर निर्मल जल सोहा, संत हृदय जस गत मद मोहा ||
रस रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ||
जानि सरद रितु खंजन आए, पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ||
पंक न रेनु सोह असि धरनी, नीति निपुन नृप कै जसि करनी ||
जल संकोच बिकल भइँ मीना, अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ||
बिनु धन निर्मल सोह अकासा, हरिजन इव परिहरि सब आसा ||
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी, कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ||

दो -
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि, जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ||
१६ ||
सुखी मीन जे नीर अगाधा, जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ||
फूलें कमल सोह सर कैसा, निर्गुन ब्रम्ह सगुन भएँ जैसा ||
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा, सुंदर खग रव नाना रूपा ||
चक्रबाक मन दुख निसि पैखी, जिमि दुर्जन पर संपति देखी ||
चातक रटत तृषा अति ओही, जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही ||
सरदातप निसि ससि अपहरई, संत दरस जिमि पातक टरई ||
देखि इंदु चकोर समुदाई, चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ||
मसक दंस बीते हिम त्रासा, जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ||

दो -
भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ, सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ||
१७ ||
बरषा गत निर्मल रितु आई, सुधि न तात सीता कै पाई ||
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं, कालहु जीत निमिष महुँ आनौं ||
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई, तात जतन करि आनेउँ सोई ||
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी, पावा राज कोस पुर नारी ||
जेहिं सायक मारा मैं बाली, तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ||
जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा, ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ||
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी, जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ||
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना, धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना ||

दो -
तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ||
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ||
१८ ||
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा, राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ||
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा, चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ||
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना, बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ||
अब मारुतसुत दूत समूहा, पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ||
कहहु पाख महुँ आव न जोई, मोरें कर ता कर बध होई ||
तब हनुमंत बोलाए दूता, सब कर करि सनमान बहूता ||
भय अरु प्रीति नीति देखाई, चले सकल चरनन्हि सिर नाई ||
एहि अवसर लछिमन पुर आए, क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ||

दो -
धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार, ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ||
१९ ||
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही, लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ||
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना, कह कपीस अति भयँ अकुलाना ||
सुनु हनुमंत संग लै तारा, करि बिनती समुझाउ कुमारा ||
तारा सहित जाइ हनुमाना, चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ||
करि बिनती मंदिर लै आए, चरन पखारि पलँग बैठाए ||
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा, गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ||
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं, मुनि मन मोह करइ छन माहीं ||
सुनत बिनीत बचन सुख पावा, लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ||
पवन तनय सब कथा सुनाई, जेहि बिधि गए दूत समुदाई ||

दो -
हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ, रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ||
२० ||
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी, नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ||
अतिसय प्रबल देव तब माया, छूटइ राम करहु जौं दाया ||
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी, मैं पावँर पसु कपि अति कामी ||
नारि नयन सर जाहि न लागा, घोर क्रोध तम निसि जो जागा ||
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया, सो नर तुम्ह समान रघुराया ||
यह गुन साधन तें नहिं होई, तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ||
तब रघुपति बोले मुसकाई, तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ||
अब सोइ जतनु करहु मन लाई, जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ||

दो -
एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ, नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ||
२१ ||
बानर कटक उमा में देखा, सो मूरुख जो करन चह लेखा ||
आइ राम पद नावहिं माथा, निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ||
अस कपि एक न सेना माहीं, राम कुसल जेहि पूछी नाहीं ||
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई, बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ||
ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई, कह सुग्रीव सबहि समुझाई ||
राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ||
जनकसुता कहुँ खोजहु जाई, मास दिवस महँ आएहु भाई ||
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ, आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ ||

दो -
बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत , तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत ||
२२ ||
सुनहु नील अंगद हनुमाना, जामवंत मतिधीर सुजाना ||
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू, सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ||
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु, रामचंद्र कर काजु सँवारेहु ||
भानु पीठि सेइअ उर आगी, स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ||
तजि माया सेइअ परलोका, मिटहिं सकल भव संभव सोका ||
देह धरे कर यह फलु भाई, भजिअ राम सब काम बिहाई ||
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी , जो रघुबीर चरन अनुरागी ||
आयसु मागि चरन सिरु नाई, चले हरषि सुमिरत रघुराई ||
पाछें पवन तनय सिरु नावा, जानि काज प्रभु निकट बोलावा ||
परसा सीस सरोरुह पानी, करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ||
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु, कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ||
हनुमत जन्म सुफल करि माना, चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ||
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता, राजनीति राखत सुरत्राता ||

