Thursday, January 31, 2008

अरण्यकाण्ड

श्री गणेशाय नमः


श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड)


श्लोक
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम ।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम ॥ १ ॥

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥

सो॰
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति ।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई ।
मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन ।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥
एक बार चुनि कुसुम सुहाए ।
निज कर भूषन राम बनाए ॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥
सुरपति सुत धरि बायस बेषा ।
सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा ।
महा मंदमति पावन चाहा ॥
सीता चरन चौंच हति भागा ।
मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥
चला रुधिर रघुनायक जाना ।
सींक धनुष सायक संधाना ॥

दो॰ अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।
चला भाजि बायस भय पावा ॥
धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं ।
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥
भा निरास उपजी मन त्रासा ।
जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका ।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥
काहूँ बैठन कहा न ओही ।
राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना ।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥
मित्र करइ सत रिपु कै करनी ।
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता ।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥
नारद देखा बिकल जयंता ।
लागि दया कोमल चित संता ॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही ।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥
आतुर सभय गहेसि पद जाई ।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई ।
मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी ।
एकनयन करि तजा भवानी ॥

सो॰ कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥

रघुपति चित्रकूट बसि नाना ।
चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना ।
होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई ।
सीता सहित चले द्वौ भाई ॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ ।
सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥
पुलकित गात अत्रि उठि धाए ।
देखि रामु आतुर चलि आए ॥
करत दंडवत मुनि उर लाए ।
प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने ।
सादर निज आश्रम तब आने ॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए ।
दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥
सो॰ प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥

छं॰ नमामि भक्त वत्सलं ।
कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं ।
अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं ।
भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं ।
मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं ।
प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं ।
धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं ।
महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं ।
सुरारि वृंद भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं ।
अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं ।
समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं ।
सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं ।
शची पतिं प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।
भजंति हीन मत्सरा ॥
पतंति नो भवार्णवे ।
वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा ।
भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं ।
प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमभ्दुतं प्रभुं ।
निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं ।
तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं ।
कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं ।
समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं ।
नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते ।
पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
पठंति ये स्तवं इदं ।
नरादरेण ते पदं ॥
व्रजंति नात्र संशयं ।
त्वदीय भक्ति संयुता ॥
दो॰ बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि ।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥

अनुसुइया के पद गहि सीता ।
मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई ।
आसिष देइ निकट बैठाई ॥
दिब्य बसन भूषन पहिराए ।
जे नित नूतन अमल सुहाए ॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी ।
नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥
मातु पिता भ्राता हितकारी ।
मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥
अमित दानि भर्ता बयदेही ।
अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥
धीरज धर्म मित्र अरु नारी ।
आपद काल परिखिअहिं चारी ॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना ।
अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना ।
नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा ।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥
जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं ।
बेद पुरान संत सब कहहिं ॥
उत्तम के अस बस मन माहीं ।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥
मध्यम परपति देखइ कैसें ।
भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई ।
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥
बिनु अवसर भय तें रह जोई ।
जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति बंचक परपति रति करई ।
रौरव नरक कल्प सत परई ॥
छन सुख लागि जनम सत कोटि ।
दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई ।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥
पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई ।
बिधवा होई पाई तरुनाई ॥
सो॰ सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ ५क ॥

सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि ।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ ५ख ॥

सुनि जानकीं परम सुखु पावा ।
सादर तासु चरन सिरु नावा ॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना ।
आयसु होइ जाउँ बन आना ॥
संतत मो पर कृपा करेहू ।
सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी ।
सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥
जासु कृपा अज सिव सनकादी ।
चहत सकल परमारथ बादी ॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे ।
दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥
अब जानी मैं श्री चतुराई ।
भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई ।
ता कर सील कस न अस होई ॥
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी ।
कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा ।
लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥
छं॰ तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए ।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।
रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥
दो॰ कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।
सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ ६(क) ॥

