Thursday, January 31, 2008

अरण्यकाण्ड

श्री गणेशाय नमः


श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड)


श्लोक
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम ।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम ॥ १ ॥

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥

सो॰
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति ।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥

पुर नर भरत प्रीति मैं गाई ।
मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन ।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥
एक बार चुनि कुसुम सुहाए ।
निज कर भूषन राम बनाए ॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर ।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥
सुरपति सुत धरि बायस बेषा ।
सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा ।
महा मंदमति पावन चाहा ॥
सीता चरन चौंच हति भागा ।
मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥
चला रुधिर रघुनायक जाना ।
सींक धनुष सायक संधाना ॥

दो॰ अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा ।
चला भाजि बायस भय पावा ॥
धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं ।
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥
भा निरास उपजी मन त्रासा ।
जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका ।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥
काहूँ बैठन कहा न ओही ।
राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना ।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥
मित्र करइ सत रिपु कै करनी ।
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता ।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥
नारद देखा बिकल जयंता ।
लागि दया कोमल चित संता ॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही ।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥
आतुर सभय गहेसि पद जाई ।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई ।
मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी ।
एकनयन करि तजा भवानी ॥

सो॰ कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥

रघुपति चित्रकूट बसि नाना ।
चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना ।
होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई ।
सीता सहित चले द्वौ भाई ॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ ।
सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥
पुलकित गात अत्रि उठि धाए ।
देखि रामु आतुर चलि आए ॥
करत दंडवत मुनि उर लाए ।
प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने ।
सादर निज आश्रम तब आने ॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए ।
दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥
सो॰ प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥

छं॰ नमामि भक्त वत्सलं ।
कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं ।
अकामिनां स्वधामदं ॥
निकाम श्याम सुंदरं ।
भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं ।
मदादि दोष मोचनं ॥
प्रलंब बाहु विक्रमं ।
प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं ।
धरं त्रिलोक नायकं ॥
दिनेश वंश मंडनं ।
महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं ।
सुरारि वृंद भंजनं ॥
मनोज वैरि वंदितं ।
अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं ।
समस्त दूषणापहं ॥
नमामि इंदिरा पतिं ।
सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं ।
शची पतिं प्रियानुजं ॥
त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।
भजंति हीन मत्सरा ॥
पतंति नो भवार्णवे ।
वितर्क वीचि संकुले ॥
विविक्त वासिनः सदा ।
भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं ।
प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥
तमेकमभ्दुतं प्रभुं ।
निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं ।
तुरीयमेव केवलं ॥
भजामि भाव वल्लभं ।
कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं ।
समं सुसेव्यमन्वहं ॥
अनूप रूप भूपतिं ।
नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते ।
पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥
पठंति ये स्तवं इदं ।
नरादरेण ते पदं ॥
व्रजंति नात्र संशयं ।
त्वदीय भक्ति संयुता ॥
दो॰ बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि ।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥

अनुसुइया के पद गहि सीता ।
मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई ।
आसिष देइ निकट बैठाई ॥
दिब्य बसन भूषन पहिराए ।
जे नित नूतन अमल सुहाए ॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी ।
नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥
मातु पिता भ्राता हितकारी ।
मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥
अमित दानि भर्ता बयदेही ।
अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥
धीरज धर्म मित्र अरु नारी ।
आपद काल परिखिअहिं चारी ॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना ।
अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना ।
नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा ।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥
जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं ।
बेद पुरान संत सब कहहिं ॥
उत्तम के अस बस मन माहीं ।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥
मध्यम परपति देखइ कैसें ।
भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई ।
सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥
बिनु अवसर भय तें रह जोई ।
जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति बंचक परपति रति करई ।
रौरव नरक कल्प सत परई ॥
छन सुख लागि जनम सत कोटि ।
दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई ।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥
पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई ।
बिधवा होई पाई तरुनाई ॥
सो॰ सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ ५क ॥

सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि ।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ ५ख ॥

सुनि जानकीं परम सुखु पावा ।
सादर तासु चरन सिरु नावा ॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना ।
आयसु होइ जाउँ बन आना ॥
संतत मो पर कृपा करेहू ।
सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥
धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी ।
सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥
जासु कृपा अज सिव सनकादी ।
चहत सकल परमारथ बादी ॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे ।
दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥
अब जानी मैं श्री चतुराई ।
भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई ।
ता कर सील कस न अस होई ॥
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी ।
कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा ।
लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥
छं॰ तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए ।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।
रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥
दो॰ कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।
सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ ६(क) ॥

सो॰ कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा ।
चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥
आगे राम अनुज पुनि पाछें ।
मुनि बर बेष बने अति काछें ॥
उमय बीच श्री सोहइ कैसी ।
ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा ।
पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥
जहँ जहँ जाहि देव रघुराया ।
करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥
मिला असुर बिराध मग जाता ।
आवतहीं रघुवीर निपाता ॥
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा ।
देखि दुखी निज धाम पठावा ॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा ।
सुंदर अनुज जानकी संगा ॥
दो॰ देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग ।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला ।
संकर मानस राजमराला ॥
जात रहेउँ बिरंचि के धामा ।
सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती ।
अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥
नाथ सकल साधन मैं हीना ।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥
सो कछु देव न मोहि निहोरा ।
निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी ।
जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा ।
प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा ।
बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥
दो॰ सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा ।
राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ ।
प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥
रिषि निकाय मुनिबर गति देखि ।
सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा ।
जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥
पुनि रघुनाथ चले बन आगे ।
मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥
अस्थि समूह देखि रघुराया ।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥
जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी ।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए ।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥
दो॰ निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना ।
नाम सुतीछन रति भगवाना ॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक ।
सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा ।
करत मनोरथ आतुर धावा ॥
हे बिधि दीनबंधु रघुराया ।
मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥
सहित अनुज मोहि राम गोसाई ।
मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥
मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं ।
भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥
नहिं सतसंग जोग जप जागा ।
नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥
एक बानि करुनानिधान की ।
सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
होइहैं सुफल आजु मम लोचन ।
देखि बदन पंकज भव मोचन ॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी ।
कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा ।
को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई ।
कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई ।
प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा ।
प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा ।
पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए ।
देखि दसा निज जन मन भाए ॥
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा ।
जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥
भूप रूप तब राम दुरावा ।
हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें ।
बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥
आगें देखि राम तन स्यामा ।
सीता अनुज सहित सुख धामा ॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी ।
प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई ।
परम प्रीति राखे उर लाई ॥
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला ।
कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा ।
मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥
दो॰ तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार ।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी ।
अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी ।
रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥
श्याम तामरस दाम शरीरं ।
जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं ।
नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः ।
संत सरोरुह कानन भानुः ॥
निशिचर करि वरूथ मृगराजः ।
त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं ।
सीता नयन चकोर निशेशं ॥
हर ह्रदि मानस बाल मरालं ।
नौमि राम उर बाहु विशालं ॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः ।
शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः ।
त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं ।
ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं ।
नौमि राम भंजन महि भारं ॥
भक्त कल्पपादप आरामः ।
तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥
अति नागर भव सागर सेतुः ।
त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः ।
कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः ।
संतत शं तनोतु मम रामः ॥
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी ।
सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी ।
बसतु मनसि मम काननचारी ॥
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी ।
सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥
जो कोसल पति राजिव नयना ।
करउ सो राम हृदय मम अयना ।
अस अभिमान जाइ जनि भोरे ।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए ।
बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही ।
जो बर मागहु देउ सो तोही ॥
मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा ।
समुझि न परइ झूठ का साचा ॥
तुम्हहि नीक लागै रघुराई ।
सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना ।
होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा ।
अब सो देहु मोहि जो भावा ॥
दो॰ अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम ।
मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥

एवमस्तु करि रमानिवासा ।
हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥
बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ ।
भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥
अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं ।
तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई ।
लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥
पंथ कहत निज भगति अनूपा ।
मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ ।
करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥
नाथ कौसलाधीस कुमारा ।
आए मिलन जगत आधारा ॥
राम अनुज समेत बैदेही ।
निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए ।
हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई ।
रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी ।
आसन बर बैठारे आनी ॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा ।
मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा ।
हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥
दो॰ मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर ।
सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥

तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं ।
तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ ।
ताते तात न कहि समुझायउँ ॥
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही ।
जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥
मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी ।
पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी ।
जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया ।
फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥
जीव चराचर जंतु समाना ।
भीतर बसहि न जानहिं आना ॥
ते फल भच्छक कठिन कराला ।
तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं ।
पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता ।
बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥
अबिरल भगति बिरति सतसंगा ।
चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता ।
अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥
अस तव रूप बखानउँ जानउँ ।
फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥
संतत दासन्ह देहु बड़ाई ।
तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ ।
पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥
दंडक बन पुनीत प्रभु करहू ।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥
बास करहु तहँ रघुकुल राया ।
कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥
चले राम मुनि आयसु पाई ।
तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥
दो॰ गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥

जब ते राम कीन्ह तहँ बासा ।
सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए ।
दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥
खग मृग बृंद अनंदित रहहीं ।
मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा ।
जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥
एक बार प्रभु सुख आसीना ।
लछिमन बचन कहे छलहीना ॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं ।
मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा ।
सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया ।
कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥
दो॰ ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥

थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई ।
सुनहु तात मति मन चित लाई ॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥
गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानेहु भाई ॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा ।
जा बस जीव परा भवकूपा ॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें ।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं ।
देख ब्रह्म समान सब माही ॥
कहिअ तात सो परम बिरागी ।
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥
दो॰ माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव ।
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥

धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना ।
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई ।
सो मम भगति भगत सुखदाई ॥
सो सुतंत्र अवलंब न आना ।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥
भगति तात अनुपम सुखमूला ।
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥
भगति कि साधन कहउँ बखानी ।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती ।
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा ।
तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं ।
मम लीला रति अति मन माहीं ॥
संत चरन पंकज अति प्रेमा ।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥
मम गुन गावत पुलक सरीरा ।
गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥
काम आदि मद दंभ न जाकें ।
तात निरंतर बस मैं ताकें ॥
दो॰ बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥

भगति जोग सुनि अति सुख पावा ।
लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥
एहि बिधि गए कछुक दिन बीती ।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥
सूपनखा रावन कै बहिनी ।
दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥
पंचबटी सो गइ एक बारा ।
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥
भ्राता पिता पुत्र उरगारी ।
पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी ।
जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥
रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई ।
बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी ।
यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं ।
देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥
ताते अब लगि रहिउँ कुमारी ।
मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता ।
अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी ।
प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥
सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा ।
पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा ।
जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥
सेवक सुख चह मान भिखारी ।
ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥
लोभी जसु चह चार गुमानी ।
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥
पुनि फिरि राम निकट सो आई ।
प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई ।
जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥
तब खिसिआनि राम पहिं गई ।
रूप भयंकर प्रगटत भई ॥
सीतहि सभय देखि रघुराई ।
कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥
दो॰ लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥

नाक कान बिनु भइ बिकरारा ।
जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता ।
धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥
तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई ।
जातुधान सुनि सेन बनाई ॥
धाए निसिचर निकर बरूथा ।
जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥
नाना बाहन नानाकारा ।
नानायुध धर घोर अपारा ॥
सुपनखा आगें करि लीनी ।
असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥
असगुन अमित होहिं भयकारी ।
गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥
गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं ।
देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई ।
धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा ।
राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर ।
आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी ।
चले सहित श्री सर धनु पानी ॥
देखि राम रिपुदल चलि आवा ।
बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥
छं॰ कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥
सो॰ आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥

प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी ।
थकित भई रजनीचर धारी ॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन ।
यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥
नाग असुर सुर नर मुनि जेते ।
देखे जिते हते हम केते ॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई ।
देखी नहिं असि सुंदरताई ॥
जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा ।
बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥
देहु तुरत निज नारि दुराई ।
जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु ।
तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई ।
सुनत राम बोले मुसकाई ॥
हम छत्री मृगया बन करहीं ।
तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं ।
एक बार कालहु सन लरहीं ॥
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक ।
मुनि पालक खल सालक बालक ॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू ।
समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई ।
रिपु पर कृपा परम कदराई ॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ ।
सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥
छं॰ उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥
दो॰ सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥

तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥

छं॰ तब चले जान बबान कराल ।
फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥
कोपेउ समर श्रीराम ।
चले बिसिख निसित निकाम ॥
अवलोकि खरतर तीर ।
मुरि चले निसिचर बीर ॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ ।
जो भागि रन ते जाइ ॥
तेहि बधब हम निज पानि ।
फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥
आयुध अनेक प्रकार ।
सनमुख ते करहिं प्रहार ॥
रिपु परम कोपे जानि ।
प्रभु धनुष सर संधानि ॥
छाँड़े बिपुल नाराच ।
लगे कटन बिकट पिसाच ॥
उर सीस भुज कर चरन ।
जहँ तहँ लगे महि परन ॥
चिक्करत लागत बान ।
धर परत कुधर समान ॥
भट कटत तन सत खंड ।
पुनि उठत करि पाषंड ॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड ।
बिनु मौलि धावत रुंड ॥
खग कंक काक सृगाल ।
कटकटहिं कठिन कराल ॥
छं॰ कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥
सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।
करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर यो ।
देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर यो ॥
दो॰ राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥

हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥

जब रघुनाथ समर रिपु जीते ।
सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥
तब लछिमन सीतहि लै आए ।
प्रभु पद परत हरषि उर लाए ।
सीता चितव स्याम मृदु गाता ।
परम प्रेम लोचन न अघाता ॥
पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक ।
करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥
धुआँ देखि खरदूषन केरा ।
जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥
बोलि बचन क्रोध करि भारी ।
देस कोस कै सुरति बिसारी ॥
करसि पान सोवसि दिनु राती ।
सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा ।
हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ ।
श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥
संग ते जती कुमंत्र ते राजा ।
मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी ।
नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥
सो॰ रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि ।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ २१(क) ॥

दो॰ सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ ॥ २१(ख) ॥

सुनत सभासद उठे अकुलाई ।
समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥
कह लंकेस कहसि निज बाता ।
केँइँ तव नासा कान निपाता ॥
अवध नृपति दसरथ के जाए ।
पुरुष सिंघ बन खेलन आए ॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी ।
रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन ।
अभय भए बिचरत मुनि कानन ॥
देखत बालक काल समाना ।
परम धीर धन्वी गुन नाना ॥
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता ।
खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥
सोभाधाम राम अस नामा ।
तिन्ह के संग नारि एक स्यामा ॥
रुप रासि बिधि नारि सँवारी ।
रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा ।
सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥
खर दूषन सुनि लगे पुकारा ।
छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता ।
सुनि दससीस जरे सब गाता ॥
दो॰ सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति ।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति ॥ २२ ॥

सुर नर असुर नाग खग माहीं ।
मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता ।
तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ॥
सुर रंजन भंजन महि भारा ।
जौं भगवंत लीन्ह अवतारा ॥
तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ ।
प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ॥
होइहि भजनु न तामस देहा ।
मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥
जौं नररुप भूपसुत कोऊ ।
हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥
चला अकेल जान चढि तहवाँ ।
बस मारीच सिंधु तट जहवाँ ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई ।
सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥
दो॰ लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद ।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद ॥ २३ ॥

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥
जबहिं राम सब कहा बखानी ।
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता ।
तैसइ सील रुप सुबिनीता ॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना ।
जो कछु चरित रचा भगवाना ॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा ।
नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥
नवनि नीच कै अति दुखदाई ।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥
दो॰ करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात ।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ २४ ॥

दसमुख सकल कथा तेहि आगें ।
कही सहित अभिमान अभागें ॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी ।
जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा ।
ते नररुप चराचर ईसा ॥
तासों तात बयरु नहिं कीजे ।
मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥
मुनि मख राखन गयउ कुमारा ।
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं ।
तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं ॥
भइ मम कीट भृंग की नाई ।
जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई ॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा ।
तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥
दो॰ जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड ॥
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड ॥ २५ ॥

जाहु भवन कुल कुसल बिचारी ।
सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा ।
कहु जग मोहि समान को जोधा ॥
तब मारीच हृदयँ अनुमाना ।
नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी ।
बैद बंदि कबि भानस गुनी ॥
उभय भाँति देखा निज मरना ।
तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें ।
कस न मरौं रघुपति सर लागें ॥
अस जियँ जानि दसानन संगा ।
चला राम पद प्रेम अभंगा ॥
मन अति हरष जनाव न तेही ।
आजु देखिहउँ परम सनेही ॥
छं॰ निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं ।
श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं ॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी ।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥
दो॰ मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान ।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन ॥ २६ ॥

