Thursday, January 31, 2008

प्रेम

मैंने जब प्रेम किया
तुझसे
साक्षी तब
मेरा बचपन था
सच्ची कोमलता में
रचा बसा
वह शान्त हृदय पावन मन था ।

वे स्वप्न सुखद
संयोग सुखद
तेरे - मेरे
वे वियोग सुखद
सीमाओं में था रहकर भी
वह अंतर्मन का प्रेम सुखद ।

आकांक्षाओ का मंथन कर
विष मैंने
सारा पी डाला
संसार करे
इच्छा जिसकी
वह अमृत तुझको दे डाला ।

परिणय ही प्रेम नही होता
मिलना भी
प्रेम नही होता
जिसकी
अनुभूति हों अंतर्मन
वह प्रेम विलुप्त नही होता।

No comments:

Post a Comment