सो॰ कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा ।
चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥
आगे राम अनुज पुनि पाछें ।
मुनि बर बेष बने अति काछें ॥
उमय बीच श्री सोहइ कैसी ।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा ।
पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥
जहँ जहँ जाहि देव रघुराया ।
करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥
मिला असुर बिराध मग जाता ।
आवतहीं रघुवीर निपाता ॥
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा ।
देखि दुखी निज धाम पठावा ॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा ।
सुंदर अनुज जानकी संगा ॥
दो॰ देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग ।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला ।
संकर मानस राजमराला ॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा ।
सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती ।
अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥
नाथ सकल साधन मैं हीना ।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥
सो कछु देव न मोहि निहोरा ।
निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी ।
जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा ।
प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा ।
बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥
दो॰ सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा ।
राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥
रिषि निकाय मुनिबर गति देखि ।
सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा ।
जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे ।
मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥
अस्थि समूह देखि रघुराया ।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥
जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी ।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए ।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥
दो॰ निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना ।
नाम सुतीछन रति भगवाना ॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक ।
सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा ।
करत मनोरथ आतुर धावा ॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया ।
मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥
सहित अनुज मोहि राम गोसाई ।
मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं ।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥
नहिं सतसंग जोग जप जागा ।
नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥
एक बानि करुनानिधान की ।
सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन ।
देखि बदन पंकज भव मोचन ॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी ।
कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा ।
को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई ।
कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई ।
प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा ।
प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा ।
पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए ।
देखि दसा निज जन मन भाए ॥
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा ।
जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥
भूप रूप तब राम दुरावा ।
हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें ।
बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥
आगें देखि राम तन स्यामा ।
सीता अनुज सहित सुख धामा ॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी ।
प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई ।
परम प्रीति राखे उर लाई ॥
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला ।
कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा ।
मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥
दो॰ तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार ।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी ।
अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी ।
रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥
श्याम तामरस दाम शरीरं ।
जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं ।
नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः ।
संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः ।
त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं ।
सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं ।
नौमि राम उर बाहु विशालं ॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः ।
शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः ।
त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं ।
ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं ।
नौमि राम भंजन महि भारं ॥
भक्त कल्पपादप आरामः ।
तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः ।
त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः ।
कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः ।
संतत शं तनोतु मम रामः ॥
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी ।
सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी ।
बसतु मनसि मम काननचारी ॥
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी ।
सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥
जो कोसल पति राजिव नयना ।
करउ सो राम हृदय मम अयना ।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे ।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए ।
बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही ।
जो बर मागहु देउ सो तोही ॥
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा ।
समुझि न परइ झूठ का साचा ॥
तुम्हहि नीक लागै रघुराई ।
सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना ।
होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा ।
अब सो देहु मोहि जो भावा ॥
दो॰ अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम ।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥

एवमस्तु करि रमानिवासा ।
हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥
बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ ।
भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं ।
तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई ।
लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥
पंथ कहत निज भगति अनूपा ।
मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ ।
करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥
नाथ कौसलाधीस कुमारा ।
आए मिलन जगत आधारा ॥
राम अनुज समेत बैदेही ।
निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए ।
हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई ।
रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी ।
आसन बर बैठारे आनी ॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा ।
मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा ।
हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥
दो॰ मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर ।
सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं ।
तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ ।
ताते तात न कहि समुझायउँ ॥
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही ।
जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥
मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी ।
पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी ।
जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया ।
फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥
जीव चराचर जंतु समाना ।
भीतर बसहि न जानहिं आना ॥
ते फल भच्छक कठिन कराला ।
तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं ।
पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता ।
बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥
अबिरल भगति बिरति सतसंगा ।
चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता ।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥
अस तव रूप बखानउँ जानउँ ।
फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥
संतत दासन्ह देहु बड़ाई ।
तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ ।
पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू ।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥
बास करहु तहँ रघुकुल राया ।
कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥
चले राम मुनि आयसु पाई ।
तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥
दो॰ गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा ।
सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए ।
दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं ।
मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा ।
जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥
एक बार प्रभु सुख आसीना ।
लछिमन बचन कहे छलहीना ॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं ।
मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा ।
सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया ।
कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥
दो॰ ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई ।
सुनहु तात मति मन चित लाई ॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥
गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानेहु भाई ॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा ।
जा बस जीव परा भवकूपा ॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें ।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं ।
देख ब्रह्म समान सब माही ॥
कहिअ तात सो परम बिरागी ।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥
दो॰ माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना ।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई ।
सो मम भगति भगत सुखदाई ॥
सो सुतंत्र अवलंब न आना ।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥
भगति तात अनुपम सुखमूला ।
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥
भगति कि साधन कहउँ बखानी ।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती ।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा ।
तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं ।
मम लीला रति अति मन माहीं ॥
संत चरन पंकज अति प्रेमा ।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा ।
गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥
काम आदि मद दंभ न जाकें ।
तात निरंतर बस मैं ताकें ॥
दो॰ बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥

भगति जोग सुनि अति सुख पावा ।
लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती ।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥
सूपनखा रावन कै बहिनी ।
दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥
पंचबटी सो गइ एक बारा ।
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥
भ्राता पिता पुत्र उरगारी ।
पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी ।
जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥
रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई ।
बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी ।
यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं ।
देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥
ताते अब लगि रहिउँ कुमारी ।
मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता ।
अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी ।
प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा ।
पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा ।
जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥
सेवक सुख चह मान भिखारी ।
ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥
लोभी जसु चह चार गुमानी ।
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥
पुनि फिरि राम निकट सो आई ।
प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई ।
जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥
तब खिसिआनि राम पहिं गई ।
रूप भयंकर प्रगटत भई ॥
सीतहि सभय देखि रघुराई ।
कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥
दो॰ लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥

नाक कान बिनु भइ बिकरारा ।
जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता ।
धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥
तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई ।
जातुधान सुनि सेन बनाई ॥
धाए निसिचर निकर बरूथा ।
जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥
नाना बाहन नानाकारा ।
नानायुध धर घोर अपारा ॥
सुपनखा आगें करि लीनी ।
असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥
असगुन अमित होहिं भयकारी ।
गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥
गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं ।
देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई ।
धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा ।
राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर ।
आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी ।
चले सहित श्री सर धनु पानी ॥
देखि राम रिपुदल चलि आवा ।
बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥
छं॰ कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥
सो॰ आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥

प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी ।
थकित भई रजनीचर धारी ॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन ।
यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥
नाग असुर सुर नर मुनि जेते ।
देखे जिते हते हम केते ॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई ।
देखी नहिं असि सुंदरताई ॥
जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा ।
बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥
देहु तुरत निज नारि दुराई ।
जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु ।
तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई ।
सुनत राम बोले मुसकाई ॥
हम छत्री मृगया बन करहीं ।
तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं ।
एक बार कालहु सन लरहीं ॥
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक ।
मुनि पालक खल सालक बालक ॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू ।
समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई ।
रिपु पर कृपा परम कदराई ॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ ।
सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥
छं॰ उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥
दो॰ सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥

छं॰ तब चले जान बबान कराल ।
फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥
कोपेउ समर श्रीराम ।
चले बिसिख निसित निकाम ॥
अवलोकि खरतर तीर ।
मुरि चले निसिचर बीर ॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ ।
जो भागि रन ते जाइ ॥
तेहि बधब हम निज पानि ।
फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥
आयुध अनेक प्रकार ।
सनमुख ते करहिं प्रहार ॥
रिपु परम कोपे जानि ।
प्रभु धनुष सर संधानि ॥
छाँड़े बिपुल नाराच ।
लगे कटन बिकट पिसाच ॥
उर सीस भुज कर चरन ।
जहँ तहँ लगे महि परन ॥
चिक्करत लागत बान ।
धर परत कुधर समान ॥
भट कटत तन सत खंड ।
पुनि उठत करि पाषंड ॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड ।
बिनु मौलि धावत रुंड ॥
खग कंक काक सृगाल ।
कटकटहिं कठिन कराल ॥
छं॰ कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥
सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।
करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर यो ।
देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर यो ॥
दो॰ राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥

जब रघुनाथ समर रिपु जीते ।
सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥
तब लछिमन सीतहि लै आए ।
प्रभु पद परत हरषि उर लाए ।
सीता चितव स्याम मृदु गाता ।
परम प्रेम लोचन न अघाता ॥
पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक ।
करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥
धुआँ देखि खरदूषन केरा ।
जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥
बोलि बचन क्रोध करि भारी ।
देस कोस कै सुरति बिसारी ॥
करसि पान सोवसि दिनु राती ।
सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा ।
हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ ।
श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥
संग ते जती कुमंत्र ते राजा ।
मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी ।
नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥
सो॰ रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि ।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ २१(क) ॥