तेहि बन निकट दसानन गयऊ ।
तब मारीच कपटमृग भयऊ ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई ।
कनक देह मनि रचित बनाई ॥
सीता परम रुचिर मृग देखा ।
अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला ।
एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥
सत्यसंध प्रभु बधि करि एही ।
आनहु चर्म कहति बैदेही ॥
तब रघुपति जानत सब कारन ।
उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा ।
करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥
प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई ।
फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥
सीता केरि करेहु रखवारी ।
बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी ।
धाए रामु सरासन साजी ॥
निगम नेति सिव ध्यान न पावा ।
मायामृग पाछें सो धावा ॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई ।
कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई ॥
प्रगटत दुरत करत छल भूरी ।
एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी ॥
तब तकि राम कठिन सर मारा ।
धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा ।
पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा ।
सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥
अंतर प्रेम तासु पहिचाना ।
मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥
दो॰ बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ ॥ २७ ॥

खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा ।
सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥
आरत गिरा सुनी जब सीता ।
कह लछिमन सन परम सभीता ॥
जाहु बेगि संकट अति भ्राता ।
लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई ।
सपनेहुँ संकट परइ कि सोई ॥
मरम बचन जब सीता बोला ।
हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू ।
चले जहाँ रावन ससि राहू ॥
सून बीच दसकंधर देखा ।
आवा निकट जती कें बेषा ॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं ।
निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं ॥
सो दससीस स्वान की नाई ।
इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा ।
रह न तेज बुधि बल लेसा ॥
नाना बिधि करि कथा सुहाई ।
राजनीति भय प्रीति देखाई ॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं ।
बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥
तब रावन निज रूप देखावा ।
भई सभय जब नाम सुनावा ॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा ।
आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा ॥
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा ।
भएसि कालबस निसिचर नाहा ॥
सुनत बचन दससीस रिसाना ।
मन महुँ चरन बंदि सुख माना ॥
दो॰ क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥

हा जग एक बीर रघुराया ।
केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥
आरति हरन सरन सुखदायक ।
हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा ।
सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा ॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही ।
भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा ।
पुरोडास चह रासभ खावा ॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी ।
भए चराचर जीव दुखारी ॥
गीधराज सुनि आरत बानी ।
रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥
अधम निसाचर लीन्हे जाई ।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा ।
करिहउँ जातुधान कर नासा ॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें ।
छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही ।
निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥
आवत देखि कृतांत समाना ।
फिरि दसकंधर कर अनुमाना ॥
की मैनाक कि खगपति होई ।
मम बल जान सहित पति सोई ॥
जाना जरठ जटायू एहा ।
मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ॥
सुनत गीध क्रोधातुर धावा ।
कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू ।
नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥
राम रोष पावक अति घोरा ।
होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥
उतरु न देत दसानन जोधा ।
तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा ।
सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही ।
दंड एक भइ मुरुछा तेही ॥
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना ।
काढ़ेसि परम कराल कृपाना ॥
काटेसि पंख परा खग धरनी ।
सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥
सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी ।
चला उताइल त्रास न थोरी ॥
करति बिलाप जाति नभ सीता ।
ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी ।
कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ ।
बन असोक महँ राखत भयऊ ॥
दो॰ हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ २९(क) ॥

नवान्हपारायण, छठा विश्राम जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम ।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ २९(ख) ॥

रघुपति अनुजहि आवत देखी ।
बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली ।
आयहु तात बचन मम पेली ॥
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं ।
मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी ।
कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ ।
गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥
आश्रम देखि जानकी हीना ।
भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥
हा गुन खानि जानकी सीता ।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥
लछिमन समुझाए बहु भाँती ।
पूछत चले लता तरु पाँती ॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना ।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥
कुंद कली दाड़िम दामिनी ।
कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा ।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं ।
नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू ।
हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं।
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥
एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी ।
मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥
पूरनकाम राम सुख रासी ।
मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥
आगे परा गीधपति देखा ।
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥
दो॰ कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥

तब कह गीध बचन धरि धीरा।
सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही ।
तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई ।
बिलपति अति कुररी की नाई ॥
दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना ।
चलन चहत अब कृपानिधाना ॥
राम कहा तनु राखहु ताता ।
मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥
जा कर नाम मरत मुख आवा ।
अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥
सो मम लोचन गोचर आगें ।
राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥
जल भरि नयन कहहिँ रघुराई ।
तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीँ ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा ।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥
दो॰ सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥
जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥

गीध देह तजि धरि हरि रुपा ।
भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी ।
अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥
छं॰ जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही ।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं ।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं ।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं ।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥
२ ।
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई ।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा ।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी ।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥

दो॰ अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम ।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥

कोमल चित अति दीनदयाला ।
कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥
गीध अधम खग आमिष भोगी ।
गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥
सुनहु उमा ते लोग अभागी ।
हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई ।
चले बिलोकत बन बहुताई ॥
संकुल लता बिटप घन कानन ।
बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥
आवत पंथ कबंध निपाता ।
तेहिं सब कही साप कै बाता ॥
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा ।
प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही ।
मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥
दो॰ मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव ।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥

सापत ताड़त परुष कहंता ।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना ।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥
कहि निज धर्म ताहि समुझावा ।
निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई ।
गयउ गगन आपनि गति पाई ॥
ताहि देइ गति राम उदारा ।
सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥
सबरी देखि राम गृहँ आए ।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥
सरसिज लोचन बाहु बिसाला ।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई ।
सबरी परी चरन लपटाई ॥
प्रेम मगन मुख बचन न आवा ।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥
सादर जल लै चरन पखारे ।
पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥
दो॰ कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि ।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥

पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी ।
प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥
अधम ते अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥
दो॰ गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा ।
निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा ।
मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा ।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना ।
मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई ।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी ।
जानहि कहु करिबरगामिनी ॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई ।
तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा ।
जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥
बार बार प्रभु पद सिरु नाई ।
प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥
छं॰ कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥
दो॰ जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि ।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥

चले राम त्यागा बन सोऊ ।
अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा ।
कहत कथा अनेक संबादा ॥
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा ।
देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥
नारि सहित सब खग मृग बृंदा ।
मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥
हमहि देखि मृग निकर पराहीं ।
मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए ।
कंचन मृग खोजन ए आए ॥
संग लाइ करिनीं करि लेहीं ।
मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥
राखिअ नारि जदपि उर माहीं ।
जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥
देखहु तात बसंत सुहावा ।
प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥
दो॰ बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल ।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥

देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात ।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥

बिटप बिसाल लता अरुझानी ।
बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥
कदलि ताल बर धुजा पताका ।
दैखि न मोह धीर मन जाका ॥
बिबिध भाँति फूले तरु नाना ।
जनु बानैत बने बहु बाना ॥
कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए ।
जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥
कूजत पिक मानहुँ गज माते ।
ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥
मोर चकोर कीर बर बाजी ।
पारावत मराल सब ताजी ॥
तीतिर लावक पदचर जूथा ।
बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥
रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना ।
चातक बंदी गुन गन बरना ॥
मधुकर मुखर भेरि सहनाई ।
त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥
चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें ।
बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥
लछिमन देखत काम अनीका ।
रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥
एहि कें एक परम बल नारी ।
तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥
दो॰ तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥

लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि ।
क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥

गुनातीत सचराचर स्वामी ।
राम उमा सब अंतरजामी ॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई ।
धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥
क्रोध मनोज लोभ मद माया ।
छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला ।
जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।
सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा ।
पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥
संत हृदय जस निर्मल बारी ।
बाँधे घाट मनोहर चारी ॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा ।
जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥
दो॰ पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म ।
मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥

सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं ।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥

बिकसे सरसिज नाना रंगा ।
मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा ।
प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥
चक्रवाक बक खग समुदाई ।
देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥
सुन्दर खग गन गिरा सुहाई ।
जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए ।
चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥
चंपक बकुल कदंब तमाला ।
पाटल पनस परास रसाला ॥
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना ।
चंचरीक पटली कर गाना ॥
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ ।
संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं ।
सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥
दो॰ फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥

देखि राम अति रुचिर तलावा ।
मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥
देखी सुंदर तरुबर छाया ।
बैठे अनुज सहित रघुराया ॥
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए ।
अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला ।
कहत अनुज सन कथा रसाला ॥
बिरहवंत भगवंतहि देखी ।
नारद मन भा सोच बिसेषी ॥
मोर साप करि अंगीकारा ।
सहत राम नाना दुख भारा ॥
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई ।
पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥
यह बिचारि नारद कर बीना ।
गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥
गावत राम चरित मृदु बानी ।
प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥
करत दंडवत लिए उठाई ।
राखे बहुत बार उर लाई ॥
स्वागत पूँछि निकट बैठारे ।
लछिमन सादर चरन पखारे ॥
दो॰ नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि ।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥

सुनहु उदार सहज रघुनायक ।
सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी ।
जद्यपि जानत अंतरजामी ॥
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ ।
जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी ।
जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें ।
अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥
तब नारद बोले हरषाई।
अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका ।
श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका ।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥
दो॰ राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम ।
अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥

अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी ।
पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया ।
मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा ।
प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा ।
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी ।
जिमि बालक राखइ महतारी ॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई ।
तहँ राखइ जननी अरगाई ॥
प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता ।
प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी ।
बालक सुत सम दास अमानी ॥
जनहि मोर बल निज बल ताही ।
दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं ।
पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥
दो॰ काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि ।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥

सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता ।
मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी ।
होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥
काम क्रोध मद मत्सर भेका ।
इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई ।
तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा ।
होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥
पुनि ममता जवास बहुताई ।
पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥
पाप उलूक निकर सुखकारी ।
नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना ।
बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥
दो॰ अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि ।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥

सुनि रघुपति के बचन सुहाए ।
मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती ।
सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी ।
ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद ।
सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा ।
कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ ।
जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥
षट बिकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥
अमितबोध अनीह मितभोगी ।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥
सावधान मानद मदहीना ।
धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥
दो॰ गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥

निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती ।
सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥
जप तप ब्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया ।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना ।
बोध जथारथ बेद पुराना ॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला ।
हेतु रहित परहित रत सीला ॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते ।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥
छं॰ कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे ।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥
सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥
दो॰ रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग ।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥

दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग ।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥
४६(ख) ॥

मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः.

(अरण्यकाण्ड समाप्त)

किष्किन्धाकाण्ड

श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीरामचरितमानस चतुर्थ सोपान ( किष्किन्धाकाण्ड)

श्लोक कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ, मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः || १ ||
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा, संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम || २ ||


सो -
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ||
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय, तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस ||
आगें चले बहुरि रघुराया, रिष्यमूक परवत निअराया ||
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा, आवत देखि अतुल बल सींवा ||
अति सभीत कह सुनु हनुमाना, पुरुष जुगल बल रूप निधाना ||
धरि बटु रूप देखु तैं जाई, कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ||
पठए बालि होहिं मन मैला, भागौं तुरत तजौं यह सैला ||
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ, माथ नाइ पूछत अस भयऊ ||
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा, छत्री रूप फिरहु बन बीरा ||
कठिन भूमि कोमल पद गामी, कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ||
मृदुल मनोहर सुंदर गाता, सहत दुसह बन आतप बाता ||
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ, नर नारायन की तुम्ह दोऊ ||

दो -
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार, की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ||
१ ||
कोसलेस दसरथ के जाए , हम पितु बचन मानि बन आए ||
नाम राम लछिमन दौउ भाई, संग नारि सुकुमारि सुहाई ||
इहाँ हरि निसिचर बैदेही, बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ||
आपन चरित कहा हम गाई, कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ||
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना, सो सुख उमा नहिं बरना ||
पुलकित तन मुख आव न बचना, देखत रुचिर बेष कै रचना ||
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही, हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ||
मोर न्याउ मैं पूछा साईं, तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ||
तव माया बस फिरउँ भुलाना, ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ||

दो -
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान, पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ||
२ ||
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें, सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ||
नाथ जीव तव मायाँ मोहा, सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ||
ता पर मैं रघुबीर दोहाई, जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ||
सेवक सुत पति मातु भरोसें, रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ||
अस कहि परेउ चरन अकुलाई, निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ||
तब रघुपति उठाइ उर लावा, निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ||
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना, तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ||
समदरसी मोहि कह सब कोऊ, सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ||

दो -
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत, मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ||
३ ||
देखि पवन सुत पति अनुकूला, हृदयँ हरष बीती सब सूला ||
नाथ सैल पर कपिपति रहई, सो सुग्रीव दास तव अहई ||
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे, दीन जानि तेहि अभय करीजे ||
सो सीता कर खोज कराइहि, जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ||
एहि बिधि सकल कथा समुझाई, लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ||
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा, अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ||
सादर मिलेउ नाइ पद माथा, भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ||
कपि कर मन बिचार एहि रीती, करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ||

दो -
तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ||
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़ाइ ||
४ ||
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा, लछमिन राम चरित सब भाषा ||
कह सुग्रीव नयन भरि बारी, मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ||
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा, बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ||
गगन पंथ देखी मैं जाता, परबस परी बहुत बिलपाता ||
राम राम हा राम पुकारी, हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ||
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा, पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, तजहु सोच मन आनहु धीरा ||
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई, जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ||

दो -
सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव, कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ||
५ ||
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई, प्रीति रही कछु बरनि न जाई ||
मय सुत मायावी तेहि नाऊँ, आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ||
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा, बाली रिपु बल सहै न पारा ||
धावा बालि देखि सो भागा, मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ||
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई, तब बालीं मोहि कहा बुझाई ||
परिखेसु मोहि एक पखवारा, नहिं आवौं तब जानेसु मारा ||
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी, निसरी रुधिर धार तहँ भारी ||
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई, सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ||
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं, दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ||
बालि ताहि मारि गृह आवा, देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ||
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी, हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ||
ताकें भय रघुबीर कृपाला, सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ||
इहाँ साप बस आवत नाहीं, तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ||
सुनि सेवक दुख दीनदयाला, फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ||

दो -
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान, ब्रम्ह रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ||
६ ||
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ||
निज दुख गिरि सम रज करि जाना, मित्रक दुख रज मेरु समाना ||
जिन्ह कें असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई ||
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ||
देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई ||
बिपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ||
आगें कह मृदु बचन बनाई, पाछें अनहित मन कुटिलाई ||
जा कर चित अहि गति सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ||
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी, कपटी मित्र सूल सम चारी ||
सखा सोच त्यागहु बल मोरें, सब बिधि घटब काज मैं तोरें ||
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा, बालि महाबल अति रनधीरा ||
दुंदुभी अस्थि ताल देखराए, बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ||
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती, बालि बधब इन्ह भइ परतीती ||
बार बार नावइ पद सीसा, प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ||
उपजा ग्यान बचन तब बोला, नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ||
सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ||
ए सब रामभगति के बाधक, कहहिं संत तब पद अवराधक ||
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं, माया कृत परमारथ नाहीं ||
बालि परम हित जासु प्रसादा, मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ||
सपनें जेहि सन होइ लराई, जागें समुझत मन सकुचाई ||
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती, सब तजि भजनु करौं दिन राती ||
सुनि बिराग संजुत कपि बानी, बोले बिहँसि रामु धनुपानी ||
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई, सखा बचन मम मृषा न होई ||
नट मरकट इव सबहि नचावत, रामु खगेस बेद अस गावत ||
लै सुग्रीव संग रघुनाथा, चले चाप सायक गहि हाथा ||
तब रघुपति सुग्रीव पठावा, गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ||
सुनत बालि क्रोधातुर धावा, गहि कर चरन नारि समुझावा ||
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा, ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ||
कोसलेस सुत लछिमन रामा, कालहु जीति सकहिं संग्रामा ||

दो -
कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ, जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ||
७ ||
अस कहि चला महा अभिमानी, तृन समान सुग्रीवहि जानी ||
भिरे उभौ बाली अति तर्जा , मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ||
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा, मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ||
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला, बंधु न होइ मोर यह काला ||
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ, तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ||
कर परसा सुग्रीव सरीरा, तनु भा कुलिस गई सब पीरा ||
मेली कंठ सुमन कै माला, पठवा पुनि बल देइ बिसाला ||
पुनि नाना बिधि भई लराई, बिटप ओट देखहिं रघुराई ||

दो -
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि, मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ||
८ ||
परा बिकल महि सर के लागें, पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें ||
स्याम गात सिर जटा बनाएँ, अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ ||
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा, सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ||
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा, बोला चितइ राम की ओरा ||
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई, मारेहु मोहि ब्याध की नाई ||
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा, अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ||
अनुज बधू भगिनी सुत नारी, सुनु सठ कन्या सम ए चारी ||
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई ||
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना, नारि सिखावन करसि न काना ||
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी, मारा चहसि अधम अभिमानी ||

दो -
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि, प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ||
९ ||
सुनत राम अति कोमल बानी, बालि सीस परसेउ निज पानी ||
अचल करौं तनु राखहु प्राना, बालि कहा सुनु कृपानिधाना ||
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं ||
जासु नाम बल संकर कासी, देत सबहि सम गति अविनासी ||
मम लोचन गोचर सोइ आवा, बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ||
छं -
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं, जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं ||
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही, अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ||
१ ||
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ, जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ||
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ, गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ||
२ ||

