पुण्य प्रकाश-पुंज श्रद्धा
नव भोर आश में
सुखद शान्ति शुचि-सरल   
प्रकृति की आकांक्षाएं .....
और ज्ञान नव ज्योति प्रस्फुटित 
हर्षित अभिनव आस भविष्तत के सपनों में
पुरुष स्तब्ध है
क्षुब्ध-क्लान्त तन-मन उद्वेलित 
किन्तु सिमटती वृत्ति 
महत्वाकांक्षाएं फिसलीं ..... 
आगंतव्य पथ, लक्ष्यहीन गति
मति छला-बल-दुराव-सी सकुची
दिखें घिरोंदों की हरियाली .....
मानस-भवन दुखों से घिरता चला जा रहा 
और संस्कृति एक किताबी पन्ना सिकुडा
कोई-कोई जिसे कभी दुहरा लेता है
मानो पुण्य कमा लेता है
किन्तु इस तरह और कब तलक 
यह धरती कब तक पीती जायेगी घूंट जहर के
कुछ तो आख़िर समय-सारथी की भी सुन लो 
भारतीय संस्कृति के उदगाता
अब प्रकटो !
आज तिम्हारे दरस-परस को 
यह स्वदेश की धरती कितनी विवश विकल है
सौम्य विवेकानन्द अवतरो
अपनी वाणी के निर्भय स्वर
फिर गुन्जारो !!      
 
Very good poem.
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