दो॰ सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ ॥ २१(ख) ॥

सुनत सभासद उठे अकुलाई ।
समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥
कह लंकेस कहसि निज बाता ।
केँइँ तव नासा कान निपाता ॥
अवध नृपति दसरथ के जाए ।
पुरुष सिंघ बन खेलन आए ॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी ।
रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन ।
अभय भए बिचरत मुनि कानन ॥
देखत बालक काल समाना ।
परम धीर धन्वी गुन नाना ॥
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता ।
खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥
सोभाधाम राम अस नामा ।
तिन्ह के संग नारि एक स्यामा ॥
रुप रासि बिधि नारि सँवारी ।
रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा ।
सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥
खर दूषन सुनि लगे पुकारा ।
छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता ।
सुनि दससीस जरे सब गाता ॥
दो॰ सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति ।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति ॥ २२ ॥

सुर नर असुर नाग खग माहीं ।
मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता ।
तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ॥
सुर रंजन भंजन महि भारा ।
जौं भगवंत लीन्ह अवतारा ॥
तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ ।
प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ॥
होइहि भजनु न तामस देहा ।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥
जौं नररुप भूपसुत कोऊ ।
हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥
चला अकेल जान चढि तहवाँ ।
बस मारीच सिंधु तट जहवाँ ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई ।
सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥
दो॰ लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद ।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद ॥ २३ ॥

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥
जबहिं राम सब कहा बखानी ।
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता ।
तैसइ सील रुप सुबिनीता ॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना ।
जो कछु चरित रचा भगवाना ॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा ।
नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥
नवनि नीच कै अति दुखदाई ।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥
दो॰ करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात ।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ २४ ॥

दसमुख सकल कथा तेहि आगें ।
कही सहित अभिमान अभागें ॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी ।
जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा ।
ते नररुप चराचर ईसा ॥
तासों तात बयरु नहिं कीजे ।
मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥
मुनि मख राखन गयउ कुमारा ।
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं ।
तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं ॥
भइ मम कीट भृंग की नाई ।
जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई ॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा ।
तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥
दो॰ जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड ॥
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड ॥ २५ ॥

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी ।
सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा ।
कहु जग मोहि समान को जोधा ॥
तब मारीच हृदयँ अनुमाना ।
नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी ।
बैद बंदि कबि भानस गुनी ॥
उभय भाँति देखा निज मरना ।
तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें ।
कस न मरौं रघुपति सर लागें ॥
अस जियँ जानि दसानन संगा ।
चला राम पद प्रेम अभंगा ॥
मन अति हरष जनाव न तेही ।
आजु देखिहउँ परम सनेही ॥
छं॰ निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं ।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं ॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी ।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥
दो॰ मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान ।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन ॥ २६ ॥

तेहि बन निकट दसानन गयऊ ।
तब मारीच कपटमृग भयऊ ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई ।
कनक देह मनि रचित बनाई ॥
सीता परम रुचिर मृग देखा ।
अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला ।
एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही ।
आनहु चर्म कहति बैदेही ॥
तब रघुपति जानत सब कारन ।
उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा ।
करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥
प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई ।
फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥
सीता केरि करेहु रखवारी ।
बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी ।
धाए रामु सरासन साजी ॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा ।
मायामृग पाछें सो धावा ॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई ।
कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई ॥
प्रगटत दुरत करत छल भूरी ।
एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी ॥
तब तकि राम कठिन सर मारा ।
धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा ।
पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा ।
सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥
अंतर प्रेम तासु पहिचाना ।
मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥
दो॰ बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ ॥ २७ ॥

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा ।
सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥
आरत गिरा सुनी जब सीता ।
कह लछिमन सन परम सभीता ॥
जाहु बेगि संकट अति भ्राता ।
लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई ।
सपनेहुँ संकट परइ कि सोई ॥
मरम बचन जब सीता बोला ।
हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू ।
चले जहाँ रावन ससि राहू ॥
सून बीच दसकंधर देखा ।
आवा निकट जती कें बेषा ॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं ।
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं ॥
सो दससीस स्वान की नाई ।
इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा ।
रह न तेज बुधि बल लेसा ॥
नाना बिधि करि कथा सुहाई ।
राजनीति भय प्रीति देखाई ॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं ।
बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥
तब रावन निज रूप देखावा ।
भई सभय जब नाम सुनावा ॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा ।
आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा ॥
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा ।
भएसि कालबस निसिचर नाहा ॥
सुनत बचन दससीस रिसाना ।
मन महुँ चरन बंदि सुख माना ॥
दो॰ क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥

हा जग एक बीर रघुराया ।
केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥
आरति हरन सरन सुखदायक ।
हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा ।
सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा ॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही ।
भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा ।
पुरोडास चह रासभ खावा ॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी ।
भए चराचर जीव दुखारी ॥
गीधराज सुनि आरत बानी ।
रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥
अधम निसाचर लीन्हे जाई ।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा ।
करिहउँ जातुधान कर नासा ॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें ।
छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही ।
निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥
आवत देखि कृतांत समाना ।
फिरि दसकंधर कर अनुमाना ॥
की मैनाक कि खगपति होई ।
मम बल जान सहित पति सोई ॥
जाना जरठ जटायू एहा ।
मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ॥
सुनत गीध क्रोधातुर धावा ।
कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू ।
नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥
राम रोष पावक अति घोरा ।
होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥
उतरु न देत दसानन जोधा ।
तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा ।
सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही ।
दंड एक भइ मुरुछा तेही ॥
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना ।
काढ़ेसि परम कराल कृपाना ॥
काटेसि पंख परा खग धरनी ।
सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी ।
चला उताइल त्रास न थोरी ॥
करति बिलाप जाति नभ सीता ।
ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी ।
कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ ।
बन असोक महँ राखत भयऊ ॥
दो॰ हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ २९(क) ॥

नवान्हपारायण, छठा विश्राम जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम ।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ २९(ख) ॥

रघुपति अनुजहि आवत देखी ।
बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली ।
आयहु तात बचन मम पेली ॥
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं ।
मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी ।
कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ ।
गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥
आश्रम देखि जानकी हीना ।
भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥
हा गुन खानि जानकी सीता ।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥
लछिमन समुझाए बहु भाँती ।
पूछत चले लता तरु पाँती ॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना ।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥
कुंद कली दाड़िम दामिनी ।
कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा ।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं ।
नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू ।
हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं।
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥
एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी ।
मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥
पूरनकाम राम सुख रासी ।
मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥
आगे परा गीधपति देखा ।
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥
दो॰ कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥

तब कह गीध बचन धरि धीरा।
सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही ।
तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई ।
बिलपति अति कुररी की नाई ॥
दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना ।
चलन चहत अब कृपानिधाना ॥
राम कहा तनु राखहु ताता ।
मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥
जा कर नाम मरत मुख आवा ।
अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥
सो मम लोचन गोचर आगें ।
राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥
जल भरि नयन कहहिँ रघुराई ।
तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीँ ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा ।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥
दो॰ सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥
जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥

गीध देह तजि धरि हरि रुपा ।
भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी ।
अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥
छं॰ जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही ।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं ।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं ।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं ।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥
२ ।
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई ।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा ।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी ।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥

दो॰ अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम ।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥

कोमल चित अति दीनदयाला ।
कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥
गीध अधम खग आमिष भोगी ।
गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥
सुनहु उमा ते लोग अभागी ।
हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई ।
चले बिलोकत बन बहुताई ॥
संकुल लता बिटप घन कानन ।
बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥
आवत पंथ कबंध निपाता ।
तेहिं सब कही साप कै बाता ॥
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा ।
प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही ।
मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥
दो॰ मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव ।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥

सापत ताड़त परुष कहंता ।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना ।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥
कहि निज धर्म ताहि समुझावा ।
निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई ।
गयउ गगन आपनि गति पाई ॥
ताहि देइ गति राम उदारा ।
सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥
सबरी देखि राम गृहँ आए ।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥
सरसिज लोचन बाहु बिसाला ।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई ।
सबरी परी चरन लपटाई ॥
प्रेम मगन मुख बचन न आवा ।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥
सादर जल लै चरन पखारे ।
पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥
दो॰ कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि ।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥

पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी ।
प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥
अधम ते अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
दो॰ गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा ।
निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना ।
मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई ।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी ।
जानहि कहु करिबरगामिनी ॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई ।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा ।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥
बार बार प्रभु पद सिरु नाई ।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥
छं॰ कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥
दो॰ जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि ।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥

चले राम त्यागा बन सोऊ ।
अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा ।
कहत कथा अनेक संबादा ॥
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा ।
देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥
नारि सहित सब खग मृग बृंदा ।
मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥
हमहि देखि मृग निकर पराहीं ।
मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए ।
कंचन मृग खोजन ए आए ॥
संग लाइ करिनीं करि लेहीं ।
मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥
राखिअ नारि जदपि उर माहीं ।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥
देखहु तात बसंत सुहावा ।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥
दो॰ बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल ।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥

देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात ।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥

बिटप बिसाल लता अरुझानी ।
बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥
कदलि ताल बर धुजा पताका ।
दैखि न मोह धीर मन जाका ॥
बिबिध भाँति फूले तरु नाना ।
जनु बानैत बने बहु बाना ॥
कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए ।
जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥
कूजत पिक मानहुँ गज माते ।
ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥
मोर चकोर कीर बर बाजी ।
पारावत मराल सब ताजी ॥
तीतिर लावक पदचर जूथा ।
बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥
रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना ।
चातक बंदी गुन गन बरना ॥
मधुकर मुखर भेरि सहनाई ।
त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें ।
बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥
लछिमन देखत काम अनीका ।
रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥
एहि कें एक परम बल नारी ।
तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥
दो॰ तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि ।
क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥

गुनातीत सचराचर स्वामी ।
राम उमा सब अंतरजामी ॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई ।
धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥
क्रोध मनोज लोभ मद माया ।
छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला ।
जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।
सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा ।
पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥
संत हृदय जस निर्मल बारी ।
बाँधे घाट मनोहर चारी ॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा ।
जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥
दो॰ पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म ।
मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥

सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं ।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥

बिकसे सरसिज नाना रंगा ।
मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा ।
प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥
चक्रवाक बक खग समुदाई ।
देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥
सुन्दर खग गन गिरा सुहाई ।
जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए ।
चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥
चंपक बकुल कदंब तमाला ।
पाटल पनस परास रसाला ॥
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना ।
चंचरीक पटली कर गाना ॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ ।
संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं ।
सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥
दो॰ फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥

देखि राम अति रुचिर तलावा ।
मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥
देखी सुंदर तरुबर छाया ।
बैठे अनुज सहित रघुराया ॥
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए ।
अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला ।
कहत अनुज सन कथा रसाला ॥
बिरहवंत भगवंतहि देखी ।
नारद मन भा सोच बिसेषी ॥
मोर साप करि अंगीकारा ।
सहत राम नाना दुख भारा ॥
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई ।
पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥
यह बिचारि नारद कर बीना ।
गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥
गावत राम चरित मृदु बानी ।
प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥
करत दंडवत लिए उठाई ।
राखे बहुत बार उर लाई ॥
स्वागत पूँछि निकट बैठारे ।
लछिमन सादर चरन पखारे ॥
दो॰ नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि ।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥

सुनहु उदार सहज रघुनायक ।
सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी ।
जद्यपि जानत अंतरजामी ॥
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ ।
जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी ।
जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें ।
अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥
तब नारद बोले हरषाई।
अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका ।
श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका ।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥
दो॰ राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम ।
अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥

अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी ।
पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया ।
मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा ।
प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा ।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी ।
जिमि बालक राखइ महतारी ॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई ।
तहँ राखइ जननी अरगाई ॥
प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता ।
प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी ।
बालक सुत सम दास अमानी ॥
जनहि मोर बल निज बल ताही ।
दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं ।
पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥
दो॰ काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि ।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥

सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता ।
मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी ।
होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥
काम क्रोध मद मत्सर भेका ।
इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई ।
तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा ।
होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥
पुनि ममता जवास बहुताई ।
पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥
पाप उलूक निकर सुखकारी ।
नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना ।
बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥
दो॰ अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि ।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥

सुनि रघुपति के बचन सुहाए ।
मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती ।
सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी ।
ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद ।
सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा ।
कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ ।
जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥
षट बिकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥
अमितबोध अनीह मितभोगी ।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥
सावधान मानद मदहीना ।
धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥
दो॰ गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती ।
सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥
जप तप ब्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया ।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना ।
बोध जथारथ बेद पुराना ॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला ।
हेतु रहित परहित रत सीला ॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते ।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥
छं॰ कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे ।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥
सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥
दो॰ रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग ।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग ।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥
४६(ख) ॥

मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः.

(अरण्यकाण्ड समाप्त)

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