दो -
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग, सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ||
१० ||
राम बालि निज धाम पठावा, नगर लोग सब ब्याकुल धावा ||
नाना बिधि बिलाप कर तारा, छूटे केस न देह सँभारा ||
तारा बिकल देखि रघुराया , दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ||
छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित अति अधम सरीरा ||
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा, जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ||
उपजा ग्यान चरन तब लागी, लीन्हेसि परम भगति बर मागी ||
उमा दारु जोषित की नाई, सबहि नचावत रामु गोसाई ||
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा, मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ||
राम कहा अनुजहि समुझाई, राज देहु सुग्रीवहि जाई ||
रघुपति चरन नाइ करि माथा, चले सकल प्रेरित रघुनाथा ||

दो -
लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज, राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ||
११ ||
उमा राम सम हित जग माहीं, गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ||
सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ||
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती, तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ||
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ, अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ||
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं, काहे न बिपति जाल नर परहीं ||
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई, बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ||
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा, पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ||
गत ग्रीषम बरषा रितु आई, रहिहउँ निकट सैल पर छाई ||
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू, संतत हृदय धरेहु मम काजू ||
जब सुग्रीव भवन फिरि आए, रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ||

दो -
प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ, राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ||
१२ ||
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा, गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ||
कंद मूल फल पत्र सुहाए, भए बहुत जब ते प्रभु आए ||
देखि मनोहर सैल अनूपा, रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ||
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा, करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ||
मंगलरुप भयउ बन तब ते , कीन्ह निवास रमापति जब ते ||
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई, सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ||
कहत अनुज सन कथा अनेका, भगति बिरति नृपनीति बिबेका ||
बरषा काल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए ||

दो -
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि, गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ||
१३ ||
घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा ||
दामिनि दमक रह न घन माहीं, खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ||
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ, जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ||
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें , खल के बचन संत सह जैसें ||
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई, जस थोरेहुँ धन खल इतराई ||
भूमि परत भा ढाबर पानी, जनु जीवहि माया लपटानी ||
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा, जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ||
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई, होई अचल जिमि जिव हरि पाई ||

दो -
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ, जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ||
१४ ||
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई, बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ||
नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें बिबेका ||
अर्क जबास पात बिनु भयऊ, जस सुराज खल उद्यम गयऊ ||
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी, करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ||
ससि संपन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै संपति जैसी ||
निसि तम घन खद्योत बिराजा, जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ||
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं , जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ||
कृषी निरावहिं चतुर किसाना, जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ||
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं, कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ||
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा, जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ||
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा, प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ||
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना, जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ||

दो -
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं, जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ||
१५(क) ||
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग, बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ||
१५(ख) ||
बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई ||
फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ||
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा, जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ||
सरिता सर निर्मल जल सोहा, संत हृदय जस गत मद मोहा ||
रस रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ||
जानि सरद रितु खंजन आए, पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ||
पंक न रेनु सोह असि धरनी, नीति निपुन नृप कै जसि करनी ||
जल संकोच बिकल भइँ मीना, अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ||
बिनु धन निर्मल सोह अकासा, हरिजन इव परिहरि सब आसा ||
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी, कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ||

दो -
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि, जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ||
१६ ||
सुखी मीन जे नीर अगाधा, जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ||
फूलें कमल सोह सर कैसा, निर्गुन ब्रम्ह सगुन भएँ जैसा ||
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा, सुंदर खग रव नाना रूपा ||
चक्रबाक मन दुख निसि पैखी, जिमि दुर्जन पर संपति देखी ||
चातक रटत तृषा अति ओही, जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही ||
सरदातप निसि ससि अपहरई, संत दरस जिमि पातक टरई ||
देखि इंदु चकोर समुदाई, चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ||
मसक दंस बीते हिम त्रासा, जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ||

दो -
भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ, सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ||
१७ ||
बरषा गत निर्मल रितु आई, सुधि न तात सीता कै पाई ||
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं, कालहु जीत निमिष महुँ आनौं ||
कतहुँ रहउ जौं जीवति होई, तात जतन करि आनेउँ सोई ||
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी, पावा राज कोस पुर नारी ||
जेहिं सायक मारा मैं बाली, तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ||
जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा, ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ||
जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी, जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ||
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना, धनुष चढ़ाइ गहे कर बाना ||

दो -
तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ||
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ||
१८ ||
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा, राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ||
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा, चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ||
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना, बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ||
अब मारुतसुत दूत समूहा, पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ||
कहहु पाख महुँ आव न जोई, मोरें कर ता कर बध होई ||
तब हनुमंत बोलाए दूता, सब कर करि सनमान बहूता ||
भय अरु प्रीति नीति देखाई, चले सकल चरनन्हि सिर नाई ||
एहि अवसर लछिमन पुर आए, क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ||

दो -
धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार, ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ||
१९ ||
चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही, लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ||
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना, कह कपीस अति भयँ अकुलाना ||
सुनु हनुमंत संग लै तारा, करि बिनती समुझाउ कुमारा ||
तारा सहित जाइ हनुमाना, चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ||
करि बिनती मंदिर लै आए, चरन पखारि पलँग बैठाए ||
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा, गहि भुज लछिमन कंठ लगावा ||
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं, मुनि मन मोह करइ छन माहीं ||
सुनत बिनीत बचन सुख पावा, लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ||
पवन तनय सब कथा सुनाई, जेहि बिधि गए दूत समुदाई ||

दो -
हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ, रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ||
२० ||
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी, नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ||
अतिसय प्रबल देव तब माया, छूटइ राम करहु जौं दाया ||
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी, मैं पावँर पसु कपि अति कामी ||
नारि नयन सर जाहि न लागा, घोर क्रोध तम निसि जो जागा ||
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया, सो नर तुम्ह समान रघुराया ||
यह गुन साधन तें नहिं होई, तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ||
तब रघुपति बोले मुसकाई, तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ||
अब सोइ जतनु करहु मन लाई, जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ||

दो -
एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ, नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ||
२१ ||
बानर कटक उमा में देखा, सो मूरुख जो करन चह लेखा ||
आइ राम पद नावहिं माथा, निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ||
अस कपि एक न सेना माहीं, राम कुसल जेहि पूछी नाहीं ||
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई, बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ||
ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई, कह सुग्रीव सबहि समुझाई ||
राम काजु अरु मोर निहोरा, बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ||
जनकसुता कहुँ खोजहु जाई, मास दिवस महँ आएहु भाई ||
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ, आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ ||

दो -
बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत , तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत ||
२२ ||
सुनहु नील अंगद हनुमाना, जामवंत मतिधीर सुजाना ||
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू, सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ||
मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु, रामचंद्र कर काजु सँवारेहु ||
भानु पीठि सेइअ उर आगी, स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ||
तजि माया सेइअ परलोका, मिटहिं सकल भव संभव सोका ||
देह धरे कर यह फलु भाई, भजिअ राम सब काम बिहाई ||
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी , जो रघुबीर चरन अनुरागी ||
आयसु मागि चरन सिरु नाई, चले हरषि सुमिरत रघुराई ||
पाछें पवन तनय सिरु नावा, जानि काज प्रभु निकट बोलावा ||
परसा सीस सरोरुह पानी, करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ||
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु, कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ||
हनुमत जन्म सुफल करि माना, चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ||
जद्यपि प्रभु जानत सब बाता, राजनीति राखत सुरत्राता ||

दो -
चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह, राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ||
२३ ||
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा, प्रान लेहिं एक एक चपेटा ||
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं, कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं ||
लागि तृषा अतिसय अकुलाने, मिलइ न जल घन गहन भुलाने ||
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना, मरन चहत सब बिनु जल पाना ||
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा, भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ||
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं, बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ||
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा, सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ||
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा, पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ||

दो -
दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज, मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ||
२४ ||
दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा, पूछें निज बृत्तांत सुनावा ||
तेहिं तब कहा करहु जल पाना, खाहु सुरस सुंदर फल नाना ||
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए, तासु निकट पुनि सब चलि आए ||
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई, मैं अब जाब जहाँ रघुराई ||
मूदहु नयन बिबर तजि जाहू, पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ||
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा, ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा ||
सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा, जाइ कमल पद नाएसि माथा ||
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही, अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ||

दो -
बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस , उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस ||
२५ ||
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं, बीती अवधि काज कछु नाहीं ||
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता, बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ||
कह अंगद लोचन भरि बारी, दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ||
इहाँ न सुधि सीता कै पाई, उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ||
पिता बधे पर मारत मोही, राखा राम निहोर न ओही ||
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं, मरन भयउ कछु संसय नाहीं ||
अंगद बचन सुनत कपि बीरा, बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ||
छन एक सोच मगन होइ रहे, पुनि अस वचन कहत सब भए ||
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना, नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ||
अस कहि लवन सिंधु तट जाई, बैठे कपि सब दर्भ डसाई ||
जामवंत अंगद दुख देखी, कहिं कथा उपदेस बिसेषी ||
तात राम कहुँ नर जनि मानहु, निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु ||