दो -
चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह, राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ||
२३ ||
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा, प्रान लेहिं एक एक चपेटा ||
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं, कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं ||
लागि तृषा अतिसय अकुलाने, मिलइ न जल घन गहन भुलाने ||
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना, मरन चहत सब बिनु जल पाना ||
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा, भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ||
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं, बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ||
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा, सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ||
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा, पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ||

दो -
दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज, मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ||
२४ ||
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा, पूछें निज बृत्तांत सुनावा ||
तेहिं तब कहा करहु जल पाना, खाहु सुरस सुंदर फल नाना ||
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए, तासु निकट पुनि सब चलि आए ||
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई, मैं अब जाब जहाँ रघुराई ||
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू, पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ||
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा, ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ||
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा, जाइ कमल पद नाएसि माथा ||
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही, अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ||

दो -
बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस , उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ||
२५ ||
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं, बीती अवधि काज कछु नाहीं ||
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता, बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ||
कह अंगद लोचन भरि बारी, दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ||
इहाँ न सुधि सीता कै पाई, उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ||
पिता बधे पर मारत मोही, राखा राम निहोर न ओही ||
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं, मरन भयउ कछु संसय नाहीं ||
अंगद बचन सुनत कपि बीरा, बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ||
छन एक सोच मगन होइ रहे, पुनि अस वचन कहत सब भए ||
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना, नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ||
अस कहि लवन सिंधु तट जाई, बैठे कपि सब दर्भ डसाई ||
जामवंत अंगद दुख देखी, कहिं कथा उपदेस बिसेषी ||
तात राम कहुँ नर जनि मानहु, निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु ||

दो -
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि, सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ||
२६ ||
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ||
बाहेर होइ देखि बहु कीसा, मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ||
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ, दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ||
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा, आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ||
डरपे गीध बचन सुनि काना, अब भा मरन सत्य हम जाना ||
कपि सब उठे गीध कहँ देखी, जामवंत मन सोच बिसेषी ||
कह अंगद बिचारि मन माहीं, धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ||
राम काज कारन तनु त्यागी , हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ||
सुनि खग हरष सोक जुत बानी , आवा निकट कपिन्ह भय मानी ||
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई, कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ||
सुनि संपाति बंधु कै करनी, रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ||

दो -
मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि , बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ||
२७ ||
अनुज क्रिया करि सागर तीरा, कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ||
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई , गगन गए रबि निकट उडाई ||
तेज न सहि सक सो फिरि आवा , मै अभिमानी रबि निअरावा ||
जरे पंख अति तेज अपारा , परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ||
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही, लागी दया देखी करि मोही ||
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा , देहि जनित अभिमानी छड़ावा ||
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही, तासु नारि निसिचर पति हरिही ||
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता, तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ||
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता , तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ||
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू , सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ||
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका , तहँ रह रावन सहज असंका ||
तहँ असोक उपबन जहँ रहई ||
सीता बैठि सोच रत अहई ||

दो -
मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ||
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ||
२८ ||
जो नाघइ सत जोजन सागर , करइ सो राम काज मति आगर ||
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा , राम कृपाँ कस भयउ सरीरा ||
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं, अति अपार भवसागर तरहीं ||
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई, राम हृदयँ धरि करहु उपाई ||
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ, तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ ||
निज निज बल सब काहूँ भाषा, पार जाइ कर संसय राखा ||
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा, नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ||
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी, तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ||

दो -
बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई, उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ||
२९ ||
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा, जियँ संसय कछु फिरती बारा ||
जामवंत कह तुम्ह सब लायक, पठइअ किमि सब ही कर नायक ||
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, का चुप साधि रहेहु बलवाना ||
पवन तनय बल पवन समाना, बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ||
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ||
राम काज लगि तब अवतारा, सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ||
कनक बरन तन तेज बिराजा, मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ||
सिंहनाद करि बारहिं बारा, लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा ||
सहित सहाय रावनहि मारी, आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ||
जामवंत मैं पूँछउँ तोही, उचित सिखावनु दीजहु मोही ||
एतना करहु तात तुम्ह जाई, सीतहि देखि कहहु सुधि आई ||
तब निज भुज बल राजिव नैना, कौतुक लागि संग कपि सेना ||
छं -
\-कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं, त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ||
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई, रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ||

दो -
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि, तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ||
३०(क) ||
सो -
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक, सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ||
३०(ख) ||


मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम \-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः, (किष्किन्धाकाण्ड समाप्त)

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