दो -
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि, सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ||
२६ ||
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ||
बाहेर होइ देखि बहु कीसा, मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ||
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ, दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ||
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा, आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ||
डरपे गीध बचन सुनि काना, अब भा मरन सत्य हम जाना ||
कपि सब उठे गीध कहँ देखी, जामवंत मन सोच बिसेषी ||
कह अंगद बिचारि मन माहीं, धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ||
राम काज कारन तनु त्यागी , हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ||
सुनि खग हरष सोक जुत बानी , आवा निकट कपिन्ह भय मानी ||
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई, कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ||
सुनि संपाति बंधु कै करनी, रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ||

दो -
मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि , बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ||
२७ ||
अनुज क्रिया करि सागर तीरा, कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ||
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई , गगन गए रबि निकट उडाई ||
तेज न सहि सक सो फिरि आवा , मै अभिमानी रबि निअरावा ||
जरे पंख अति तेज अपारा , परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ||
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही, लागी दया देखी करि मोही ||
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा , देहि जनित अभिमानी छड़ावा ||
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही, तासु नारि निसिचर पति हरिही ||
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता, तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ||
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता , तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ||
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू , सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ||
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका , तहँ रह रावन सहज असंका ||
तहँ असोक उपबन जहँ रहई ||
सीता बैठि सोच रत अहई ||

दो -
मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ||
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ||
२८ ||
जो नाघइ सत जोजन सागर , करइ सो राम काज मति आगर ||
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा , राम कृपाँ कस भयउ सरीरा ||
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं, अति अपार भवसागर तरहीं ||
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई, राम हृदयँ धरि करहु उपाई ||
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ, तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ ||
निज निज बल सब काहूँ भाषा, पार जाइ कर संसय राखा ||
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा, नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ||
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी, तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ||

दो -
बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई, उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ||
२९ ||
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा, जियँ संसय कछु फिरती बारा ||
जामवंत कह तुम्ह सब लायक, पठइअ किमि सब ही कर नायक ||
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना, का चुप साधि रहेहु बलवाना ||
पवन तनय बल पवन समाना, बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ||
कवन सो काज कठिन जग माहीं, जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ||
राम काज लगि तब अवतारा, सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ||
कनक बरन तन तेज बिराजा, मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ||
सिंहनाद करि बारहिं बारा, लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा ||
सहित सहाय रावनहि मारी, आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ||
जामवंत मैं पूँछउँ तोही, उचित सिखावनु दीजहु मोही ||
एतना करहु तात तुम्ह जाई, सीतहि देखि कहहु सुधि आई ||
तब निज भुज बल राजिव नैना, कौतुक लागि संग कपि सेना ||
छं -
\-कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं, त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ||
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई, रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ||

दो -
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि, तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ||
३०(क) ||
सो -
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक, सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ||
३०(ख) ||


मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम \-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-\-

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः, (किष्किन्धाकाण्ड समाप्त)

सुन्दरकाण्ड

॥ अथ तुलसीदास कृत रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ॥

श्रीगणेशाय नमः

श्रीजानकीवल्लभोविजयते

श्रीरामचरितमानस
पञ्चम सोपान
सुन्दरकाण्ड

श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥ १ ॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥

जामवंत के बचन सुहाए ।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई ।
सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥ १ ॥
जब लगि आवौं सीतहि देखी ।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥
यह कह नाइ सबन्हि कहुँ माथा ।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥ २ ॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर ।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार बार रघुबीर सँभारी ।
तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥ ३ ॥
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता ।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना ।
एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥ ४ ॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी ।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥ ५ ॥

दोहा
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ॥ १ ॥

जात पवनसुत देवन्ह देखा ।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता ।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता ॥ १ ॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा ।
सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं ।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ २ ॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई ।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना ।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥ ३ ॥
जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा ।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ ॥ ४ ॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा ।
तासु दून कपि रूप देखावा ॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा ।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥ ५ ॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा ।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा ।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा ॥ ६ ॥

दोहा
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥ २ ॥

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ॥ करि माया नभु के खग गहई ॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं ।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥ १ ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई ।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा ।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥ २ ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा ।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा ।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥ ३ ॥
नाना तरु फल फूल सुहाए ।
खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥
सैल बिसाल देखि एक आगें ।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥ ४ ॥
उमा न कछु कपि कै अधिकाई ॥ प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी ।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥ ५ ॥
अति उतंग जलनिधि चहु पासा ।
कनक कोटि कर परम प्रकासा ॥ ६ ॥

छंद
कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना ।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना ॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै ।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै ॥ १ ॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं ।
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं ।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं ॥ २ ॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही ।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही ॥ ३ ॥

दोहा
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार ॥ ३ ॥

मसक समान रूप कपि धरी ।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी ।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥ १ ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा ।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी ।
रुधिर बमत धरनीं डनमनी ॥ २ ॥
पुनि संभारि उठी सो लंका ।
जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा ।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥ ३॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे ।
तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुन्य बहूता ।
देखेउँ नयन राम कर दूता ॥ ४ ॥

दोहा
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा ।
हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई ।
गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥ १ ॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही ।
राम कृपा करि चितवा जाही ॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना ।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ २ ॥
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा ।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयउ दसानान मंदिर माहीं ।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥ ३ ॥
सयन किएँ देखा कपि तेही ।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा ।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥ ४ ॥

दोहा
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ॥ ५ ॥

लंका निसिचर निकर निवासा ।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा ।
तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥ १ ॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा ।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी ।
साधु ते होइ न कारज हानी ॥ २ ॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए ।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई ।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥ ३ ॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई ।
मोरें हृदय प्रीति अति होई ॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी ।
आयहु मोहि करन बड़भागी ॥ ४ ॥

दोहा
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥ ६ ॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी ।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा ।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥ १ ॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं ।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता ।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा ।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती ।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥ ३ ॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना ।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा ।
तेहि दिन ताहि न मिले अहारा ॥ ४ ॥

दोहा
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥ ७ ॥

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी ।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा ।
पावा अनिर्बाच्य विश्रामा ॥ १ ॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही ।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता ।
देखी चलेउँ जानकी माता ॥ २ ॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई ।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ ।
बन असोक सीता रह जहवाँ ॥ ३ ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा ।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा ॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी ।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ॥ ४ ॥

दोहा
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥ ८ ॥

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई ।
करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा ।
संग नारि बहु किएँ बनावा ॥ १ ॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा ।
साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी ।
मंदोदरी आदि सब रानी ॥ २ ॥
तव अनुचरीं करेउँ पन मोरा ।
एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही ।
सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥ ३ ॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा ।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहति जानकी ।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥ ४ ॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही ।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥ ५ ॥

दोहा
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥ ९ ॥

सीता तैं मम कृत अपमाना ।
कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना ॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी ।
सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥ १ ॥
स्याम सरोज दाम सम सुंदर ।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर ॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा ।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥ २ ॥
चंद्रहास हरु मम परितापं ।
रघुपति बिरह अनल संजातं ॥
सीतल निसित बहसि बर धारा ।
कह सीता हरु मम दुख भारा ॥ ३ ॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा ।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई ।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥ ४ ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना ।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥ ५ ॥

दोहा
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद ।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥ १० ॥

त्रिजटा नाम राच्छसी एका ।
राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना ।
सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥ १ ॥
सपनें बानर लंका जारी ।
जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा ।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ २ ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई ।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई ।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥ ३ ॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी ।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं ।
जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥ ४ ॥

दोहा
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥ ११ ॥

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी ।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥
तजौं देह करु बेगि उपाई ।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥ १ ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई ।
मातु अनल पुनि देहु लगाई ॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी ।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥ २ ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि ।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी ।
अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥ ३ ॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला ।
मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा ।
अवनि न आवत एकउ तारा ॥ ४ ॥
पावकमय ससि स्रवत न आगी ।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका ।
सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥ ५ ॥
नूतन किसलय अनल समाना ।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता ।
सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥ ६ ॥

दोहा
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥ १२ ॥

तब देखी मुद्रिका मनोहर ।
राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी ।
हरष विषाद हृदयँ अकुलानी ॥ १ ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई ।
माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना ।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥ २ ॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा ।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई ।
आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥ ३ ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई ।
कही सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥ ४ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी ।
सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी ।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥ ५ ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें ।
कही कथा भई संगति जैसें ॥ ६ ॥

दोहा
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥ १३ ॥

हरिजन हानि प्रीति अति गाढ़ी ।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना ।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना ॥ १ ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी ।
अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई ।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ २ ॥
सहज बानि सेवक सुख दायक ।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता ।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ॥ ३ ॥
बचनु न आव नयन भरे बारी ।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता ।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥ ४ ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता ।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना ।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥ ५ ॥

दोहा
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥ १४ ॥

कहेउ राम बियोग तव सीता ।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू ।
कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥ १ ॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा ।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा ।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥ २ ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई ।
काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा ।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥ ३ ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं ।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही ।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥ ४ ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता ।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई ।
सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥ ५ ॥

दोहा
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥ १५ ॥

जौं रघुबीर होति सुधि पाई ।
करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
राम बान रबि उएँ जानकी ।
तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥ १ ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई ।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा ।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥ २ ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं ।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना ।
जातुधान अति भट बलवाना ॥ ३ ॥
मोरें हृदय परम संदेहा ।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा ।
समर भयंकर अतिबल बीरा ॥ ४ ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥ ५ ॥

दोहा
सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥ १६ ॥

मन संतोष सुनत कपि बानी ।
भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना ।
होहु तात बल सील निधाना ॥ १ ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू ।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना ।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ २ ॥
बार बार नाएसि पद सीसा ।
बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता ।
आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥ ३ ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा ।
लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी ।
परम सुभट रजनीचर भारी ॥ ४ ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं ।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥ ५ ॥

दोहा
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥ १७ ॥

चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा ।
फल खाएसि तरु तौरैं लागा ॥
रहे तहां बहु भट रखवारे ।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥ १ ॥
नाथ एक आवा कपि भारी ।
तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे ।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥ २ ॥
सुनि रावन पठए भट नाना ।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे ।
गए पुकारत कछु अधमारे ॥ ३ ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा ।
चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा ।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥ ४ ॥

दोहा
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥ १८ ॥

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना ।
पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही ।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥ १ ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा ।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा ।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥ २ ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा ।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा ।
गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥ ३ ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा ।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई ।
ताहि एक छन मुरुछा आई ॥ ४ ॥
उठि बहोरि कीन्हसि बहु माया ।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥ ५ ॥

दोहा
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥ १९ ॥

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा ।
परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ ।
नागपास बांधेसि लै गयउ ॥ १ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी ।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा ।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥ २ ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए ।
कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई ।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥ ३ ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता ।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका ।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥ ४ ॥

दोहा
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥ २० ॥

कह लंकेस कवन तैं कीसा ।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही ।
देखउँ अति असंक सठ तोही ॥ १ ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा ।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया ।
पाइ जासु बल बिरचित माया ॥ २ ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा ।
पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन ।
अंडकोस समेत गिरि कानन ॥ ३ ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता ।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा ।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥ ४ ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली ।
बधे सकल अतुलित बलसाली ॥ ५ ॥

दोहा
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥ २१ ॥

जानेउ मैं तुम्हारि प्रभुताई ।
सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा ।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥ १ ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा ।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी ।
मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥ २ ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे ।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा ।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ ३ ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन ।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी ।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥ ४ ॥
जाकें डर अति काल डेराई ।
जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै ।
मोरे कहें जानकी दीजै ॥ ५ ॥

दोहा
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥ २२ ॥

राम चरन पंकज उर धरहू ।
लंकाँ अचल राज तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका ।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥ १ ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा ।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी ।
सब भूषन भूषित बर नारी ॥ २ ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई ।
जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं ।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥ ३ ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी ।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही ।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥ ४ ॥

दोहा
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥ २३ ॥

जदपि कही कपि अति हित बानी ।
भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥
बोला बिहसि महा अभिमानी ।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥ १ ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही ।
लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना ।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥ २ ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना ।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥
सुनत निसाचर मारन धाए ।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥ ३ ॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता ।
नीति बिरोधा न मारिअ दूता ॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई ।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥ ४ ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर ।
अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥ ५ ॥

दोहा
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥ २४ ॥

पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि ।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई ।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥ १ ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना ।
भइ सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना ।
लागे रचें मूढ़ सोइ रचना ॥ २ ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला ।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी ।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ ३ ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी ।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥
पावक जरत देखि हनुमंता ।
भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥ ४ ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं ।
भइँ सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥

दोहा
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥ २५ ॥

देह बिसाल परम हरुआई ।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला ।
झपट लपट बहु कोटि कराला ॥ १ ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा ।
एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई ।
बानर रूप धरें सुर कोई ॥ २ ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा ।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
जारा नगर निमिष एक माहीं ।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥ ३ ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा ।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी ।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥ ४ ॥

दोहा
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि ।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥ २६ ॥

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा ।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥ १ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा ।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥
दीन दयाल बिरिदु सँभारी ।
हरहु नाथ मम संकट भारी ॥ २ ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु ।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥
मास दिवस महुँ नाथ न आवा ।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥ ३ ॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना ।
तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती ।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥ ४ ॥

दोहा
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥ २७ ॥

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी ।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा ।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥ १ ॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना ।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा ।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥ २ ॥
मिले सकल अति भए सुखारी ।
तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा ।
पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ ३ ॥
तब मधुबन भीतर सब आए ।
अंगद संमत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥ ४ ॥

दोहा
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।
सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥ २८ ॥

जौं न होति सीता सुधि पाई ।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा ।
आइ गए कपि सहित समाजा ॥ १ ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा ।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी ।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥ २ ॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना ।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥ ३ ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा ।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई ।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥ ४ ॥

दोहा
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज ।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥ २९॥

जामवंत कह सुनु रघुराया ।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर ।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥ १ ॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर ।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सब काजू ।
जन्म हमार सुफल भा आजू ॥ २ ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी ।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए ।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥ ३ ॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए ।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी ।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥ ४ ॥

दोहा
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥ ३० ॥

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही ।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी ।
बचन कहे कछु जनककुमारी ॥ १ ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना ।
दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी ।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥ २॥
अवगुन एक मोर मैं माना ।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा ।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥ ३ ॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा ।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी ।
जरैं न पाव देह बिरहागी ॥ ४ ॥
सीता कै अति बिपति बिसाला ।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥ ५ ॥

दोहा
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥ ३१ ॥

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना ।
भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन कायँ मन मम गति जाही ।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥ १ ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की ।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥ २ ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी ।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा ।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥ ३ ॥
सुनु सत तोहि उरिन मैं नाहीं ।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता ।
लोचन नीर पुलक अति गाता ॥ ४ ॥

दोहा
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥ ३२ ॥

बार बार प्रभु चहइ उठावा ।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा ।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥ १ ॥
सावधान मन करि पुनि संकर ।
लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा ।
कर गहि परम निकट बैठावा ॥ २ ॥
कहु कपि रावन पालित लंका ।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना ।
बोला बचन बिगत हनुमाना ॥ ३ ॥
साखामृग कै बड़ि मनुसाई ।
साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा ।
निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ॥ ४ ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई ।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥ ५ ॥

दोहा
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥ ३३ ॥

नाथ भगति अति सुखदायनी ।
देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी ।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥ १ ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना ।
ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संबाद जासु उर आवा ।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥ २ ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा ।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा ।
कहा चलैं कर करहु बनावा ॥ ३ ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे ।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी ।
नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥ ४ ॥

दोहा
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥ ३४ ॥

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा ।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना ।
चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥ १ ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा ।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना ।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥ २ ॥
जासु सकल मंगलमय कीती ।
तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं ।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥ ३ ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई ।
असगुन भयउ रावनहि सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा ।
गर्जहिं बानर भालु अपारा ॥ ४ ॥
नख आयुध गिरि पादपधारी ।
चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं ।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥ ५ ॥

छंद
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥ १ ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥ २ ॥

दोहा
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥ ३५ ॥

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका ।
जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृह सब करहिं बिचारा ।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥ १ ॥
जासु दूत बल बरनि न जाई ।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी ।
मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥ २ ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी ।
बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू ।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥ ३ ॥
समुझत जासु दूत कइ करनी ।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई ।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥ ४ ॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदायई ।
सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें ।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥ ५ ॥

दोहा
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ ३६ ॥

श्रवन सुनि सठ ता करि बानी ।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा ।
मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥ १ ॥
जों आवइ मर्कट कटकाई ।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा ।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥ २ ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई ।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता ।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥ ३ ॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई ।
सिंधु पार सेना सब आई ॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहेहू ।
ते सब हँसे मष्ट करि रहेहू ॥ ४ ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं ।
नर बानर केहि लेखे माहीं ॥ ५ ॥

दोहा
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥ ३७ ॥

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई ।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा ।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥ १ ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन ।
बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता ।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥ २ ॥
जो आपन चाहै कल्याना ।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥
सो परनारि लिलार गोसाई ।
तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥ ३ ॥
चौदह भुवन एक पति होई ।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥ ४ ॥

दोहा
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥ ३८ ॥

तात राम नहिं नर भूपाला ।
भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता ।
ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥ १ ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी ।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता ।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥ २ ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा ।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही ।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥ ३ ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा ।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन ।
सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥ ४ ॥

दोहा
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥ ३९ क ॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥ ३९ ख ॥

माल्यवंत अति सचिव सयाना ।
तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन ।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥ १ ॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी ।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥ २ ॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं ।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना ।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥ ३ ॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता ।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥
कालराति निसिचर कुल केरी ।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥ ४ ॥

दोहा
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥ ४० ॥

बुध पुरान श्रुति संमत बानी ।
कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई ।
खल तोहि निकट मृत्य अब आई ॥ १ ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा ।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥
कहसि न खल अस को जग माहीं ।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ॥ २ ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती ।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा ।
अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥ ३ ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई ।
मंद करत जो करइ भलाई ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा ।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥ ४ ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥ ५ ॥

दोहा
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥ ४१ ॥

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं ।
आयूहीन भए सब तबहीं ॥
साधु अवग्या तुरत भवानी ।
कर कल्यान अखिल कै हानी ॥ १ ॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा ।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं ।
करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥ २ ॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता ।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥
जे पद पसरि तरी रिषिनारी ।
दंड़क कानन पावनकारी ॥ ३ ॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए ।
कपट कुरंग संग धर धाए ॥
हर उर सर सरोज पद जेई ।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई ॥ ४ ॥

दोहा
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥ ४२ ॥

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा ।
आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा ।
जान कोउ रिपु दूत बिसेषा ॥ १ ॥
ताहि राखि कपीस पहिं आए ।
समाचार सब ताहि सुनाए ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई ।
आवा मिलन दसानन भाई ॥ २ ॥
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा ।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ॥
जानि न जाइ निसाचर माया ।
कामरूप केहि कारन आया ॥ ३ ॥
भेद हमार लेन सठ आवा ।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी ।
मम पन सरनागत भयहारी ॥ ४ ॥
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना ।
सरनागत बच्छल भगवाना ॥ ५ ॥

दोहा
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ ४३ ॥

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू ।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥ १ ॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ ।
भजहु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई ।
मोरें सनमुख आव कि सोई ॥ २ ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भेद लेन पठवा दससीसा ।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥ ३ ॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते ।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥
जो सभीत आवा सरनाईं ।
राखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ॥ ४ ॥

दोहा
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत ।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥ ४४ ॥

सादर तेहि आगें करि बानर ।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता ।
नयनानंद दान के दाता ॥ १ ॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी ।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन ।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥ २ ॥
सिंघ कंध आयत उर सोहा ।
आनन अमित मदन मन मोहा ॥
नयन नीर पुलकित अति गाता ।
मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥ ३ ॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता ।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥
सहज पापप्रिय तामस देहा ।
जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥ ४ ॥

दोहा
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥ ४५ ॥

अस कहि करत दंडवत देखा ।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा ।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥ १ ॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी ।
बोले बचन भगत भय हारी ॥
कहु लंकेस सहित परिवारा ।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥ २ ॥
खल मंडलीं बसहु दिन राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती ।
अति नय निपुन न भाव अनीती ॥ ३ ॥
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
अब पद देखि कुसल रघुराया ।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ॥ ४ ॥

दोहा
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥ ४६ ॥

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना ।
लोभ मोह मच्छर मद माना ॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा ।
धरें चाप सायक कटि भाथा ॥ १ ॥
ममता तरुन तमी अँधिआरी ।
राग द्वेष उलूक सुखकारी ॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं ।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ॥ २ ॥
अब मैं कुसल मिटे भय भारे ।
देखि राम पद कमल तुम्हारे ॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला ।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ॥ ३ ॥
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा ।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ॥ ४ ॥

दोहा
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज ।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥ ४७ ॥

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही ।
आवौ सभय सरन तकि मोही ॥ १ ॥
तजि मद मोह कपट छल नाना ।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥
जननी जनक बंधु सुत दारा ।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥ २ ॥
सब कै ममता ताग बटोरी ।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं ।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥ ३ ॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें ।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें ।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥ ४ ॥

दोहा
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ ४८ ॥

सुन लंकेस सकल गुन तोरें ।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥
राम बचन सुनि बानर जूथा ।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥ १ ॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी ।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा ।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥ २ ॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी ।
प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥
उर कछु प्रथम बासना रही ।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥ ३ ॥
अब कृपाल निज भगति पावनी ।
देहु सदा सिव मन भावनी ॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा ।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥ ४ ॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं ।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा ।
सुमन वृष्टि नभ भई अपारा ॥ ५ ॥

दोहा
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥ ४९ क ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥ ४९ ख ॥

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना ।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥
निज जन जानि ताहि अपनावा ।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥ १ ॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी ।
सर्बरूप सब रहित उदासी ॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक ।
कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥ २ ॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा ।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥
संकुल मकर उरग झष जाती ।
अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥ ३ ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक ।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई ।
बिनय करिअ सागर सन जाई ॥ ४ ॥

दोहा
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥ ५० ॥

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई ।
करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा ।
राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥ १ ॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा ।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा ।
दैव दैव आलसी पुकारा ॥ २ ॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा ।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई ।
सिंधि समीप गए रघुराई ॥ ३ ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई ।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए ।
पाछें रावन दूत पठाए ॥ ४ ॥

दोहा
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥ ५१ ॥

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने ।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥ १ ॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर ।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए ।
बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥ २ ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे ।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना ।
तेहि कोसलाधीस कै आना ॥ ३ ॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए ।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती ।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥ ४ ॥

दोहा
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥ ५२ ॥

तुरत नाइ लछिमन पद माथा ।
चले दूत बरनत गुन गाता ॥
कहत राम जसु लंकाँ आए ।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥ १ ॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता ।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी ।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥ २ ॥
करत राज लंका सठ त्यागी ।
होइहि जव कर कीट अभागी ॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई ।
कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥ ३ ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा ।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी ।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥ ४ ॥

दोहा
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर ।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥ ५३ ॥

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें ।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा ।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥ १ ॥
रावन दूत हमहि सुनि काना ।
कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ॥
श्रवन नासिका काटैं लागे ।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ॥ २ ॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई ।
बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥
नाना बरन भालु कपि धारी ।
बिकटानन बिसाल भयकारी ॥ ३ ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा ।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥
अमित नाम भट कठिन कराला ।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥ ४ ॥

दोहा
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥ ५४ ॥

ए कपि सब सुग्रीव समाना ।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं ।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥ १ ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर ।
पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं ।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥ २ ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा ।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला ।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥ ३ ॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा ।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका ।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥ ४ ॥

दोहा
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम ।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥ ५५ ॥

राम तेज बल बुधि बिपुलाई ।
सेष सहस सत सकहिं न गाई ॥
सक सर एक सोषि सत सागर ।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥ १ ॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं ।
मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा ।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥ २ ॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई ।
सागर सन ठानी मचलाई ॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई ।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥ ३ ॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें ।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी ।
समय बिचार पत्रिका काढ़ी ॥ ४ ॥
रामानुज दीन्ही यह पाती ।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन ।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥ ५ ॥

दोहा
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥ ५६ क ॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥ ५६ ख ॥

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई ।
कहत दसानन सबहि सुनाई ॥
भूमि परा कर गहत अकासा ।
लघु तापस कर बाग बिलासा ॥ १ ॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी ।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा ।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥ २ ॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही ।
उर अपराध न एकउ धरही ॥ ३ ॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे ।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे ॥
जब तेहि कहा देन बैदेही ।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥ ४ ॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई ।
राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥ ५ ॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी ।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥
बंदि राम पद बारहिं बारा ।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥ ६ ॥

दोहा
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति ।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥ ५७ ॥

लछिमन बान सरासन आनू ।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती ।
सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥ १ ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी ।
अति लोभी सन बिरति बखानी ॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा ।
ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥ २ ॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा ।
यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला ।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥ ३ ॥
मकर उरग झष गन अकुलाने ।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥
कनक थार भरि मनि गन नाना ।
बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥ ४ ॥

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच ।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥ ५८ ॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे ।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥
गगन समीर अनल जल धरनी ।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥ १ ॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए ।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई ।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ॥ २ ॥
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही ।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी ।
सकल ताड़ना के अधिकारी ॥ ३ ॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई ।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई ।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥ ४ ॥

दोहा
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ ।
जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥ ५९ ॥

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई ।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई ।
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे ।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥ १ ॥
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई ।
करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥ २ ॥
एहिं सर मम उत्तर तट बासी ।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा ।
तुरतहिं हरी राम रन धीरा ॥ ३ ॥
देखि राम बल पौरुष भारी ।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा ।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥ ४ ॥

छंद
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥

दोहा
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥ ६० ॥

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।

॥ सियावर रामचन्द्र की जै ॥